Book Title: Harit Kyadi Nighant
Author(s): Rangilal Pandit, Jagannath Shastri
Publisher: Hariprasad Bhagirath Gaudvanshiya

View full book text
Previous | Next

Page 310
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वारिवर्गः। २९३ तत्तु सक्षारलवणं शुक्रदृष्टिबलापहम् ॥ १२॥ विस्त्रं च दोषलं तीक्ष्णं सर्वकर्मसमाहितम् । सामुद्रं त्वाश्विने मासि गुणैर्गाङ्गवदादिशेत् ॥ १३॥ यतोऽगस्त्यस्य दिव्यर्षेरुदयात्सकलं जलम् । निर्मलं निर्विषं स्वादु शुक्रलं स्याददोषलम् ॥ १४॥ फूत्कारविषवातेन नागानां व्योमचारिणाम् । वर्षासु सविषं तोयं दिव्यमप्याश्विनं विना ॥ १५॥ टीका-उसके लक्षण कहतेहैं दिग्गज आकाशगंगासम्बन्धि जल लेकर मेघोंसें अन्तरित दृष्टिकों करते हैं इसप्रकार सत्पुरुषोंका वचनहै ॥ ९॥ मेघगंगाजलकों प्रायः आश्विनके महीनेमें बरसाते हैं सर्वथा वोह जल देनेयोग्यहै वैसेही चरकका वचनहै ॥ १० ॥ सोनेके वा चान्दीके अथवा मिट्टीके पात्रमें रख्खेहुवे मेघानभिजोये हुवे क्लेदरहित वर्णवाला होवे ॥ ११ ॥ वोह गङ्गाजल सवदोषोंकों हरता जानना चाहिये इस्से विपरीत सामुद्र वोह क्षारके सहित शुक्र दृष्टिबलकों हरताहै ॥ १२॥ दुर्गन्धियुक्त दोषको करनेवाला तीखा सर्व कर्म समाहितहै और सामुद्र आश्विनके महीने में गुणमें गंगाजलके समान होताहै ॥ १३ ॥ क्योंकी अगस्त्यऋषिके उदयसें सम्पूर्ण जल निर्मल और निर्विष मधुर शुक्रकों करनेवाला अदोषलहै इसीवास्ते कहाहै ॥ १४ ॥ व्योमचारी सांपोंके फूत्कार विषवातसें वर्षामें सविष जल दिव्यभी आश्विनके विना होताहै ॥ १५ ॥ अथानातवानां गुणाः. अनार्तवं प्रमुञ्चन्ति वारि वारिधरास्तु यत् । तत्रिदोषाय सर्वेषां देहिनां परिकीर्तितम् ॥ १६ ॥ अनार्त्तवं तु पौषादिचतुर्मासगतं भवेत् । दिव्यवाय्वग्निसंयोगात्संहताः खात्पतन्ति याः ॥ १७॥ पाषाणषण्डवच्चापस्ताः कारिक्योऽमृतोपमाः। कारिकाजं जलं रूक्षं विशदं गुरु च स्थिरम् ॥ १८॥ दारुणं शीतलं सान्द्रं पित्तहृत्कफवातरुत् । For Private and Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370