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हरीतक्यादिवर्गः ।
कहते हैं, शाल्यपर्णी १, मणिछिद्रा २, मेदा ३, मेदोभवा ४, नाम मेदाके हैं ॥ १२९ ॥ और महामेदा १, वसुछिद्रा २, मणि ४, ये चार नाम महामेदाके हैं.
अन्यच्च.
मेदा ज्ञेया शाल्यपर्णी विज्ञामेदा भवान्धरा ॥ १३० ॥ महामेदा वसुछिद्रा त्रिदन्ता देवतामणिः ।
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अध्वरा ५, ये पांच त्रिदन्ती ३, देवता
टीका- अब और ग्रंथके मतसें मेदा महामेदाके नाम लिखते हैं. मेदा १, शाल्यपर्णी २, विज्ञामेदा ३, भवान्धरा ४, ॥ १३० ॥ महामेदा ५, वसुछिद्रा ६, त्रिदन्ता ७, देवतामणि ८,
अथ गुणाः.
मेदयुगं गुरु स्वादु वृष्यं स्तन्यं कफावहम् ॥ १३१ ॥ बृंहणं शीतलं पित्तरक्तवातज्वरप्रणुत् ।
टीका- अब मेदामहामेदोंके गुण कहते हैं. ये दोनों मेदा भारी, मधुर, पुष्ट, और दूधकों पैदा करनेवाली हैं. तथा कफकों पैदा करनेवाली हैं ।। १३१ ॥ बृंहण, शीतल है, तथा पित्तरक्त, वातज्वर, इनकों हरनेवाली हैं.
अथ काकोल्याः क्षीरकाकोल्याश्वोत्पत्तिः.
जायते क्षीरकाकोली महामेदोद्भवस्थले ॥ १३२ ॥ यत्र स्यात्क्षीरकाकोली काकोली तत्र जायते । पीवरीसदृशः कन्दः क्षीरं स्रवति गन्धवत् ॥ १३३ ॥ स प्रोक्तः क्षीरकाकोली काकोलीलिङ्ग उच्यते ।
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टीका - अब प्रथम काकोली क्षीरकाकोलीकी उत्पत्ति लिखते हैं. जहां महा• मेदा उत्पन्न होती है ।। १३२ ।। वहां क्षीरकाकोलीभी उत्पन्न होती है. और जहांपर क्षीरकाकोली उत्पन्न होती है उसी जगेपर काकोलीभी उत्पन्न होती है. और इसका शतावरिके सदृश कंद होता है, और उसमेंसें सुगंधयुक्त दूध निकलता है ॥ १३३ ॥ उसकों क्षीरकाकोली कहते हैं.
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