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सरीर की परछाईं भी कोन्यां होती । उनके पां भी धरती पै कोन्यां टिकते । आड़े ते सारे ए काम होण लाग रहे सैं। न्यूं लागे से ये सारे मन्नै फंसाणा चाहूवै सैं। न्यूं सोच कै ओ खड़ा हो लिया, तलवार सिंभाल ली । कड़क कै बोल्या, “मैं थारी सकीम आच्छी तरियां जाण ग्या । थम के मेरा कुछ बिगाड़ सको सो ।" न्यूं कहते-एं रोहिणिया ओड़े तै लिक्कड़ लिया । मंतरी बेचारा लखांदा रै ग्या। उन्हें सोच राक्खी थी - पाछले जनम का किस्सा कैती हाणा ओ जिब कैगा अक मैं चोर था तै हम उसने पाकड़ लेंगे। उसकी सकीम पै पाणी फिर ग्या ।
थोड़े दन पाछै एक दन एक जुआन राज्जा सरेणिक के दरबार मैं आया । राज्जा तै जैराम जी की करी । बोल्या, “म्हाराज ! मैं ओ चोर सूं जिस तै दुनिया डरै सै अर आज ताईं जिसनें कोए पाकड़ ऐ ना सक्या । मन्नै चोरी कर-कर कै घणा-ए धन कट्ठा कर राख्या सै। ओ मैं आपणे धोरै कोन्यां राखणा चाहूता । वैभार नां के पहाड़ की गुफा मैं तै थम उसनै मंगा ल्यो ।
राज्जा सुण कै अचम्भे मैं पड़ ग्या बोल्या - रै जुआन न्यूं कूक्कर ? के नां सै तेरा ?
जुआन बोल्या- मेरा नां रोहिणिया सै । मरती हाणां मेरे दादा नैं मेरे तै कही थी अक साधुआं तै दूर रहिये पर एक दन मैं चोरी करके भाज्या जाण लाग रहूया था। चाणचक मेरे पां मैं कांडा चाल ग्या । मैं उसने काढण लाग्या । जिब्बै ए मेरे कान्नां मैं भगवान महावीर की बाणी पड़गी अक देवां की माला मुरझाती कोन्यां ना उनकी आंख झिपकती, ना परछाईं पड़ती। उनकै पसीना भी नहीं आता । धरती तै वे ऊपर रहूया
रोहिणिया चोर / 35