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ओर घर तै और भिक्सा मांगण की के जरूरत से | उन नैं पातरे ठाये अर सीधे अचार्य जी के चरणां मैं उलटे आ लीए । पातरे अचार्य धरमघोस के स्यांमी धर दिए । अचार्य जी नैं साग देख्या । कुछ सोच के ओ चाख्या । बोल्ले, “यो साग तै जहरीला सै । किसे नै धोके तै दिया सै। ईब इसनैं ईसी जंगा गेर जित कोए जी-जन्तू इस साग नैं ना खा सके।”
धरमरूची ईसी जंगा टोहण खात्तर चाल पड़े।
उधर नागसिरी अराम करै थी। आपणी चतराई तै भरे काम पै वा घणी-ए राज्जी होण लाग रही थी। सोच्चै थी अक आच्छा होया मन्– कित्तै ना जाणा पड्या । कूड़ाघर मेरे घरां आपै-ए आ गया । इन मुंडे बिचारां तै उसनै म्हापाप के करम बांध लीए।
धरमरूची बण मैं खाली-सी जंगा पहोंचे । उननै माड़ा-सा साग धरती पै धऱ्या तै माड़ी वार मैं-ए साग की खसबू ते ओडै घणी सारी कीड़ी आ गी। साग चाखतें एं कीड़ी मरणी सरू हो गी। ___धरमरूची नैं देख्या अक कीड़ी ते तड़प-तड़प के मरण लाग ही सैं । उनके मन मैं घणी-ए दया आई। उन नैं सोच्ची अक ईसी जंगा तै इस दुनिया में टोही भी ना पावै जित कोए जी-जन्तू ना रहैन्दा हो ।
चाणचक मुनी जी के ख्याल मैं एक बात आयी। वे भित्तर-ए-भित्तर हांसे । आपणे आप तै बोल्ले, “सै, ईसी एक जंगा सै, जित किस्से जी-जन्तू कै खामखा कोए तकलीफ ना हो अर वा जंगा सै, मेरा पेट | जै इस साग नैं मेरे पेट में जंगा पा गी तै एकला मैं-ए मरूंगा । कम से कम ओर जी-जन्तुओं की जान तै बच-ए जागी। अर फेर, गरू जी के हुकम के
दया के समुन्दर/77