Book Title: Harit Kyadi Nighant
Author(s): Rangilal Pandit, Jagannath Shastri
Publisher: Hariprasad Bhagirath Gaudvanshiya
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३२५
तैलसंधानमधमधुइक्षुवर्गः। काशि विशद रसपाकमें मधुर ॥२॥ सूक्ष्म पीछेसें कसेला तिक्त वातकफकों हरता वीर्यमें उष्ण शीतल स्पर्शमें पुष्ट रक्तपित्तकों करनेवाला ॥ ३ ॥ लेखन मलमूत्रकों बांधनेवाला गर्भाशयका शोधन दीपन बुद्धिकों देनेवाला मेध्यके हित व्यवायि व्रण प्रमेहकों हरता ॥४॥ कर्ण योनि शिर इनके शूलकों हरता और हलकापन करनेवाला त्वचाके हित केशके हित नेत्रके हित अभ्यङ्गमें यह गुण हैं और भोजनमें इसके विपरीतगुणहैं ॥ ५॥ छिन्न भिन्न च्युत उत्पिष्ट मथित क्षत पिच्चित भन्न स्फुटित विद्ध अग्निदग्ध विश्लिष्ट दारित ॥ ६॥ तथा अभिहत निर्भुग्न मृग व्याघ्र आदि विक्षत इनका विशेष भग्ननिदानमें कियाहै इनमें वस्तिमें पीनेमें अन्नके संस्कारमें नस्यमें कर्णनेत्रमें भरनेमें ॥७॥ सेक अभ्यङ्ग अवगाह इनमें तिलका तेल प्रशस्तहै.
ननु वृंहणालेखनयोः कथं सामानाधिकरण्यमित्याह । रुक्षादिदुष्टः पवनः स्रोतः सङ्कोचयेद्यदा ॥८॥ रसो सम्याग्वहन कार्यं कुर्याद्रक्ताद्यवर्धयन् । तेषु प्रवेष्टुं सरते सौम्यस्निग्धत्वमार्दवैः ॥ ९॥ तैलं क्षमं रसं नेतुं कशानां तेन बृंहणम् । व्यवायि सूक्ष्मतीक्ष्णोष्णसरत्वैर्मेदसः क्षयम् ॥ १०॥ शनैः प्रकुरुते तैलं तेन लेखनमीरितम् । द्रुतं पुरुषं बनाति स्खलितं तत्प्रवर्तयेत् ॥ ११ ॥ ग्राहकं सारकं चापि तेन तैलमुदीरितम् । घृतमब्दात्परं पक्कं हीनवीर्यं प्रजायते ॥ १२॥ तैलं पक्कमपक्कं वा चिरस्थायि गुणाधिकम् । दीपनं सार्षपं तैलं कटु पाकरसं लघु ॥ १३॥ लेखनं स्पर्शवीर्योष्णं तीक्ष्णपित्तास्त्रदूषकम् । कफमेदोऽनिलार्शोघ्नं शिरःकर्णामयापहम् ॥ १४ ॥ कण्डकुष्ठळमिश्वित्रकोठदुष्टकमिप्रणुत् । तद्राजिकयोस्तैलं विशेषान्मूत्रकृच्छ्रकृत् ॥ १५॥ तीक्ष्णोष्णं तुवरीतैलं लघु ग्राहि कफास्त्रजित् ।
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