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য়ার অফা সন্তু
"मां .... तू क्यूं रोवै सै?" छोट्टे-से बालक कपिल नैं आपणी मां की आंक्खां मैं आंस्सू देखे तै बूज्झ्या ।
“हां बेट्टा .... के करूं ? बात ईसी-ए सै । ओ देख, नए पुरोहूत का जलूस लिकड़न लाग रया सै। कोए टैम था जिब म्हाराज जितसतरू म्हारा घणा-ए ख्याल राख्या करते, पर जिब तै तेरे बाब्बू गए, म्हारे कान्नी लखाणा भी भूल गे ।” मां नै कही।
“ईब मेरे बाब्बू कित गए ?" बालक नैं फिर बूज्झ्या ।
मां नैं धोत्ती ते आपणी आंख पूंझी । बोल्ली, “बेट्टा ..... के बताऊं तन्नै? तेरे बाब्बू राज्जा के पुरोह्त थे । राज्जा कोए काम उन तै बूज्झे बिना कऱ्या-ए ना करै था । परजा मैं उनका पूरा-ए मान था । उनके मरें पाछै तै म्हारा सब किमै खू ग्या। जै आज तेरे बाब्बू होंदे तै यो जलूस उनका होंदा | उनके बिना हम कितणे गरीब हो गे... "
बालक पै मां का दुख बरदास कोन्यां होया । बोल्या, “मां ! के मैं भी पढ़-लिख के आपणे बाब्बू की पदवी हास्सल कर सकू सूं?"
“कर क्यूं ना सकदा, जै तू मैहनत तै पड्ढेगा तै राजपुरोहत बण सकै सै ।” मां नैं कही।
“मां! ईब तू रोणा छोड दे । मैं पढ-लिख कै राजपुरोहत बणूंगा ।" बेटे नैं मां की आंख पूंझते होए कही।
आनंद का खुज्जाना/7