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सम्मत् १६६८ (सन् १९११) मैं उस जमान्ने के सब ते ऊंच्चे संत चारित्तर चूड़ामणी सिरी मायाराम जी महाराज का चमास्सा बड़ोद्दे मैं होया । उस चमास्से मैं बड़ा धरम ध्यान होया । सारा-ए गाम जैन धरम की भगती मैं लाग्य ग्या। एक दन गाम के बड्डे-बडेरां नै सिरी मायाराम जी म्हाराज तै कहूया गरू महाराज ! थाम नैं सारा गाम धरम मैं ला दिया । चुगरदे नै थारी जै-जैकार हो रही सै। बाकी म्हारे जी नै सांती जिब आवै, जिब थाम रामजीलाल नै अर उसकी पाल्टी ने सुधार दूयो ।
यू रामजीलाल कुण सै भाई? सिरी मायाराम जी म्हाराज ने बूज्झा! बडेरां ने म्हाराज तैं सारी बात बताई। सुण कै म्हाराज बोल्ये- देखोकोसस करूंगा, जुआनां नै समझाण की। उस चमास्से मैं सिरी मायाराम जी तै योगिराज जी मिल्ले । अर उनका उपदेस सुण कै धरम ध्यान में लाग ग्ये । फेर उनके जी मैं आया यू संसार झूट्ठा सै। साधु बण कै आपणी आतमा का किल्लाण करणा चहिए। जिब इस बात का बेरा मां-बांपां नै लाग्या तै सब नैं सिमझाण खात्तर पूरा जोर लाया पर रामजीलाल पै तै मायाराम जी का रंग चढ रहूया था। ओ के उतरे था! दो साल पाच्छै उस रंग के चिमकण का टैम आ गया। पर देखो.. करम की बात | जिब रंग चिमकण का बखत आया तै रंग चढ़ाण आले मायाराम जी ए ना रहे । फेर उसनें के सब ते छोटे चेल्ले सिरी सुखी राम जी म्हाराज गरू बणाए । रामजीलाल जी नैं उनके चरणां मैं दिल्ली के सदर बजार मैं सम्मत १६७१ के मंगसिर के महीने मैं किरसन पक्स की चोदस के दन (१६ नवम्बर, सन् १६१४ ) साधू बणन की दीक्सा ले ली। ईब वे मुनी रामजीलाल कुहाण लाग्गे । गरू की सेवा अर धरम का आचरण छोड़ कै
हरियाणवी जैन कथायें / 114
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