Book Title: Haryanvi Jain Kathayen
Author(s): Subhadramuni
Publisher: Mayaram Sambodhi Prakashan

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Page 109
________________ आडै के करो सो ?" अरणक नैं आपणे बारे मैं सब किमे बता दीया । लुगाई नैं उस तै मैहूल में आण की कही। मुनी भित्तर आ गया तै वा बोल्ली, “इब्बै थारी उमर मुनी बणन के लैक कोन्यां ।" या सुण के उसनै सोच्ची अक 'या ठीक-ए है सै। थोड़े दन संसार के सुख भोग ल्यूं । फेर जीसा टैम हो, देख्या जागा ।' फेर ओ उस्सै लुगाई धोरै रैण लाग्या अर संसार के भोग्गां में पड़ गया । अरणक मुनी के साथियां नैं ओ घणा-ए टोया पर कुछ बेरा कोनी लाग्या । बेटे की याद मैं अरणक की मां बौली बरगी हो गी । जंगा-जंगा वा आपणे छोरे नैं टोह्ती रहंदी । न्यू कई बरस बीत गये । एक दन अरणक मैहल मैं बैठ्या था। चाणचक उस नैं झांकी मैं कै देख्या तै एक बावली सी लुगाई हांडती होई दीक्खी । पहल्यां तै वा उसकी पिछाण में कोन्यां आई । ध्यान ला के देख्या तै सिमझ ग्या अक या तै मेरी सती मां सै । मेरी याद मैं-ए इसका यो हाल हो गया । ओ हो......मैं भी कितणा पापी सूं । मन्नै चाल कै माफी मांगणी चहिए ।' न्यू सोच कै ओ जिब्बै सती मां धोरै पहोंच गया। हाथ जोड्य कै बोल्या, 'मां ! मेरे तै भोत बड्डी गलती हो गी । तू मन्नैं माफ कर दे । सती मां बोल्यी- बेट्टा ! तन्नै यू के कऱ्या ! तो धरम नै छोड्य के पाप कै रस्ते हो लिया । अरणक बोल्या- तू मन्नै ईब के माफ करदे । जै मैं तेरा साच्चा बेट्टा हूंगा तै पूरा धरम करकै संजम पाल कै दिखाऊंगा । मां का जी पसीज ग्या । उस नैं अरणक ते असीरवाद दीया । उसकी हरियाणवी जैन कथायें/86

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