Book Title: Haryanvi Jain Kathayen
Author(s): Subhadramuni
Publisher: Mayaram Sambodhi Prakashan

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Page 112
________________ मन्तर का चिमत्कार __एक सेट था। उसकी नौकार मंतर मैं करड़ी सरधा थी। ओ सेट नरम सुभा का था अर उसके जी मैं दया-धरम भी था। ओ सोच्या करता अक ब्योपार करण खात्तर जिब मैं परदेस जाऊं तो सैहूर के ओर हीणे लोग्गां नै भी आपणी गेल्लां ले जाऊं। न्यूं सोच के परदेस जाण तै पहलां उसने एक दन सैहूर मैं डूंडी पिटवाई- “जो कोए ब्योपार करण खात्तर परदेस जाणा चावै, ओ मेरी गेल्लां चाल्लै । किस्से धोरै पूंज्जी ना हो तो मैं उसनें पूंज्जी यूंगा | ब्योपार मैं घाट्टा हो गया तो ओ भी मैं ए भरूंगा ।” । या खबर सुण कै घणे-ए हुमाए मैं भरे लोग उसकी गेल्लां हो लिए। पूरे लस्कर नैं ले के सेट चाल पड्या। सफर करती हाणां उनका लस्कर ईसे भारी जंगल में कै लिकड्या, जित डाक्कू रया करते । डाकुआं नैं ओ लस्कर निगाह लिया। ओं भी लुक-छप कै उसके पाच्छै-पाच्छै चाल पड़े। सांझ होई। लस्कर नैं एक जंगा पड़ा गेर लिया । लस्कर के लोग्गां नैं रोट्टी-पाणी त्यार कऱ्या अर खा-पी लिया। सोण की त्यारी करण लाग्गे तै सोच्ची- अक यो जंगल सै। सारे सो ज्यांगे तो कुक्कर काम चाल्लैगा । थोड़े-से लोग्गां नैं तै पैह्रा देणा चहिए। सेट बोल्या- तम सारे अराम तै सो जाओ। रूखाली करण की जुम्मेदारी मेरी सै। सारे सो गे। न्यूं देख के सेट नैं आपणे भगवान नौकार मंतर का पाठ करकै लस्कर के चारूं कान्नी एक चक्कर लाया । चक्कर ला कै ओ भी सो ग्या। मन्तर का चिमत्कार/89

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