Book Title: Harit Kyadi Nighant
Author(s): Rangilal Pandit, Jagannath Shastri
Publisher: Hariprasad Bhagirath Gaudvanshiya
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
हरीतक्यादिनिघंटे वर्षादूर्ध्वं भवेदाज्यं पुराणं तत्रिदोषनुत् ॥ ११०॥ मूर्छाकुष्ठविषोन्मादापस्मारतिमिरापहम् । यथा यथाऽखिलं सर्पिः पुराणमधिकं भवेत् ॥ १११॥ तथा तथा गुणैः स्वैः स्वैरधिकं तदुदाहृतम् । योजयेनवमेवाज्यं भोजने तर्पणे श्रमे ॥ ११२॥ बलक्षये पाण्डुरोगे कामलानेत्ररोगयोः । राजयक्ष्मणि बाले च वृद्धे श्लेष्मकते गदे ॥ ११३॥ रोगे साम विषूच्यां च विबन्धे च मदात्यये ।
ज्वरे च दहने मन्दे न सर्पिर्बहु मन्यते ॥ ११४ ॥ टीका-कफ वात योनिदोष पित्तरक्तमें वोह हितहै स्त्रीका घृत नेत्रने हित और अमृतके समान होताहै ॥ १०६ ॥ घोडीका घृत देहाग्निकी वृद्धिकों करताहै और पाकमें हलका विष हरता तर्पण नेत्ररोगकों हरता दाहहरता घोडीका घृत होताहै ॥ १०७ ॥ दूधका घृत काविज शीतल नेत्ररोगकों हरता और पित्त दाह रक्त मद मूर्छा भ्रम वात इनकों हरताहै ॥१०८॥ पूर्वदिन किये दहीके घृतकों हैयङ्गवीन कहेतेहैं हथनीका घृत नेत्रके हित दीपन परमरुचिकों करनेवाला है ॥१०९ ॥ और बलकों करनेवाला पुष्ट शुक्रकों करनेवाला और विशेषकरके ज्वर हरता कहाहै बरषके ऊपर घी पुराना होताहै वो त्रिदोष हरताहै ॥ ११० ॥ और मूर्छा कुष्ठ विष उन्माद अपस्मार तिमिर इनकों हरताहै सब घृत जैसे जैसे पुराना होताहै ॥१११॥ वैसे वैसे अपने गुणोंकरके अधिक कहाहै राजरोगमें बालक और दृद्धकों कफके रोगमें ॥ ११२ ॥ आमके रोगमें विषूचिकामें विवन्धमें मदात्ययमें और ज्वरमें मन्दाग्निमें बहुत घृत अच्छा नहींहै ॥ ११३ ॥ ११४ ॥ इति घृतवर्गः ॥
__अथ मूत्रवर्गे गोमूत्रगुणाः. गोमूत्रं कटु तीक्ष्णोष्णं क्षारं तिक्तकषायकम् । लघ्वग्निदीपनं मेध्यं पित्तरुत्कफवातहृत् ॥ ११५॥ शूलगुल्मोदरानाहकण्ड्डक्षिमुखरोगजित् । किलासगदवातामबस्तिरुक्कुष्ठनाशनम् ॥ ११६ ॥ कासश्वासापहं शोथकामलापाण्डुरोगहृत् ।
For Private and Personal Use Only

Page Navigation
1 ... 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370