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अनाथ कूण सै
पराणे जमान्ने की बात सै। मगध देस का राज्जा था-सरेणिक । दूर-दूर ताईं ओ घणा मस्हूर था। चारूं कान्नी उसकी जै-जैकार होया करती। उसकै घमण्ड हो गया था। उन्नै बाण पड़ गी, अक आपणे आग्गै किस्से की बात कोन्यां सुणनी ।
उस राज्जा नै हांडण मैं सुआद आया करता। एक बर सरेणिक हांडता-हांडता एक बाग मैं पहौंच गया । बाग घणा सुथरा अर हऱ्या-भऱ्या था। राज्जा ओडै माड़ी वार ठैर कै, अराम करणा चाहवै था। चाणचक बाग के एक कूणे तै महक आई, अर राज्जा नैं खींच के लेगी। ओ महक कान्हीं चाल्लण लाग्या । माड़ी दूर जा कै नैं उत्ती दीख्या-अक एक साधू आंख मीच कै ध्यान करण लाग रया सै । उसकी उमर पूरी ठेठ जुआनी की थी। उसकै मूं तें धरम का तेज चिमकै था। ईसे भोले, नीडर अर चिमकते होए मूं आले साधू नैं देख के, राज्जा पै घणा-ए असर होया ।
ओ उसके धोरै डिगर ग्या, अर ओडै-ए बैठ गया। _माड़ा-हा टैम बीत्या । जुवान साधू नै आपणी मीट्ठी हांसी तै राज्जा का दिल जीत लिया । राज्जा नैं बूज्झी, “मुनी जी..... थारी उमर तै साधुआं बरगी करड़ी ज्यंदगी बिताण के लायक कोन्यां । फेर थम नैं इस भरी जुवानी मैं साधू बणन की क्यां खातर सोच्ची?”
साधू बोल्या, "राज्जा.... मैं के करता । मैं अनाथ था अर मेरा इस दुनिया मैं कोए भी कोन्यां था । साधू बणन के अलावा ओर मैं कर भी के सकू था?"
अनाथ कूण सै/19