Book Title: Haryanvi Jain Kathayen
Author(s): Subhadramuni
Publisher: Mayaram Sambodhi Prakashan

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Page 71
________________ भगवान का ध्यान चम्पा नगरी मैं एक सेट रहूया करता । उसका नां था- अरहन्तक । अरहन्नक आपणा पीसा समाज की भलाई मैं खरच करूया करै था । ओ जैन धरम मैं सरधा राक्खै था । नित-नेम करूया करै था । नगरी का धन्ना सेट हो कै भी, उसमैं रत्ती भर भी घमण्ड ना था । एक बर अरहन्नक सेट ब्योपार करण खात्तर चाल पड्या । उसकी गेल्यां घणे-ए मित्तर-प्यारे अर ढब्बी भी चाल पड़े। दूर का जाणा था अर समंदर का सफर था। कई दिन सफर मैं लागणे थे। सफर सरू हो गया । दो-चार दन तै सुथरी ढाल बीत गे। कोए बिघन कोन्या पडूया । फेर एक दन तुफान आ गया । नाव ऊंची-ऊंची खतरनाक लहरां पै ऊपर-तलै होण लाग गी । चारू कान्नीं गाड्ढा अंधेरा हो गया । सब नै लाग्या अक ईब तै मरण-घाट पहोंच लिए। सारे आपणेआपणे देवां नैं याद करण लाग गे । नाव मैं एक आदमी ईसा था जिनैं मरण का माड़ा-मोटा भी डर भै ना था। ओ सान्ती तै बैठ्या था । इंग्घै-उंग्घै ना लखावै था । ओ थासेट अरहन्नक! उस नैं मन मैं यो संकलप कर लिया अक या मुसीबत टलैगी तै मैं रोट्टी पाणी ल्यूंगा अर नहीं तै चारूं अहारां का त्याग सै । न्यू सोच कै ओ भगवान का ध्यान करण लाग ग्या । माड़ी वार पाछे उसने एक अवाज सुणाई पड़ी- 'तू इस धरम नैं छोड दे। नहीं तै तेरी नाव इब्बै- ए समंदर मैं डूब ज्यागी । तू अर तेरे सारे भगवान का ध्यान /49

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