Book Title: Gommatasara Jiva kanda Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 558
________________ ५०० गो० जीवकाण्डे सव्वसमासेणवहिदसगसगरासी पुणो वि संगुणिदे । सगसगगुणकारेहि य सगसगरासीण परिमाणं ॥२९७।। सर्वसमासेनापहृतस्वस्वराशिःपुनरपि संगुणिते। स्वस्वगुणकारैश्च स्वस्वराशीनां परिमाणं॥ पुनः मत्तं नारकदेवगतिगळ सर्वकषायोदयकालंगळ समानदिदं संयोगदिदं युतियिदं ५ भागिसि स्वस्वगतिसंभविजीवराशियं स्वस्वकषायोदयकालगुणकारंगाळदं गुणिसुत्तिरलु स्वस्वकषायोदयविशिष्टजीवराशिगळ परिमाणमक्कुमपि च शब्दंगळु गतिद्वयसमुच्चयात्थंगळु । नरकगतियोळं देवगतियोमित कर्तव्यमें दितु इल्लि त्रैराशिकं माडल्पडुगुमिनितु कालक्किनितु जीवंगळु पडेयल्पडुत्तिरलागळिनितु कालक्किनितु जीवंगळ्पडेयल्पडुवमें दितु त्रैराशिकं माडि प्र का = २२। ८५ फ-२' इ। २१ । ६४ अपतितलब्धप्रमितंगळु नरकगतिय क्रोधकषायोदययुक्तनारकजीवंगळ प्रमाणमक्कु-। -२०६४मित मानादिकषायोदयकालंगळनिच्छाराशिगळं माडि त्रैराशिकविधानदिदं बंद लब्धप्रमाणमानादिकषायोदयपरिणतनारकजीवंगळ प्रमाणमक्कुं। नारकमानकषायिगळु -२।१६ नारकमायाकषायिगळु -२।४ नारकलोभकषायिगळु पुन रकदेवगत्योः सर्वकषायोदयकालानां समासेन युत्या भक्ते स्वस्वगतिसंभविजीवराशी स्वस्वकषायोदयकालगणकारेण गणिते सति स्वस्वकषायोदयविशिष्टजीवराशीनां परिमाणं भवति । अपि च-शब्दो १५ गतिद्वयसमुच्चयार्थी नरकगती देवगतो चैवं कर्तव्यमिति । तत्र एतावता कालेन यद्येतावन्तो जीवा लभ्यन्ते तदैतावता कालेन कियन्तो जीवा लम्वन्ते इति त्रैराशिकं कृत्वा प्र२१। ८५ । फ-२ । इ २१६४ अपवर्तितलब्धप्रमिते नरकगतौ क्रोधकषायोदययक्तनारकजीवराशिप्रमाणं भवति ।-२ । ६४ । एवं मानादिकषायोदयकालान् इच्छाराशीन् कृत्वा त्रैराशिकविधानेन लब्धप्रमाणं मानादिकषायोदयपरिणतनारक२० जीवराशिप्रमाणं भवति । नारकमानकषायिण:-२ । १६ नारकमायाकषायिण:-२ । ४ नारकलोभ यथा-देवोंमें क्रोध कषायका उदयकाल सबसे स्तोक अन्तर्मुहूर्त है अर्थात् एक है। उससे मान कषायका उदयकाल संख्यातगुणा है यथा ४ । उससे माया कषायका उदयकाल संख्यातगुणा है यथा १६ । उससे लोभ कषायका उदयकाल संख्यातगुणा है, यथा ६४ ॥२९६।।। नरकगति और देवगतिमें सब कषायोंके उदयकालोंको जोड़कर उससे अपनी-अपनी २५ गतिमें सम्भवित जीवराशिमें भाग देनेपर तथा जो लब्ध आवे उससे अपने-अपने कषायके उदयकालरूप गुणकारसे गुणा करनेपर अपने-अपने कषायके उदयसे विशिष्ट जीव राशिका परिमाण होता है। गालामें आये 'अपि' और 'च' शब्द दो गतियोंके समुच्चयके लिए है। अर्थात् नरकगति और देवगतिमें ऐसा करना चाहिए। अतः वहाँ यदि इतने कालमें इतने जीव प्राप्त होते हैं तब इतने कालमें कितने जीव प्राप्त हुए इस प्रकार त्रैराशिक करना चाहिए। प्रमाण राशि सब कषायोंका काल, फलराशि समस्त नारकियोंकी संख्या, इच्छाराशि अमुक कषायका काल। जैसे नरक गतिमें लोभका काल १, मायाका ४, मानका १६ और क्रोधका ६४ है सबका जोड़ पिचासी ८५ हुआ। नारकी जीवोंका प्रमाण कल्पना किया १७००। उसमें पचासीसे भाग देनेपर लब्ध बीस आया । उसको एकसे गुणा करनेपर बीस लोभ कषायवालोंकी संख्या आयी। चारसे गुणा करनेपर अस्सी आये सो माया कषाय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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