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कुछ दन बीत गे । बालक कपिल पडूढण की जिद करण लाग्या ।
मां ने सोच्ची, 'इस नगरी मैं मेरे बेटे तै जलण आले घणे-ए सैं। लोग्गां नै मेरे बेट्टे के जी की बात सिमझ ली तै वे उसने पडूढण-ए ना दें । उलटा-सीधा भका देंगे। उसके पडूढण- लिक्खण का एंतजाम तै सरावस्ती मैं कर देणा चहिए। ओड़े के अचार्य इन्दर दत्त इसके बाब्बू के आच्छे ढब्बी सैं । उनकी देख-रेख मैं छोरा आच्छी तरियां पढ़-लिख सकै सै।' न्यूं सोच कै एक दन मां नै कपिल सरावस्ती भेज दिया । ओड़ै छोरा अचार्य जी तै मिला । अचार्य जी नैं बालक की पढाई की जुम्मेदारी आपणे सिर ले ली । उसके रैहूण का एंतजाम औड़े के नगर सेट नैं कर दिया ।
धीरे-धीरे कपिल बड्डा हो गया । होणी नैं तै कुछ और-ए मंजूर था । नगर सेट कै रैहण आली एक दास्सी तै कपिल की मोहबत हो गी । आपणा - आप्पा कपिल पै सिंभला कोन्यां । परेम की आंधी मैं बैहूकै उसनैं पढणा-लिखना छोड़ दिया। अचार्य इन्दर दत्त नैं ओ घणा-ए सिमझाया । धमकाया- धमकूया भी पर कपिल कै ना लाग्गी एक भी। ओ तै परेम मैं बौला हो रूहूया था ।
एक बर नगरी मैं बनड्यां का बड्डा ए त्युहार मन्नै था । जुआन छोरी-छोरे सज-धज के ओड़े जाण लाग रे थे। दास्सी नैं भी कपिल तै बढ़िया कपड़े-लत्ते अर गहणे मांगे। मिट्ठा-सा उलाहना देंदी होई बोल्ली, “ईब तन्नै मेरा पल्ला पकडूया सै तै मेरे जी की बात भी तै तूहे पूरी करैगा । ईब तन्नै छोड कै मैं किसके घरां जां । ओर किस तै कहूं आपणे जी की बात?"
कपिल सोच में पड़ गया। ओ ईब कित जावै, के करै, किसते कहूवै
हरियाणवी जैन कथायें /8