Book Title: Gommatasara Jiva kanda Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 430
________________ ३७२ गो० जीवकाण्डे उक्तात्थं प्रागुक्तलक्षणमप्प तत् आ वैश्विकशरीरमे वैक्रियिकशरीरमे मेणु। अपरिपूर्ण यन्नवरमंतर्मुहर्तमात्राऽपर्याप्तकालपयतं अपरिपूर्ण। शरीरपर्याप्तिनिष्पत्त्यभावदिद वैक्रियिककाययोगजननासमर्थमन्नेवरं तु मत्ते औदारिककायमिश्रदंत मिश्रम दितु जानीहि अरि। तेन आ वैक्रियिकमिश्रकायदोडने यः संप्रयोगः आवुदोंदु कर्मनोकर्म आकर्षणशक्तिसंगतमप्पऽ५ पर्याप्तकालमात्रात्मप्रदेशपरिस्पंदरूपमप्पयोगं सः अदु वैक्रियिककायमिश्रयोगमक्कुमपर्याप्तयोगं मिश्रकाययोगम बुदत्थं । अनंतरमाहारकाययोगमं गाथापंचकदिदं पेन्दपं: आहारस्सुदयेण य पमत्तविरदस्स होदि आहारो। असंजमपरिहरणटुं संदेहविणासणटुं च ॥२३५॥ आहारस्योदयेन च प्रमत्तविरतस्य भवत्याहारमसंयमपरिहरणार्थं संदेहविनाशनात्थं च ॥ प्रमत्तविरतंगाहारशरीरनामकर्मोददिद माहारवर्गणायातपुद्गलस्कंधंगळ्गाहारकशरीररूपपरिणमनदिदमाहारकशरीरमक्कुमदेनु निमित्तमक्कुम दोडे सार्द्धद्वीपद्वयत्तितीर्थयात्रादिविहारदोळसंयमपरिहरणात्थं ऋद्धिप्राप्तनादोडं प्रमत्तसंयतंगे श्रुतज्ञानावरणवीसंतरायक्षयोपशमसांद्य मागुत्तिरलागळोम्म धर्मध्यानविरोधियप्प श्रुतार्थसंदेहमक्कुमागळु तत्संदेहविनाशनार्थमु. १५ माहारकशरीरमोगगुम बुदत्थं ।। उतार्थ प्रागुक्तलक्षणं तत् वैविकशरीरमेव वैक्रियिकशरीरमेव वा यावदन्तर्मुहूर्तमात्रापर्याप्तकालपर्यन्तं अपरिपूर्ण शरीरपर्याप्तिनिष्पत्त्यभावेन वैक्रियिककाययोगजननासमर्थ तावत् तु पुनः औदारिककायमिश्रवन्मिश्रमिति जानीहि । तेन वैक्रियिकका यमिश्रेण सह यः संप्रयोगः कर्मनोकर्माकर्षणशक्तिसङ्गतापर्याप्तकालमात्रात्मप्रदेश परिस्पन्दरूपो योगः स वैक्रियिककायमिश्रयोगः अपर्याप्तयोगो मिश्रकाययोग इत्यर्थः ॥२३४॥ अथाहारककाय२० योगं गाथापञ्चकेनाह प्रमत्तविरतस्य आहारक.शरीरनामकर्मोदयेन आहारवर्गणायातपुद्गलस्कन्धानां आहारकशरीररूपपरिणमनेनाहारकशरीरं भवति तत् किमर्थं ? सार्धद्वीपद्वयवर्तितीर्थयात्रादिविहारे असंयमपरिहरणार्थं ऋद्धिप्राप्तस्यापि प्रमत्तसंयतस्य श्रुतज्ञानावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशममांद्य सति यदा धर्म्यघ्यानविरोधी श्र तार्थसन्देहः स्यात्तदा तत्सन्देहविनाशार्थं च आहारकशरीरमुत्तिष्ठतीत्यर्थः ॥२३५।। जिसका लक्षण पहले कहा है, वह वैक्रियिक शरीर ही अन्तर्मुहूर्त मात्र अपर्याप्त काल तक शरीर पर्याप्तिको पूर्णता न होनेसे वैक्रियिककाययोगको उत्पन्न करने में असमर्थ होता है। तब तक औदारिककाय मिश्रकी तरह उसे वैक्रियिक काय मिश्र जानो। उस वैक्रियिक कायमिश्रके साथ जो संप्रयोग अर्थात् कर्म-नोकर्मको ग्रहण करनेकी शक्तिको प्राप्त अपर्याप्त कालमात्र आत्माके प्रदेशोंका चलनरूप योग वैक्रियिक मिश्रकाय योग है। अर्थात् अपर्याप्त३० योगका नाम मिश्रकाय योग है ।।२३४॥ आगे पाँच गाथाओंसे आहारककाययोगको कहते है प्रमत्तविरतके आहारक शरीर नामकर्मके उदयसे आहारवर्गणाके आये हुए पुद्गल स्कन्धोंको आहारक शरीररूप परिणमन करनेसे आहारक शरीर होता है। उसका प्रयोजन कहते हैं-अढ़ाई द्वीपके तीर्थोकी यात्रा आदिके लिए विहार करना हो, तो असंयमसे बचनेके ३५ लिए ऋद्धिप्राप्त प्रमत्त संयत मुनिके आहारक शरीर होता है। अथवा श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तरायके क्षयोपशमकी मन्दता होनेपर जब धर्मध्यानका विरोधी शाखके अर्थ में सन्देह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564