Book Title: Gommatasara Jiva kanda Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 469
________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ४११ योगवारंगळ् बहुकंगळु 'संभविसवु । तद्योग्यसामग्र्यंत रंगलं बहुवारं संभविसवदु कारणमागि तदारणाच्युतकल्पद्वयदोळे बहुवारोत्कृष्टयोगादि सामग्र्यंतरसंभवमप्पुर्दारदं वैक्रियिकशरीरोत् - कृष्टसंचयमक्कु दु निश्चयिसल्पडुवुदु । च शब्ददिदं तद्योग्यसामग्र्यंतरं संचिसल्पट्टुडु । अनंतरं तैजसशरीरकार्म्मणशरीरद्वयोत्कृष्टसंचयस्थानविशेषमं पेदपं :-- तेजासरीरजेङ्कं सत्तमचरिमम्मि बिदियवारस्स । कम्मस्स वि तत्थेव य णिरए बहुवारभमियस्स ।। २५८ ।। तैजसशरीरोत्कृष्टं सप्तम्यां चरमे द्वितीयवारस्य । कार्म्मणस्यापि तत्रैव च निरये बहुवारान् भ्रमितस्य ॥ तैजसशरीरक्कमुमौदारिकशरीरक्क तंते वक्तव्यमप्पुदु विशेषमुंटदावुद दोडे सप्तमपृथ्वियो वारद्वयं पुट्टिदंगे दितु पेळपडुवुदु । आहारशरी रक्कमुमौदारिकशरीरक्कतंते पेळल्पडुगुं विशेष मुंटदावुदे दोडे : - प्रमत्तविरतंगाहारशरीरमनुत्थापिसिद्गदितु वक्तव्यमक्कुं । कार्म्मणशरीरसंचयसामग्रिविशेषमुं पेल्पडुगुमसप्तम पृथ्विोळे नरकंगळोळु बहुवारं भ्रमिसल्प ढुंगेदु पेबुदाव प्रकारदिने दोडे आवनोर्व जीवं बादरपृथ्वीकायंगळोळंतर्मुहूर्तोनपूर्वकोटिपृथक्त्वदिनधिकमप्प द्विसहस्रसागरोपमहीन कर्मवैक्रियिकशरीरस्य उत्कृष्टयोगवारो चशब्दात्तद्योग्यसामग्र्यन्तरं न संभवति तस्मात् कारणात् ॥ २५७ ॥ अथ १५ तैजसशरीरकार्माणशरीरयोरुत्कृष्टसंचयस्थान विशेषमाह - तैजसशरीरस्य उत्कृष्टसंचयः औदारिकशरीरवज्ज्ञातव्यः । किन्तु सप्तमपृथिव्यां द्वितीयवरोत्पन्नस्यैव [ जीवस्य तैजसशरीरोत्कृष्टसंचयो ] भवतीति विशेषः । आहारकशरीरस्यापि औदारिकशरीरवत् किन्तु प्रमत्तविरतस्य आहार कशरीरमुत्थापितस्यैव भवति । कार्मणशरीरस्य तु सप्तमपृथिव्यामेव नारकेषु बहुवारं भ्रमितस्यैव [ चरमवारे कार्मणशरीरस्य उत्कृष्टसंचयो ] भवति [ अन्यत्र तद्योग्योत्कृष्टसंक्लेशस्यासंभवात् ] २० केन कारणेन ? इति चेद् - कश्चिज्जीवः बादरपृथ्वीकायेष्वन्तर्मुहूर्त न्यूनपूर्वकोटिपृथक्त्वाधिकद्विसहस्रसागरोपम रहनेवाले देवों और नारकियों में नहीं होता; क्योंकि आरण और अच्युत कल्पोंको छोड़कर अन्यत्र उत्कृष्ट योगके बार बहुत नहीं होते । तथा 'च' शब्दसे उत्कृष्ट संचयके योग्य अन्य सामग्री भी बहुत बार अन्यत्र नहीं होती । इसलिए यहीं उत्कृष्ट संचय होता है || २५७॥ आगे तैजसशरीर और कार्मणशरीर के उत्कृष्ट संचयका स्थान कहते हैं तेजस शरीरका उत्कृष्ट संचय औदारिक शरीरकी तरह जानना । किन्तु इतना विशेष है कि सातवीं पृथ्वी में दूसरी बार उत्पन्न हुए जीवके तैजस शरीरका उत्कृष्ट संचय होता है । आहारक शरीरका भी औदारिक शरीरवत् जानना । किन्तु आहारक शरीरकी उत्थापना करते हुए प्रमत्त विरतके ही उसका उत्कृष्ट संचय होता है । कार्मण शरीरका उत्कृष्ट संचय सातवीं पृथिवीमें ही जो नरकों में बहुत बार भ्रमण कर चुका है, उसके अन्तिम बार में होता है । क्योंकि अन्यत्र उसके योग्य उत्कृष्ट संक्लेश नहीं होता । क्यों नहीं होता ? यह बतलाते हैं - कोई जीव बादर पृथ्वीकायों में अन्तर्मुहूर्तहीन पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक दो हजार सागर'कर्मकी स्थितिको प्राप्त हुआ। वहाँ भवस्थितिको भोगते हुए उसने पर्याप्त भव थोड़े १. म घटसिवु । २. वारा बहवो न सन्ति च शब्दात्तद्योग्य सामग्र्यन्तरं च बहुवारं न संभवति - मु । ३. ब प्रकारेण इति चेत् यो जीवो । से न्यून Jain Education International १० For Private & Personal Use Only २५ ३० ३५ www.jainelibrary.org

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