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उन नैं आपने जीवन में तीसरी चीज नहीं आण दी। सैहूज-सैहूज उनके दन रात बस ग्यान का सुबेरा बण गे । उनके ग्यान का चांदणा चारूं कान्नीं बिखरण लाग्या । आपणे गरु के चरणां मैं जैन सास्तर पड्ढे । पडूढे अर उनकी बात्तां पै चाल्ले ।
साधू बणें पाच्छे आपणे जी मैं तिरिस्ना का उन नैं नाम-निसान नहीं छोड्या । ना तै उनमैं इस बात की तिरिस्ना थी अक मेरे नाम के झण्डे गड ज्यां अर ना-ए इस बात की तिरिस्ना थी अक मैं छूट के चेल्ले कर ल्यूं । उन नैं तै बस आपणा आप्पा पढ्या अर ग्यान का परसाद साऱ्यां तै दिया । आपणी आखरी सांस ताईं वे मन तै भी साधू रहे, बचन तै भी अर करमां तै भी। उन नै तै आपणा पूरा ध्यान योग में ला राख्या था । बाहूर की दुनिया मैं उनका कुछ ना था । उनका जो कुछ था ओ भीतर की दुनिया मैं ए था । सारी तिरिस्ना छोड़ के उन नैं मन अर आतमा एक बणा राखे थे । बरमच की ताक्कत तै उनकी योग-साधना ऊप्पर ताईं पहोंच गी थी । जाएं तै सन् १६३३ मैं राजस्थान के अजमेर सैहूर मैं साधुआं नैं अर गिरस्तियां नैं उन तैं 'योगिराज' का पद दिया। सारी जिनगी वे आपणी योग-साधना मैं-ए लाग्गे रहे। उनकी साधना पै ना तै योगिराज कुहाण का कोए फरक पडूया अर ना ए साधुओं के संघ नायक बणन का। हरियाणा के जींद सैहूर मैं सन् १६६४ मैं वे साधुआं अर सरावगां नैं 'संघ नायक' बणाए थे। उनकी निगाह मैं बड्डे -छोटे अर जात-पांत का कोए भी भेद-भाव ना था ।
योग-साधना, धरम- ध्यान अर तिपस्या तैं उनकी आत्मा सुद्ध अर पवित्तर बणगी थी । बड्डी-बड्डी सिद्धियां उन मै परगट होगी थी । उनकै
साच्चे गरू योगिराज सिरी रामजीलाल जी म्हाराज / 116