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हरीतक्यादिनिघंटे पीडां विधत्ते विविधां नराणां कुष्ठं क्षयं पाण्डुगदं च शोथम् । हृत्पार्श्वपीडां च करोत्यशुद्धमभ्रं त्वसिद्धं गुरुताप्रदं स्यात् १२१ टीका-चाग्री अग्निमें वज्रके समान ठहरताहै वोह अग्निमें विकारकों नहीं प्राप्त होता सब अभ्रमें वज्र श्रेष्ठ है वोह रोग बुढापा और मृत्यु इनकों हरताहै ॥ ११६ ॥ उत्तरदिशाके पहाडोंमें उत्पन्न हुवा अभ्रक अधिक सत्वसे युक्त गुणमें अधिक होताहै दक्षिणके पहाडोंमे उत्पन्न हुवा थोडे सत्ववाला और अल्पगुणकों दैनेवाला है ॥ ११७ ॥ अभ्रक कसेला मधुर शीतल आयुकों करनेवाला धातुकों बढानेवाला होताहै और त्रिदोष व्रण प्रमेह कुष्ठ प्लीहोदर ग्रन्थि विष कृमि इनकों हरताहै ॥ ११८ ॥ सेवन कियाहुवा अभ्रकका भस्म रोगोंको हरताहै शरीरकों दृढ करता है और शुक्रकी वृद्धिकों करता है ॥ ११९ ॥ तारुण्यसें भरीहुई सौस्त्रियोका भोग करताहै इसके सेवन करनेवाला मनुष्य वृद्धभी तारुण्यकों प्राप्त होताहै सिंहके समान पराक्रमवाले और दीर्घआयुवाले पुत्रोंकों उत्पन्न करता है और मृत्युके भयकों दूर करता है ॥ १२० ॥ विनासुधाहुवा और असिद्ध अभ्रक मनुष्योंकों नानाप्रकारकी पीडाको करताहै और कुष्ठ वात पांडुरोग सूजन हृदय पसलीकी पीडा इनकों करताहै तथा भारीपन और सन्ताप इनकोंभी करनेवालाहै १२१
अथ हरितालस्य नामानि लक्षणगुणाश्च. हरितालं तु तालं स्यादालं तालकमित्यपि । हरितालं द्विधा प्रोक्तं पत्राख्यं पिण्डसंज्ञकम् ॥ १२२ ॥ तयोरायं गुणैः श्रेष्ठं ततो हीनगुणं परम् । स्वर्णवर्णं गुरु स्निग्धं सपत्रं चाम्रपत्रवत् ॥ १२३ ॥ पत्राख्यं तालकं विद्याद्गुणाढ्यं तद्रसायनम् । निष्पत्रं पिण्डसदृशं स्वल्पसत्वं तथा गुरु ॥ १२४ ॥ स्त्रीपुष्पहारकं स्वल्पगुणं तत्पिण्डतालकम् । हरितालं कटु स्निग्धं कषायोष्णं हरेविषम् ॥ १२५ ॥ कण्डूकुष्ठास्यरोगास्त्रकफपित्तकचव्रणान् । हरति च हरितालं चारुतां देहजातां सृजति च बहुतापामङ्गसङ्कोचपीडाम् ।
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