Book Title: Gommatasara Jiva kanda Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
View full book text
________________
गो० जीवकाण्डे भावविषे[विशेषेणार्थकर्ता प्रतिपादितः ॥
महवीर भासिवत्थो तेस्सि खेत्तम्मितत्थ काले य। खाओबसमविवैड्ढिदचउरमलमईहिं पुण्णेण ॥६॥ लोयालोयाण तहा जीवाजीवाण विविहविसएसु। संदेहणासणत्थं उवगदसिरिवीरचलणमलेण ॥६८॥ विवले गोदमगोत्ते जादेणं इंदभदिणामेण । चउवेदपारगेणं विप्पेण विसुद्धसीलेण ॥९॥ भावसुदपज्जएणं परिणदमदिणा य बारसंगाणं ।
चोद्दसपुव्वाण तहा एक्कमुहुत्तेण विरचणा विहिदा ॥७॥ गाथाचतुष्टयं ॥
महावीरभाषितार्थस्तस्मिन्काले तत्रैव क्षेत्रे च क्षयोपशमविद्धितचतुरमलमतिभिः पूर्णेन ॥ लोकालोकानां तथा जीवाजीवानां विविविषयेषु सन्देहनाशनार्थमुपगतश्रीवीरचलनमूलेन ॥ विपुले गौतमगोत्रे जातेनेन्द्रभूतिनाम्ना चतुर्वेदपारगेण विप्रेण विशुद्धशीलेन ॥ भावश्रुतपर्यायेण परिणतमतिना द्वादशाङ्गानां चतुर्दशपूर्वाणां रचना मुहूर्तेनैकेनैव विहिता ॥
इय मूलतन्तकता सिरिवीरो इंदभूदिविष्पवरो।
उवतंते कत्तारो अणुतते सेस आइरिया ॥७॥
अयं मूलतन्त्रकर्ता श्रीवीरस्वामी। उपतन्त्रे कर्ता इन्द्रभूतिविप्रवरोऽनुतन्त्रे शेषाचार्याः कर्तारः॥
"णिण्ण?रायदोसा महेसिणो दिव्वतंतकत्तारा ।
कि कारणं पणिदा कहिदुं सुत्तस्स पामण्णं ॥७२॥ निर्नष्ट रागद्वेषा महर्षयः दिव्यतन्त्रकर्तारः। किमर्थं प्रभणिताः कथयितुं सूत्रस्य प्रामाण्यं ॥ उत्तरग्रन्थकर्ता तदनुक्रमधराविनष्टसूत्रार्थरागादिदोषरहितमहामुनिगणः ।
इस प्रकार भावकी अपेक्षा अर्थकर्ताका कथन किया ।
उसी कालमें,उसी क्षेत्रमें क्षयोपशमसे वृद्धिको प्राप्त चार निर्मल ज्ञानसे परिपूर्ण, तथा २५ लोक अलोक और जीव-अजीव सम्बन्धी विविध विषयोंमें सन्देहको दूर करने के लिए
भगवान महावीरके पादमूलमें आये हुए, महान् गौतम गोत्रमें उत्पन्न हुए, चारों वेदोंमें पारंगत विशुद्ध शीलवान् इन्द्रभूति नामक ब्राह्मणने, जिन्हें भाव श्रुत ज्ञान प्राप्त हुआ था, भगवान् महावीरके द्वारा कहे गये अर्थको लेकर एक ही मुहूर्तमें बारह अंगों और चौदह पूर्वोकी रचना की ॥६७-७०॥
इस प्रकार मूल तन्त्रकर्ता श्री महावीर स्वामी हुए । इन्द्रभूति ब्राह्मण श्रेष्ठ उपतन्त्रकर्ता हुए और शेष आचार्य अनुतन्त्रकर्ता हुए। तथा राग-द्वेषसे रहित महर्षिगण दिव्य तन्त्रकर्ता हुए ॥७१॥
शंका-सूत्रका प्रामाण्य किसलिए कहा है ?
३०
१.ति.प. १७६-७९। २. क तास्सि । ३.क विवत्थिदं । ४. कणम्मिप्पेण । ५. ति. प. १४८०। ३५ ६. ति. प. ११८१ । ७. म दोषा महर्षिणो ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org |