Book Title: Gommatasara Jiva kanda Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
View full book text
________________
कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका
३७७
प्रमत्तविरतरो वैक्रियिकयोगक्रियेयुमाहारक योगक्रियेयुं युगपत्संभविसुववल्लवु आगलोम्याहारकयोगमवलंबिसि प्रमत्तसंयतंगे गमनादिक्रिये प्रवत्तिसुगुमागळ विक्रिर्याद्धबलदिव वैक्रियिकयोगमवलंबिसि प्रमत्तसंयतनोळ वैक्रियिक क्रिये घटिसके दोष्ड आहारकद्धविक्रियद्धयुक्तरोळु युगपदवृत्तिविरोधमप्पुर्दारदमिदरिदं गणधरादिगळ्गमितर्राद्ध युगपदवृत्तिसंभवं सूचिसल्पटुत । योगोपि योगमु मोदे कालवाळु स्वयोग्यांतर्मुहूर्त्तदोळेकयोगमे नियर्मादिदमक्कु- ५ मेरुं मे योगंळेकजीवन !ळसंभविसवु ।
"अंगुत्तरले योगकालदळन्ययोगकाय्यंगळप्प गमनादिक्रियेगळगे संभवमे बुदतिक्रांतयोगसंस्कारजनितं विरोधिसल्पडदे ते दोडे कुलालदंड प्रयोगाऽभावदोळं तत्संस्कारबलदिदं चक्रभ्रमणदंते संस्कारक्षयदोळु बाणपतनदंते क्रियावृत्ति काणल्पडुगुम कारर्णादिदमे संस्कारवर्शादिदं युगपदनेकक्रियाप्रवृत्तिप्रसंगमागुत्तिरलु प्रमत्तविरतनोल वैक्रियिकाहारकशरीरक्रियेगळ्गे युगपत्प्रवृत्तिप्रति - १० धमाचार्य्यनदं प्ररूपितमाप्तु ।
अनंतर योगरहितात्मस्वरूपमं वेदपं ।
प्रमत्तविरते वैक्रियिकयोगक्रिया आहारकयोगक्रिया च द्वे युगपन्न संभवतः । तद्यथा - कदाचिदाहारकयोगमवलम्ब्य प्रमत्तसंयतस्य गमनादिक्रिया प्रवर्तते, तदा विक्रियद्धिबलेन वैक्रियिकयोगमवलम्ब्य वैक्रियिकक्रिया न घटते, आहारकधिविक्रियर्थ्योस्तस्य युगपद्वृत्तिविरोधात् । अनेन गणधरादीनां इतरधियुगपद्वृत्तिसंभवः १५ सूचितः । तथा योगोऽपि एककाले स्वयोग्यान्तर्मुहूर्ते एक एव नियमेन भवति । द्वौ त्रयो वा योगा एकजीवे युगपन्न संभवन्ति । तथा सति एकयोगकाले अन्ययोगकार्यरूपगमनादिक्रियाणां संभवो नामातिक्रान्तयोगसंस्कारजनितो न विरुध्यते । कुलालदण्डप्रयोगाभावेऽपि तत्संस्कारबलेन चक्रभ्रमणवत् संस्कारक्षये बाणपतनवत्क्रियानिवृत्तिदर्शनादेव संस्कारवशेन युगपदनेकक्रियावृत्तिप्रसङ्ग सति प्रमत्तविरते वैक्रियिकाहारकशरीरक्रिययोः युगपत्प्रवृत्तिप्रतिषेधः आचार्येण प्ररूपितो जातः || २४२॥ अथ योगरहितात्मस्वरूपं प्ररूपयति
प्रमत्तविरत में वैक्रियिकयोगक्रिया और आहारकयोगक्रिया ये दोनों एक साथ नहीं होतीं । जब आहारकयोगका अवलम्बन लेकर प्रमत्तसंयत के गमन आदि क्रिया होती है, तब विक्रिया ऋद्धिके बलसे वैक्रियिक योगका अवलम्बन लेकर वैक्रियिक क्रिया नहीं होती । क्योंकि उसके आहारकऋद्धि और विक्रियाऋद्धि दोनोंके एक साथ होनेमें विरोध है । इससे गणधर आदि के अन्य ऋद्धियों का एक साथ रहना सूचित किया है । तथा योग भी एक २५ कालमें अर्थात् अपने योग्य अन्तर्मुहूर्त में नियमसे एक ही होता है। दो या तीन योग एक जीव एक साथ नहीं होते। ऐसा होनेपर एक योगके कालमें अन्य योगका कार्यरूप गमन आदि क्रिया के होने में कोई विरोध नहीं है, क्योंकि जो योग चला गया; उसके संस्कार से एक योगके कालमें अन्य योगकी क्रिया होती है। जैसे कुम्हार दण्डके प्रयोगसे चाकको घुमाता है। पीछे दण्डका प्रयोग नहीं करनेपर भी संस्कारके बलसे चाक घूमता रहता है । या धनुष- ३० से छूटने पर बाण जबतक उसमें पूर्व संस्कार रहता है, तबतक जाता है : पीछे संस्कार नष्ट हो जाने से गिर जाता है । इस प्रकार संस्कारके वश एक साथ अनेक योगोंकी क्रिया के होनेका प्रसंग उपस्थित होनेपर प्रमत्तविरतमें वैक्रियिक और आहारक शरीरकी क्रियाओंके एक साथ होनेका निषेध आचार्यने किया है । अर्थात् ये दोनों क्रिया प्रमत्तविरतके संस्कारवश भी एक साथ नहीं होतीं ॥२४२॥
आगे योगरहित आत्माका स्वरूप कहते हैं
१. नरकजीव ।
४८
Jain Education International
२०
For Private & Personal Use Only
३५
www.jainelibrary.org