Book Title: Gommatasara Jiva kanda Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 433
________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ३७५ मदुकारणदिंद शरीरपर्याप्तिनिष्पत्तियागुत्तिरलु आहारवर्गणयिनाहारकशरीरयोग्यपुद्गलस्कंधाकर्षणशक्तिविशिष्टात्मप्रदेशपरिस्पंदमाहारककाययोगमे दितु ज्ञातव्यमक्कुं। अनंतरमाहारककायमिश्रयोगमं पेळ्दपं : आहारय उत्तत्थं विजाण मिस्सं तु अपरिपुण्णं तं । जो तेण संपजोगो आहारयमिस्संगो जोगो ॥२४०।। आहारकोक्तार्थं विजानीहि मिथ तु अपरिपूर्ण तत् । यस्तेन संप्रयोगः आहारकमिश्रयोग सः॥ ____उक्तात्थं प्रायुक्तस्वरूपमप्पुदावुदानुमोंदाहारकशरीरमे यन्नेवरमपर्याप्त कालांतर्मुहर्तपथ्यंतमपरिपूर्णमाहारवर्गणायातयुद्गलस्कंधमनाहारकशरोराकारदिदं परिणमिसल्कसमयमन्नवरं मिश्रमदु पेळल्पद्रुदु । तत् प्राक्काल भावियप्पौदारिकशरीरवर्गणानिश्रवदिद मैदरोडने १० वर्तमानमप्प यस्संप्रयोग अपरिपूर्णशक्तियुक्तात्मप्रदेशपरिस्पंदं स अदाहारककायमिश्रयोग दितु भणितमायतु । तु शब्दमीयर्थमन्नेले भव्य विजानीहि एंदिती विशेषमं पेन्गुं। अनंतरं कार्मणकाययोगमं पेन्दपं: कम्मेव य कम्मभवं कम्मइयं तेण जो दु संजोगो । कम्मइयकायजोगो इगिविगतिगसमयकालेसु ।।२४१॥ कर्मैव च कर्मभवं कार्मणं तेन यस्तु संयोगः। कार्मणकाययोगः एकद्वित्रिसमय कालेषु ॥ शरीरं ततः कारणाच्छरीरपर्याप्तिनिष्पत्तौ सत्यां आहारकवर्गणाभिः आहारकशरीरयोग्यपुद्गलस्कन्धाकर्षणशक्तिविशिष्टात्मप्रदेशपरिस्पन्दः आहारककाययोग इति ज्ञातव्यम् ॥२३९॥ अत्र तन्मिश्रयोगं प्ररूपयति यत् उतार्थं प्रागुक्तस्वरूपं आहारकशरीरं तदेव यावदपर्याप्तकालान्तर्मुहूर्तपर्यन्तमपरिपूर्ण आहारकवर्गणायातपुद्गलस्कन्धान आहारकशरीराकारेण परिणमयितुमसमर्थं तावन्मिथमित्युच्यते । तत्प्राक्कालभाव्यौदारिकशरीरवर्गणामिश्रत्वेन ताभिः सह वर्तमानो यः संप्रयोगः-अपरिपूर्णशक्तियुक्तात्मप्रदेशपरिस्पन्दः स आहारककायमिश्रयोग इति भण्यते । तु शब्दः इममर्थं हे भव्य ! त्वं जानीहि इति विशेष कथयति ॥२४०॥ अथ कार्मणकाययोगमाह २० तिस कारणसे शरीरपर्याप्तिकी पूर्णता होनेपर आहार वर्गणाओंके द्वारा आहारक शरीरके योग्य पुद्गलस्कन्धोंको ग्रहण करनेकी शक्तिसे विशिष्ट आत्माके प्रदेशोंका चलन आहारकाय योग जानना ।।२३९॥ जिसका स्वरूप ऊपर कहा है,वह आहारक शरीर ही जब अन्तर्मुहूत पर्यन्त अपर्याप्तकालमें अपरिपूर्ण होता है अर्थात् आहारवर्गणाके गृहीत पुद्गल स्कन्धोंको आहारक शरीरके आकार रूपसे परिणमाने में असमर्थ होता है, तब तक उसे आहारक मिश्र कहते हैं। उससे पहले होनेवाली औदारिक शरीर वर्गणासे मिला होनेसे उनके साथ जो संप्रयोग अर्थात् अपरिपूर्ण शक्तिसे युक्त आत्माके प्रदेशोंका चलन है,उसे आहारकमिश्रयोग कहते हैं। तु'शब्द ३० 'हे भव्य ! इस अर्थको तुम जानो' यह विशेष कथन करता है ॥२४०।। आगे कार्मणकाय योगको कहते हैं१. क स्सजोगो सो। २. म मिवरो। ३. म कालम्मि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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