Book Title: Haryanvi Jain Kathayen
Author(s): Subhadramuni
Publisher: Mayaram Sambodhi Prakashan

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Page 49
________________ पड़गी । देवता अरजन माली नैं छोड के चाल्या गया । माली बेहोस हो के ढे पड्या । सुदरसन नै ध्यान खोल्या।जमीन पै पड्या होया अरजन ठाया । अरजन नैं जिब होंस आई ते आपणी आंक्खां आग्गै सुदरसन के रूप में धरम-ए खड्या दीख्या । उसनें सुदरसन तै बूझी, “थम कुण सो? कित रहो सो?" सुदरसन नैं जुआब दीया, “मैं एक जैन सरावक सूं । राजगीर मैं रया करूं सूं । ईब भगवान महावीर के दरसन करण जां सूं ।” अरजन के मन मैं ख्याल आया- जिन का भगत इतणा पहोंच्या होया सै, अर उस तै देवता की ताक्कत भी हार गी, तै उसके गरू कितणे पहोंच्चे होए होंगे। हुमाये मैं भर के उसनैं बूज्झ्या -“मैं भी भगवान महावीर के दरसन कर सकू तूं के ?" “हां....हां! कर क्यूं ना सकै! चाल मेरी गेल्लां ।” सुदरसन बोल्या, "भगवान महावीर सब नैं सरण दिया करें सैं । वे तेरा भी किल्लाण करेंगे ।” फेर अरजन नैं ले कै सुदरसन भगवान महावीर के चरणां मैं गया। दूर-दूर के लोग्गां नैं यो चिमत्कार देख्या। सुदरसन के ब्योहार तै अरजन क्यूकर बदल ग्या, सारे या बात जाणना चाह्वै थे। वे भी सारे-के-सारे भगवान महावीर के चरणां मैं पहौंच गे। भगवान नैं अरजन माली तें अर ओडै कट्ठे होए सारे लोग्गां तें धरम की बाणी सुणाई । भीड़-ए-भीड़ “भगवान महावीर की.........जै' के नारे लाण लाग्गी अर जै-जैकार तै चारूं दिसा गुंजा दी । आए होए लोग आप-आपणे घरां नैं चाले गए । अरजन नैं भगवान तै बुज्झ्या , “भंते! मेरे छिमा की मूरत/27

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