Book Title: Gommatasara Jiva kanda Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 436
________________ ३७८ गो० जीवकाण्डे जेसि ण संति जोगा सुहासुहा पुण्णपावसंजणया । ते होंति अजोगिजिणा अणोवमाणंतवलकलिया ॥२४३॥ येषां न संति योगाः शुभाशुभाः पुण्यपापसंजनकाः। ते भवंत्ययोगिजिना अनुपमानंतबलकलिताः॥ येषामात्मनां आक्कैलंबरात्मर्गे पुण्यपापसंजनकाः प्रशस्ताप्रशस्तकर्मबंधहेतुगळप्प शुभाशुभयोगाः कायवाग्मनःकर्मलक्षणंगळप्प शुभाशुभयोगंगळु न संति ते आत्मानः इल्लदिर्पा जीवंगळु अयोगिजिनाः चरमगुणस्थानत्तिगळप्प अयोगिकेवलिगर्छ। तदनंतरगुणस्थानातीतसिद्धपर्यायपरिणतरुगळं भवंति विद्युते ओळरु। इल्लि योगा भावमागुत्तिरलु अयोगिकेवल्यादिगळ्गे बलाभावं प्रसंगिसल्पडुगुमेकेदोडे अस्मदादिगळोळु बलक्के योगाश्रितत्वदर्शनदिदमें दिताशंकिसि १० इदु पेळल्पटुदु। अनुपमानंतबलकलिताः अनुपममस्मदाद्युपमातिक्रांतमनंतमक्षयानंताविभाग प्रतिच्छेदसमग्रं बलं वीयं शक्तिः कालत्रयगोचरलोकालोकत्ति सकलद्रव्यगुणपर्याययुगपद्ग्रहणसामत्थ्यं तेन कलिताः व्याप्तास्तत्स्वभावपरिणता इत्यनंतबलकलिताः एंदितु योगाश्रितमप्पबलं प्रतिनियतविषयमप्पुदु । परमात्मनबलं केवलज्ञानादियंते आत्मस्वभावत्वदिदमप्रतिनियत विषयमप्पुदरिननंतबलकलितमुमनुपममुमें बुदु भावात्।। अनंतरं शरीरक्के कर्मनोकमविभागमं पेळ्दपं । येषामात्मनां पुण्यपापसंजनकाः प्रशस्ताप्रशस्तकर्मबन्धहेतवः कायवाङ्मनःकर्मलक्षणाः शुभाशुभयोगाः न सन्ति ते आत्मानः अयोगिजिनाः चरमगुणस्थानवय॑योगिकेवलिनः तदनन्तरगुणस्थानातीतसिद्धपर्यायपरिणताश्च भवन्ति विद्यन्ते । अत्र योगाभावे सति अयोगिकेवल्यादीनां बलाभावः प्रसज्यते,अस्मदादिषु बलस्य योगाश्रितत्वदर्शनात् इत्याशक्य इदमुच्यते अनुपमानन्तबलकलिताः-अनुपमं अस्मदाद्युपमातिक्रान्तं, अनन्तं अक्षयानन्ताविभागप्रतिच्छेदसमग्रं बलं वीर्य शक्तिः कालत्रयगोचरलोकालोकवतिसकलद्रव्यगुणपर्याययुगपद्ग्रहणसामर्थ्य तेन कलिताः व्याप्ताः तत्स्वभावपरिणताः इत्यनन्तबलकलिताः इत्येवं योगाश्रितबलं प्रतिनियतविषयं भवेत् , परमात्मनो बलं केवलज्ञानादिवदात्मस्वभावत्वेन अप्रतिनियत विषयमित्यनन्तबलकलिता इति भावार्थः ॥२४३॥ अथ शरीरस्य कर्मनोकर्मविभागं कथयति जिन आत्माओंके पुण्य-पाप रूप प्रशस्त और अप्रशस्त कर्मबन्धके कारण मन-वचन२५ कायकी क्रियारूप शुभ और अशुभ योग नहीं हैं,वे आत्मा चरम गुणस्थानवर्ती अयोगिकेवली और उसके अनन्तर गुणस्थानोंसे रहित सिद्धपर्यायरूप परिणत मुक्त जीव होते हैं। योगका अभाव होनेसे अयोगिकेवली आदिमें बलका अभाव प्राप्त होता है, क्योंकि हम लोगोंमें बल योगके आधारपर ही देखा जाता है। ऐसी आशंका करके कहते हैं-'अनुपमानन्त बलकलिताः।' अनुपम अर्थात् हमारे जैसे लोगोंकी उपमाको अतिक्रान्त करनेवाले, अनन्त ३० अर्थात् अक्षयानन्त अविभाग प्रतिच्छेदोंसे सम्पूर्ण, बल अर्थात् त्रिकालके लोक-अलोकवर्ती समस्त द्रव्य,गणपर्यायको एक साथ ग्रहण करनेकी सामथ्ये, उससे कलित अथात् तत्स्वभावपरिणत अयोगी होते हैं। इस प्रकार योगके आधारसे जो बल होता है ,वह तो प्रतिनियत विषयवाला ही होता है। परमात्माका बल केवलज्ञान आदिकी तरह आत्माका स्वभाव होनेसे अप्रतिनियत विषयवाला होता है। यह 'अनन्तबलकलिता' का भावार्थ ३५ है ॥२४३॥ आगे शरीरों में कर्म-नोकर्मका विभाग कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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