Book Title: Gommatasara Jiva kanda Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 477
________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ४१९ तृतीयनिषेकंगळु त्रिरूपोनगुणहानिमात्रंगळप्पुवु ४४८ । ८ - ३ । मितु क्रमहानियिंद नडदु पर्यवसानदो ओदे द्विचरमनिषेकमक्कु - ३२० । मत्रतनप्रथमादिपंक्तिगळोल द्वितीयादिनिषेकगळोळेकाद्येकोत्तरक्रर्माद स्वस्वविशेषंगळं प्रक्षेपिसुत्तिरलु रूपोनगुणेहानिमात्रगच्छेय एकवार - संकलनमात्रप्रथम निषेकप्रमाणमभाव द्रव्यमक्कु ५ । '२।८। ८ प्रविष्टाभावद्रव्यमुं द्विरूपोनगुणहानिद्विकवार संकलितमात्रविशेषप्रमाणमक्कु मिदं पूर्व्वाभावद्रव्यदो कळेयुत्तिरलु द्विरूपाधिकपंचगुणहा निगुणितरूपोनगुणहीनिमात्रगच्छेय एकवार संकलनत्रिभागमात्रविशेषंगळु शुद्धसर्वऋणमदकु । मी एरडुं धनऋणद्रव्यंगळुनोंदे पंक्तियो स्थापिसल्पsag मत्तं द्वितीयगुणहानिप्रथम निषेकदोळ 62 ६३०० । ८३२ ८।५। ८ । ८ ३ २ १ तृतीयनिषेकाः त्रिरूपोनगुणहानिमात्राः ४४८ । ८-३ । एवं क्र महान्या गत्वा चरमे चरमनिषेक: एक: ३२० अत्र प्रथमादिपङ्क्तिषु द्वितीयादिनिषेकेषु एकाद्यैकोत्तरक्रमेण स्वविशेषेषु प्रक्षिप्तेषु रूपोनगुणहानिमात्रगच्छस्य १० एकवार संकलनमात्र प्रथमनिषेकप्रमाणमभावद्रव्यं भवति । द्विरूपोन गुणहानिद्विकवारे संकलितमात्रविशेषमिदं ३२ । ८ । भावद्रव्यदोळ २० ३२ । ८ । ८ । ८ ३ ।२।१ O ५१२ । ८ । ८ । अत्र स्थिताभाव द्रव्यं च २ १ Jain Education International " ८ । ८ पूर्वाभावद्रव्यादपनीय शेषद्विरूपा३ ।२।१ १५ इन प्रथम आदि पंक्तियोंके द्वितीय आदि निषेकोंमें एकको आदि लेकर एक-एक बढ़ाते हुए अपने-अपने चयके मिलानेपर एक कम गुणहानि प्रमाण गच्छका एक बार संकलन मात्र प्रथम निषेक प्रमाण अभाव द्रव्य होता है । इसका आशय यह है कि नीचेसे लेकर आठ पंक्ति रूप जो प्रथम गुणहानि है, उसकी दूसरी आदि पंक्तियोंमें जो निषेक घटे, उनके प्रमाणरूप घटाने योग्य जो ऋण, उसको मिलानेपर गुणहानि मात्र पंक्तियोंका धन गुणहानि गुणित समयप्रबद्ध प्रमाण होता है, क्योंकि प्रथम पंक्तिका जोड़ समयप्रबद्ध प्रमाण है । ऋणको मिलानेपर अन्य पंक्तियोंका जोड़ भी उसीके समान होता है । इस तरह गुणहानिका प्रमाण आठ है, उससे गुणित समयप्रबद्धका प्रमाण तिरेसठ सौ है । अब इसमें ऋण कितना घटाना है, यह कहते हैं १. म गुणहानिसंकलनमात्र । २. महानिसंकलनत्रिभाग । ३. स्वस्वप्रचयेषु प्रक्षिप्तेषु इति किं ? प्रथमनिषेक ५१२ संपूर्णः, द्वितीयनिषेके ४८० । ३२ । एकचयाधिके, तृतीयनिषेके ४४८ । ३२ । ३२ । द्विचयादिके एवं एकोत्तराधिकक्रमेण चरमनिषेकपर्यन्तं क्रियमाणे सति अष्टाविंशतिप्रमितानि द्वादशोत्तरपञ्चशतकानि जायन्ते । अत्र षट्पञ्चाशत्प्रमितानि द्वात्रिंशत्कानि ऋणऋणरूपाणि सन्तीति ज्ञातव्यम् । ४. व्येकपदोत्तरघातः सरूपवारो धृतो मुखेन युतः । रूपाधिकवरान्ताप्तपदाद्यतो वित्तं ॥ १॥ हारारूपादिकाः स्थाप्या अंशा गच्छादिकास्तथा । सैकवारप्रमाणान्ताश्च कवारादिकं धनम् ॥२॥ एकवारद्विवारा दिसंकलनसूत्रमिदम् । ५ For Private & Personal Use Only २० २५ www.jainelibrary.org

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