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मित्तर-प्यारे डूब के मर ज्यांगे ।'
अरहन्नक बोल-बाला धरम-ध्यान मैं लाग्या रह्या । फेर अवाज आई- ' मैं तन्नै घणा-ए धन यूंगा | बस, एक बर तू धरम नैं झूट्ठा कह दे । माल्ला-माल हो ज्यागा ।'
माल्ला-माल होण की खबर सुण के भी अरहन्नक आपणे धरम तै माड़ा-सा भी कोन्यां डिग्या। धरम-ध्यान में लाग्या रया ।
नाव में बैठे होए ओर लोग जो डर की मारी थर-थर कांपें थे, बोल्ले, "रै सेट्ठां के सेट अरहन्नक! तू हात्थां तै यो मोक्का मत न्या लिकड़ण दे | दखे जान भी बच्चैगी अर धन भी मिल्लैगा। इस धरम नैं छोड दे।"
अरहन्नक ईब भी चुप था। ना उसनै डर लाग्गै था अर ना-ए धन के लोभ मैं ओ मऱ्या जा था। ओ तै बस, ध्यान-ए करता रह्या । घणी बार ताईं न्यूं-ए होंदी रही। नाव मैं सुआर डरे होए लोग्गां की सिमझ मैं या बात आई-ए कोन्यां अक अरहन्नक म्हारी चिन्ता क्यूं ना करदा । माड़ी वार ओर बीत गी।
सबनै देख्या अक एक देव अरहन्नक के सामी हाथ जोड़े खड्या सै | अरहन्नक नैं आंख खोल्ली । होट्ठां भित्तर हांस्या। बूज्झी, “हे देव! थम कुण सो? आड़े आण का कसट क्यूंकर कऱ्या?”
देव कही अक “इन्दर म्हाराज नै देवां की सभा मैं थारी घणी बडाई करी थी। पर, मेरा जी कोन्यां ठुक्या। थारा हिंतान लेण मैं आड़े आया था। समंदरी तूफान कुछ ना था, वा तै मेरी-ए माया थी। इंदर
हरियाणवी जैन कथायें/50