Book Title: Gommatasara Jiva kanda Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 522
________________ ४६४ २० गो० जीवकाण्डे एदि प्रतिपादितदिदं संभवमप्युर्दारदं । वेदसुदीरणा परिणामस्त य हवेज्ज संमोहो । संमोहेण ण जाणदि जीवो हु गुणं व दोसं वा ॥ २७२॥ वेदस्योदोरणया परिणामस्य च भवेत्संमोहः । संमोहेन न जानाति जीवः खलु गुणं वा ५ दोषं वा ॥ वेदस्य चारित्रमोहभेदमप्प नोकषायप्रकृतिय अपक्वपाचन लक्षणो दीरणयिदमुं स्वकालपाकलक्षणोदर्याददमुं परिणामस्य चित्पर्य्यायक्क संमोहः रागावेशरूपचित्तविक्षेपमक्कुं | मर्दारंदमा संमोहदि गुण मे दोषमं मेणु जीवं बगयने दितिदरदं गुणदोषविवेका भावलक्षणवेदोदय कृतचित्तविक्षेपप्रभवमनत्थं तोरल्पदुदट्टु कारणमागि परमागमभावनाबलदिदं जीवनदं यथावत्स्वरूप१० संवेदिदं । आत्महितदेव [-तमेतद्] व्रतमवश्यमनुष्ठातव्य में बुदु भावात्थं । पुरुगुणभोगे शेते करोति लोके पुरुगुणं कम्मं । पूरूत्तमश्च यस्मात्तस्मात्स वर्णितः पुरुषः ॥ यस्मात् कारणात् आवुदो दु कारणदिदं लोके लोकदोळ यो जीवः आवनोवं जीवं पुरुगुणे १५ सम्यग्ज्ञानाद्यधिकगुणसमूहदोळ शेते स्वामित्वदिदं प्रवत्तिसुगुं । पुरुभोगे नरेंद्र नागेंद्र देवेंद्राद्यधिकभोगचयदोळु भोक्तृत्वदिदं प्रवत्तसुगुं । पुरुगुणवत्कर्म्म धर्म्मार्थकाममोक्षलक्षणपुरुषात्थंसाधनमप्प पुरुगुणभोगेसे करेदि लोयम्मि पुरुगुणं कम्मं । पुरु उत्तमो य जम्हा तम्हा सो वण्णिओ पुरिसो || २७३ || वि तहा झाणुवत्ताय ते दु सिज्झति ।" इति प्रतिपादितत्वेन संभवात् ॥ २७१ ॥ वेदस्य चारित्रमोहभेदनोकषायप्रकृतेः अपक्वपाचनलक्षणोदीरणया स्वकाले पाकलक्षणोदयेन च परिणामस्य चित्पर्यायस्य संमोहः - रागद्वेषरूपः चित्तविक्षेपो भवति । तेन संमोहेन गुणं वा दोषं वा जीवो न जानाति । अनेन गुणदोषविवेकाभावलक्षणः वेदोदयकृतचित्तविक्षेपप्रभवः अनर्थो दर्शितः । ततः कारणात् परमागमभावनाबलेन जोवेन यथावत्स्वरूपसंवेदनादिना आत्महितमेतद्व्रतमवश्यमनुष्ठातव्यमिति भावार्थः ॥ २७२ ॥ यस्मात् कारणात् लोके यो जीवः पुरुगुणे सम्यग्ज्ञानाधिकगुणसमूहे शेते - स्वामित्वेन प्रवर्तते, पुरुभोगे नरेन्द्रनागेन्द्रदेवेन्द्राद्यधिकभोगचये भोक्तृत्वेन प्रवर्तते, पुरुगुणं कर्म धर्मार्थकाममोक्ष लक्षणपुरुषार्थं साधनरूप Jain Education International जीवके अनिवृत्तिकरणके सवेद भाग पर्यन्त तीनों वेदोंका अस्तित्व परमागम में कहा है । यथा - 'शेष वेदोंके उदयसे भी ध्यानमें मग्न जीव मुक्ति प्राप्त करते हैं' ॥२७१ ॥ २५ चारित्रमोहनीयके भेद नोकषायरूप वेद प्रकृतिको उदीरणा या उदयसे आत्माके परिणामोंमें सम्मोह अर्थात् रागद्वेषरूप चित्तविक्षेप होता है। बिना ही काल आये कर्मके फल देनेको उदीरणा कहते हैं, इसीसे इसका लक्षण अपक्वपाचन कहा है। और काल आनेपर फल देना उदय है । उस सम्मोहके होनेसे जीव गुण या दोषको नहीं जानता । इस कथनसे यह ३० दिखलाया है कि गुण और दोषका विवेक न होने रूप अनर्थ वेदके उदयसे होनेवाले चित विक्षेपसे होता है । इसलिए जीवको परमागमकी भावनाके बलसे यथार्थ स्वरूप संवेदन आदि द्वारा आत्महित ( ब्रह्मचर्यव्रत) को अवश्य ग्रहण करना चाहिए, यह भावार्थ है ॥ २७२ ॥ जिस कारण से लोक में जो जीव पुरुगुण अर्थात् सम्यग्ज्ञान आदि गुणसमूह में 'शेते' अर्थात् स्वामीरूपसे प्रवृत्त होता है, पुरुभोग अर्थात् नरेन्द्र, नागेन्द्र, देवेन्द्र आदि से भी ३५ अधिक भोगोंका भोक्ता होता है, 'पुरुगुणकर्म' अर्थात् धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरुषार्थकी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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