Book Title: Gommatasara Jiva kanda Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 500
________________ ४४२ गो० जीवकाण्डे नंतर समयदोळायुबंधमं निर्लेपि सुगुमें दितु। जीवंगायुर्वेदनाद्रव्यमुमेरडुमुत्कृष्टसंचयमक्कं । "अंतोमुहत्तमेत्तेण सव्वलहु सव्वपज्जत्तीहि पज्जत्तयदो "एंदिल्लितु पर्याप्तिगळं परिसमाप्ति माडि तदनंतरमंतर्मुहूर्तकालं विश्रमिसि जोविसि बंदंतर्मुहूर्ताद्धा प्रमादिदं मेलणपूर्वकोट्यायुष्यमनेल्लमनों दे समर्याददं जीविताद्धायाममात्रसंख्यातसदृशखंडमं कदळीघातदिदं घातिसि मते घातिसिव समयदोळे परभवद संबंधि पूर्वकोट्यायुष्यमं जलचरसंबंधियनन्यायुबंधाद्धिय नोडलू जलचरायुबंधाद्धिदीर्घम दितु दोग्र्घायुबंधाद्धियि कट्टि जलचरंगळोळु विवेकाभावदिदं संक्लेशजितंगळप्पसातबहुलंगळोळपकर्षणकरणदिदं विनाश्यमानद्रव्यक्क बहुत्वाभावमं कुरुत्तु मेण जलचरंगळोळायुबंधमरियल्प , एकसमयप्रबद्धप्रथमनिषेकमं स्थापिसि स १२।१६ जीविताद्धियिदं गुणिसि ८। पू१६ पू स ३२ । १६ । २११४ अल्लि रूपोनजीविताद्धासंकलनमात्रगोपुच्छविशेषगळं ८। पू १६-पू १. च बध्नाति । योगचरमजीवो बहुशः साताद्धया सहितः अनन्तरसमये आयुर्बन्धं निलिपति इत्येवं तज्जीवानां आयुर्वेदनाद्रव्ये द्वेऽपि उत्कृष्टसंचये भवति । अन्तर्मुहूर्तेन सर्वलघुसर्वपर्याप्तिभिः पर्याप्तो भूत्वा तदनन्तरमन्तर्महर्तकालं विधम्य जीवित्वा उत्पन्नान्तर्मुहुर्ताद्धाप्रमाणेन वा पूर्वकोट्यायुष्यं सर्वमप्येकेनैवं समयेन जीविताद्धायाममात्रसंख्यातसदृशखण्डं कदलीघातेन घातयित्वा पुनः घातसमये एव परभवसम्बन्धिपूर्वकोट्यायुष्यं जलचरसम्बन्धिन्यान्यायुबन्धाद्धातो जलचरायुर्बन्धाद्धा दीर्घति दीर्घायुर्बन्धाद्धया बद्ध्वा जलचरेष्वेकभावेन १५ संक्लेशजितेषु सातबहुलेषु अपकर्षणकारणेन विनाश्यमानद्रव्यस्य बहुत्वाभावं स्तोकं वा जलचरेषु आयुर्बन्धो ज्ञातव्यः। एकसमयप्रबद्धप्रथमनिषेकं स्थापयित्वा स ३२ । १६ जीविताद्धया गणयित्वा ८। पू, १६-पू २ और उसके योग्य उत्कृष्ट योगसे बाँधता है। योगयवरचनाके अन्तमें वह जीव बहुत बार साताके कालसे युक्त होता हुआ अनन्तर समयमें आयुबन्धको घटाता है। इस प्रकार उन जीवोंके आयुके वेदनाद्रव्यका उत्कृष्ट संचय होता है। इसीका विस्तारसे वर्णन कर्णाटक २० वृत्ति तथा तदनुसारी संस्कृत टीकामें किया है। विशेषार्थ-आयुके बन्ध, उदय, सत्त्वका लक्षण अन्य कमोसे विलक्षण है ; क्योंकि आयुका बन्ध अपकर्ष कालमें अथवा अन्तिम कालमें ही होता है। तथा आयुका आवाधाकाल पूर्वभवमें ही बीत जाता है । इससे आयुकी स्थिति जितने समयकी होती है, उतनी ही निषेकरचना होती है। यहाँ आयुकी स्थितिमें-से आवाधाकाल घटाया नहीं जाता। २५ १. ब योग्यचरमजीवो बहुशः साताद्वय सहितो । २. व द्रव्यं च उत्कष्टसंचयं भवति-मु । ३. ब सर्वमेकैकेनैव । ४. ब द्रव्यबहुत्वाभावं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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