Book Title: Gommatasara Jiva kanda Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
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.१ रूवसंजुदे ठाणा ओ दुरूपं कूडुत्तिरलु १ स्थानविकल्पंगळक्कुमदरिदमंतर्मुहूत्तंगळ 'संख्यातमागुत्त संख्यातावलिप्रमाणंगळक्कुमप्पुरिदं ।।
अनंतरमितु कमंगळगं जीवंगळगं गुणस्थानाश्रितगप्प स्वरूपमं तत्तत्कर्मनिर्जराकालप्रमाणमुमं पेळदु निर्जीकर्मरप्प सिद्धपरमेष्ठिगळ स्वरूपमं मतांतरविप्रतिपत्तिनिराकरणपूर्वकं निरूपिसल्वेडि मुंदगगाथाद्वयमं पेळदपरु ।
अट्टविहकम्मवियला सीदीभूदा णिरंजणा णिच्चा ।
अट्ठगणा किदकिच्चा लोयग्गणिवासिणो सिद्धा ।।६८॥ अष्टविधका विकला: शीतीभूता निरंजना नित्याः । अष्टगुणाः कृतकृत्याः लोकाननिवासिनः सिद्धाः ॥ केवल मुक्त गुणस्थानत्तिगळे जीवंगळोळवेबुदिल्ल । मत्तं सिद्धाश्च
भक्त्वा २११
एकरूपे युते २ ११ लब्धान्तर्मुहूर्तविकल्लानां संख्यातावलिप्रमाणत्वात् ॥ ६७ ॥ १०
अथैवं सकर्मजीवानां गुणस्थानाश्रितस्वरूपं तत्तत्कर्मनिर्जराद्रव्यकालायामप्रमाणं च प्ररूप्य निर्जीर्णकर्मसिद्धपरमेष्ठिनां स्वरूपं मतान्त रविप्रतिपत्तिनिराकरणपूर्वकं गाथाद्वयेनाह
न केवलं उक्तगुणस्थानतिन एव जीवाः सन्ति सिद्धा अपि-स्वात्मोपलब्धिलक्षणसिद्धिसंपन्नमुक्तजीवा
गुणश्रेणी आयामकाल संख्यात गुणा है । इसी प्रकार पश्चात् आनुपूर्वीसे संख्यात गुणा-संख्यात गुणा ले जाना चाहिए । इस तरह अन्त तक अनेक बार संख्यातगुणा-संख्यातगुणा होनेपर भी १५ विशुद्ध मिथ्यादृष्टिके गुणश्रेणी आयामका काल अन्तर्मुहूर्त मात्र ही है। अधिक नहीं है। क्योंकि जघन्य अन्तमूहर्त आवलिप्रमाण है वह सबसे छोटा है। इससे ऊपर एक समय अधिक आवलिसे लेकर सब मध्यम अन्तर्मुहूर्त एक समय कम मुहूत प्रमाण है। एक मुहूर्तमें तीन हजार सात सौ तिहत्तर ३७७३ उच्छ्वास होते हैं । तथा एक उच्छ्वासमें संख्यात आवली होती हैं । अतः दो बार संख्यात गुणित आवलि प्रमाण उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। 'आदी अन्ते २० सुद्धे वढिहिदे रूवसंजुदे ठाणा', इस सूत्रके अनुसार आवलिमात्र जघन्य अन्तर्मुहूर्तको दो बार संख्यात गुणित आवलि प्रमाण उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्तमें-से घटाकर वृद्धिके प्रमाण एक समयसे भाग देनेपर जो प्रमाण हो,उसमें एक जोड़नेपर जो प्रमाण आवे, उतने ही अन्तर्मुहूतके भेद होते हैं जो संख्यात आवलि प्रमाण हैं ॥६॥
इस प्रकार कर्मसहित जीवोंके गुणस्थानोंके आश्रयसे होनेवाले स्वरूपका और उस २५ उस कर्मकी निर्जराके द्रव्य तथा कालके आयामका प्रमाण कहकर अब सब कर्मोको निर्जीर्ण कर देनेवाले सिद्ध परमेष्ठीके स्वरूपको अन्य मतोंके विवादका निराकरण करते हुए कहते हैं
केवल उक्त गुणस्थानवर्ती ही जीव नहीं हैं, किन्तु सिद्ध भी हैं अर्थात् स्वात्माकी १. म संख्यातं गलागुत्तिरलु सं.।
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