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ओ भाज लिया। राजगीर की गाल्लां मैं कै लिकड़ता होया ओ जंगल कान्नी भाज्या जाण लाग रया था। राह में भगवान महावीर की वाणी दुनिया बैट्ठी सुणै थी। सूक्खे धान्नां पै धरम का पाणी एक सांस बरसै था ।
- रोहिणिये नै दूर तै-ए भगवान देक्खे । चाणचक उस के एक बीत्ती होई पराणी बात याद आ गी। उसके दादा लौहखुर नैं मरती हाणां कही थी अक “दखे तू कद्दे भी साधू-महात्मां धोरै सत्संग में मत न्या जाइये । अर उनकी बात कद्दे सुपने में भी मत न्या सुण लिए । म्हारा दादा-लाही काम चोरी सै अर यें चोरी करण तै हटावें सैं ।" उसकै ओर भी याद आई- उसने दाा आग्गै कद्दे भी सत्संग ना सुणन का बचन भर लिया था।
ये सारी बात याद करकै रोहिणिये नैं आपणे कान्नां मैं आंगली ट्रंस ली अर आपणा मूं उंघे ते फेर लिया जित भगवान की बाणी होण लाग री थी। पहरेदार पाछै लाग रहे थे जाएं तै ईब भी ओ भाज्या जा था । चाणचक उसके पां मैं एक कांडा चाल ग्या । कांडा ईसा चाल्या , उस तै आग्गै ना भाज्या गया । कांडा काढण खात्तर उसनै कान्नां मैं तै आंगली काड्ढ़ी। जिब्बै-ए उसके कान्नां मैं भगवान महावीर की बाणी पड़गी। उसनै सुणी- “देवां की छांह कोन्यां पड़ती। उनकी आंख कोन्यां झिपकती। उनके गले में पड़ी माला कद्दे ना मुरझांदी अर उनके पां भी धरती पै कोन्यां पड़ते ।” रोहिणिये नैं कांडा काढ्या अर भाजण मैं कामयाब हो ग्या ।
सहर मैं चोरी कोन्यां थम्मी । होंदी-ए रही। रोहिणिये नैं पकड़ण खात्तर मंतरी अभैकुवांर नै एक नई सकीम बणाई । उन्नैं बेरा पाट्या अक रोहिणिया राजगीर की सब तै सुथरी पेस्सा करण आली, रण्डी धोरै जाया
हरियाणवी जैन कथायें/32