________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कृतान्नवर्गः ।
समिताया घृताढ्याया वार्तिं दीर्घा समाचरेत् । तास्तु सन्निहिता दीर्घाः पीठस्योपरि धारयेत् ॥ ११५ ॥ वेल्लल्लनेनैता यथैका पर्पटी भवेत् । ततश्छुरिया तां तु सलग्नामेव कर्तयेत् ॥ ११६ ॥ ततस्तु वेल्लद्रूप सहकेन च लेपयेत् । शालिचूर्णं घृतं तोयं मिश्रितं दशकं वदेत् ॥ ११७ ॥ ततः संवृत्य तल्लोत्रीं विदधीत पृथक्पृथक् । पुनस्तां वेल्लयेल्लोलीं यथा स्यान्मण्डलाकृतिः ॥ ११८ ॥ ततस्तां सुपचेदाज्ये भवेयुश्च पुटाः स्फुटाः । सुगन्धया शर्करया तदुद्धृलनमाचरेत् ॥ ११९ ॥ सिद्वैषा फेनिका नाम्नी मण्डकेन समा गुणैः । ततः किञ्चिल्लघुरियं विशेषोऽयमुदाहृतः ॥ १२० ॥
For Private and Personal Use Only
२८१
टीका - उसके अनन्तर मैदेमें घी मिलाकर मोटी रोटी बनावै उसके अनन्तर उसके बीच में उसका पूरण देवे और दृढ मुद्र बुद्धिवान् करे ॥ १११ ॥ बुद्धिवान उसको बहुतसे घृतमें पकावै तरकीवके जाननेवालोंनें इसकों सम्पाव ऐसा कहा है ॥ ११२ ॥ बहुत घृत डालकर मैदेसें लम्बा पुटकरके अनन्तर लवंग अधिक कपूर के युक्त चीनीसें युक्तकों ॥ ११३ ॥ घृतमें पकावै यह सिद्धकर्पूर नालिका जाननी चाहिये संपावके समान गुणमें कर्पूरनालिका जाननी चाहिये ॥ ११४ ॥ घृतके सहित मैदे से लम्बी बत्ती करै वोह सन्निहित दीर्घपीडे के ऊपर रख्खे ॥ ११५ ॥ इनकों वेलनेसें वेलै जिसमें एक रोटी होजावै उसके अनन्तर उनकों छुरीसें लगी हुईकोही कठै ॥ ११६ ॥ फिर उसे बेलै और सट्टक अर्थात् चावलका आटा उस्सें लेपन करै चावलका चूर्ण घृत जल इन सब मिलेहुवेकों दशक कहते हैं ।। ११७ ॥ उस्सें लोई गोल करकै अलगअलग रख्खे फिर उस लोईकों वेलै जिसमें मंडलाकृति होजावै ॥ ११८ ॥ उसके अनन्तर उसकों घृतमें पकावै उसके पडते खिलजाते हैं सुगन्धचीनीकों उसके ऊपर बुरकावे ॥ ११९ ॥ सिद्ध येह फेनीनाम मंडकके समान गुणमें होती है उस्सें कुछ हलकी यह होती है यह विशेष कहा है ॥ १२० ॥
३६