Book Title: Haryanvi Jain Kathayen
Author(s): Subhadramuni
Publisher: Mayaram Sambodhi Prakashan

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Page 141
________________ योगिराज जी सिमझ गे अक कात्तक की बेमारी का इलाज लिकड्याया सै। वे पहला की तरियां मंगली सुणान जाण लाग्गे । लोग्गां नैं बेरा पाट्या । फेर वे भी ल्हासी पीण लाग्गे । फेर के था। या कात्तक की बेमारी की दुआई बण गी। छाछ पी-पी के सारे ईसे हो गे- जाणुं बेमार पड़े-ए ना थे। सारे गाम मैं रूक्का पाट ग्या अक योगिराज जी की किरपा तै सारा गाम बच गया। ना तै बेरां नां के होंदी। इस बात तै सार्यों के अँच गी अक यू साधू तै परमात्मा का रूप से । । एक बर उनका चमास्सा हरियाणे के कैथल सैहूर मैं था। एक दन जिब वे तड़के-ए जंगल गए तै एक आदमी नैं आपणी जोत्तस लाई अर थानक ताईं उनके पाच्छै-पाच्छै आ लिया । राम-राम कर के बोल्या, "म्हातमा जी! मैं थारा भगत कोन्यां । मैं तै आपनें जुहारात का ब्योपारी जाण कै पाच्छै लाग लिया था पर आड़े आ कै बेरा पाट्या अक मेरी जोत्तस झूठी सै। मैं जिनगी तै हार लिया सूं । घर में कोए काम-धंधा भी कोन्यां । घर तै मैं न्यू-ए लिक्कड़ लिया था। आप दीख गे तै जोत्तस ला कै देख्या अक आप जुहारात के घणे बड्डे ब्योपारी सो। पर आप तै साधू लिकड़े। मन्नैं आप तै के फैदा हो सकै सै ?" योगिराज जी मैं बूज्झी अक “तू कुण-सा काम जाणै सै अर घर का काम-धंधा कित गया?" उसने बताई, “मैं हिकमत जाणूं सू । पहल्यां इस्सै सैहर मैं हिकमत की दुकान कऱ्या करता । बखत नै ईसा धक्का दीया अक दुकान बंद करणी पड़गी। आज रोटियां का भी तोड़ा हो गया ।" योगिराज जी बोल्ले अक "तेरी जोत्तस झूट्ठी कोन्यां । हम सांच्चे-ए जुहारात के ब्योपारी सैं । मैं तन्नें तीन रतन ईसे दे दूंगा अक ना तै उनकी चोरी होवै साच्चे गरू योगिराज सिरी रामजीलाल जी म्हाराज/118

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