Book Title: Gommatasara Jiva kanda Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 514
________________ ४५६ गो० जीवकाण्डे एंदिता कालप्रमाणमावल्यसंख्यातेकभागमात्रमक्कुं। निरंतरोत्पत्तिकालमेंबुदत्थं । अनुपक्रमकालमें बुदुत्पत्तिरहितकालमदु संख्यातावलिप्रमितमक्कु द्वादशमुहूर्त्तमात्रमुत्कर्षदिंदमुत्पत्त्यभावकालमें. बुदमितु क्रमशः यथाक्रमं वनेषु भवा वाना व्यंतरा इत्यर्थः वाने एंदितेकवचनं सामान्यापेक्षयिदं माडल्पद्रुदु अ=२१ उ २ अ २१ उ २ तहि सव्वे सुद्धसला सोवक्कमकालदो दु संखगुणा । तत्तो संखगुणूणा अपुण्णकालम्मि सुद्धसला ॥२६७॥ तत्र सर्वाः शुद्धशलाकाः सोपक्रमकालतस्तु संख्यगुणाः। ततः संख्यगुणोना अपूर्णकाले शुद्धशलाकाः॥ तद्दशहस्रवर्षमात्रस्थितियोळल्ला पर्याप्तापर्याप्त कालद्वयसंबंधिगळप्प शुद्धशलाकाः शुद्धोप१० क्रमकालशलाकगळु आवल्यसंख्यात भागमात्रमप्प सोपक्रमकालमं नोडलु संख्यातगुणितंगळु २११ मवं नोडलु अपर्याप्तकालशुद्धोपक्रमशलाकंगळु संख्यातगुणहीनंगळप्पु २१- व ते दोडे इल्लि त्रैराशिकंगळु माडल्पडुवुवदे ते दोडे सोपक्रमानुपक्रमकालद्वययुतिगिनितु कालक्कोंदु शलाकया - द्वौ भंगौ भवतः । तत्र उत्पत्तिः-उपक्रमः तत्सहितः कालः सोपक्रमकालः निरन्तरोत्पत्तिकालः इत्यर्थः । तत्प्रमाणं आवल्यसंख्यातकभागमात्रं भवति । अनुपक्रमकाल:-उत्पत्तिरहितः कालः, स च संख्यातावलिप्रमितो १५ भवति । द्वादशमुहूर्तमात्रः उत्कर्षेण उत्पत्त्यभावकालः इत्यर्थः । क्रमशः-यथाक्रम, वनेषु भवाः वानाः-व्यन्तराः इत्यर्थः । वाने इत्येकवचनं सामान्यापेक्षया कृतम् ॥२६६॥ तत्र दशसहस्रवर्षमात्रजघन्यस्थिती सर्वाः पर्याप्तापर्याप्तकालद्वयसम्बन्धिन्यः शुद्धशलाकाः शुद्धोपक्रमकालशलाकाः आवल्यसंख्यातेकभागमात्रात् सोपक्रमकालात् संख्या ।गुणिता भवन्ति २ १ । एताम्यः a अपर्याप्तकालशुद्धोपक्रमशलाकाः संख्यातगुणहीना भवन्ति । २ । १ तद्यथा सोपक्रमानुपकमकालद्वयस्य यद्येका २० जघन्य स्थितिवाले व्यन्तर देवोंकी स्थितिके सोपक्रमकाल और अनुपक्रमकाल इस प्रकार दो भाग हैं। उपक्रमका अर्थ है उत्पत्ति । अतः उत्पत्ति सहित कालको सोपक्रम काल कहते हैं, उसका अर्थ है निरन्तर उत्पत्तिकाल । उसका प्रमाण आवलिका असंख्यातवाँ भागमात्र है। उत्पत्तिरहित कालको अनुपक्रम काल कहते हैं , उसका प्रमाण संख्यात आवली है। अर्थात् उत्पत्तिके अभावका काल उत्कृष्ट बारह मुहूर्त मात्र है। इसका यह अभिप्राय है कि यदि २५ व्यन्तर देवोंमें निरन्तर व्यन्तर देव जन्म लेते रहें, तो आवलीके असंख्यातवें भागमात्र काल तक लेते रहते हैं। और यदि कोई भी व्यन्तर देव नहीं उत्पन्न होता, तो अधिकसे अधिक बारह मुहूर्त तक उत्पन्न नहीं होता ॥२६६।। उस दस हजार वर्ष प्रमाण जघन्य स्थितिमें सब पर्याप्त और अपर्याप्तकाल सम्बन्धी शुद्ध शलाका अर्थात् शुद्ध उपक्रमकाल सम्बन्धी शलाका आवलीके असंख्यातवें भागमात्र ३० सोपक्रम कालसे संख्यात गुणित होती हैं । इनसे अपर्याप्तकाल सम्बन्धी शुद्ध उपक्रम शलाका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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