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हरीतक्यादिनिघंटे
नादेयं वारि नाऽऽदेयं वसन्तग्रीष्म योर्बुधैः । विषवद्वनवृक्षाणां पत्राद्यैर्दूषितं च यत् ॥ ५९ ॥ औद्भिदं वान्तरिक्षं वा कौपं वा प्रावृषि स्मृतम् । शस्तं शरदि नादेयं नीरमंशूदकं परम् ॥ ६० ॥ दिवा रविकरैर्जुष्टं निशि शीतकरांशुभिः । ज्ञेयमंशूदकं नाम स्निग्धं दोषत्रयापहम् ॥ ६१ ॥ अनभिष्यन्दि निर्दोषमान्तरिक्षं जलोपमम् । बल्यं रसायनं मेध्यं शीतं लघु सुधासमम् ॥ ६२ ॥
टीका - दिनका वरसाहुवा जमीनका जो जल वार्षिक है वोह अहित होता है ॥ ५६ ॥ और तीनदिनका रख्खा हुवा वोह स्वच्छ अमृत के समान होता है अनन्तर हेमन्तादिकालविरोधमें विहित जलविशेषकों कहते है ॥ ५७ ॥ हेमन्तमें सारसजल अथवा तालावका हित कहा है हेमन्तमें कहाहुवा जल शिशिरमेंभी प्रशस्त है वसन्तग्रीष्ममें कुवेका बावडीका झरनेका जल ॥ ५८ ॥ वसन्त और ग्रीष्मकामें नदीका जल न ग्राह्य है क्योंकी विषवाले वनवृक्षोंके पत्र आदिसें दूषित होता है ॥ ५९ ॥ औद्भिद आन्तरिक्ष कौप येह जल प्रावृट्कालमें कहे हैं शरदमें नदीका और अंशूदक जल परम प्रशस्त है ॥ ६० ॥ दिनमें सूर्य की किरणोंसें जुष्ट और रातमें चंकी किरणोंसें सेवितकों अंशूदक नाम जानना चाहिये वोह चिकना दोषत्रयकों हरता है ॥ ६१ ॥ और अनभिष्यन्दि दोषरहित आन्तरिक्ष जलके समान होता है बलके हित रसायन मेध्य शीतल हलका अमृतके समान होता है ।। ६२ ।।
अथान्ये जलभेदा जलग्रहणकालो जलपानविधिश्च. रविकरैर्जुष्टमित्युक्ते दिवापदं समस्तदिवसप्राप्त्यर्थं शीतकरांशुभिर्जुष्टमित्युक्ते निशीतिपदं समस्त रात्रिप्राप्त्यर्थम् अन्यच्च शरदि स्वच्छमुदयादगस्त्यस्याखिलं हितम् । वृद्ध सुश्रुतस्तु |
पौषे वारि सरोजातं माघे तत्तु तडागजम् । फाल्गुने कूपसम्भूतं चैत्रे चौंज्यं हितं मतम् ॥ ६३॥ वैशाखे नैर्झरं नीरं ज्येष्ठे शस्तं तथौद्धिदम् ।
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