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मदान ठाड्डा भर गया। जिब्बै-ए एक खरगोस ओड़े आया। उसनै कितै भी जंगा कोन्यां पाई । ओ जंगा टोहूता फिरै था ।
उसे टैम तमनैं खाज करण खातर आपणा पां ठाया। खरगोस नैं जंगा दीखी। ओ ओड़े-ए बैठ गया । तमनै पां धरणा चाहूया पर खरगोस की जान पै तरस खा के जमीन पै पां धर्या कोन्या । तम नैं कितणा कसट ठाया था उस टैम ? तीन दिन ताईं आग बलती रही। फेर बुझी । सारे जीव-जंतु ओड़े तै जाण लाग्गे । ओ खरगोस भी चाल्या गया । फेर जब तम नैं धरती पे पां टेकणा चाहूया तै टिक्या-ए कोन्या ऊंचे पै धरे-धरे पां कती सुन्न हो लिया था । तम नैं चालण की कोसिस करी पर पां तै कती सुन्न था । तम धरती पै धड़ाम दणे- सी ढै पड़े अर मर गे । तम नैं खरगोस पै दया करी थी इसका फल तमनैं मिल्या अर राज्जा सरेणिक के घर मैं जनम लिया। हाथी की जून मैं दूसरे खातर इतणा दुक्ख ठा कै तै तम आदमी बणे । ईब तम माड़े हे कसट तै-ए दुखी हो लिए?”
भगवान की बाणी सुण कै मेघ मुनी नैं पाछले जनमां का ग्यान हो ग्या । सारी बात उसकी सिमझ मैं आ गी। भगवान तै वे माफी मांगण लाग्गे अर कसम खा ली अक ईब मैं सारी ज्यंदगी दूसरां के भले मैं अर दूसरां की सेवा मैं- ए ला यूंगा ।
कई साल मेघ मुनी नैं करड़ी तिपस्या करी । आपणा भी भला कर्या अर औरां का भी भला कर्या । घणे-ए लोग्गां तै सचाई की राही दिखाई । 'आखिर मैं तिपस्या करते होए सरीर छोड्या अर देवलोक मैं जा कै जनम लिया ।
मेष कुवार मुनी / 75