Book Title: Gommatasara Jiva kanda Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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यदींद्रस्यात्मनो लिंगं यदि वेंद्रेण कर्मणा । सृष्टं जुष्टं तथा दृष्टं दत्तं चेति तदिद्रियं ॥ [ मलविद्धमणिव्यक्तिर्य्य थानेकप्रकारतः । कर्म्मविद्धात्मविज्ञप्तिस्तथानेक प्रकारतः ॥ [
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मत्तमा इंद्रियंगळोळ तत्तदावरणक्षयोपशमविशिष्टात्मप्रदेश संस्थानमभ्यंतरनिर्वृत्तियक्कुं । तदवष्टव्धशरीरप्रदेश संस्थानं बाह्यनिर्वृत्तियक्कुं । इंद्रियपर्याप्त्या यात नोकवर्गणास्कंधरूपं १० स्पर्शाद्यर्थज्ञानसहकारि यत्तदभ्यंतरमुपकरणं तदाश्रयमप्प त्वगादिकं बाह्यमुपकरणमे दितु ज्ञातव्यमक्कुं ।
गो० जीवकाण्डे
अथवा स्वार्थ निरतानींद्रियाणि । अय्यंते परिच्छिद्यत इत्यर्थः । स्वस्मिन्नर्थे च निरतानोंद्रियाणि निरवद्यत्वान्नात्र वक्तव्यमस्ति । अथवा इंदनादाधिपत्यादिद्रियाणि स्पर्शरसगंधरूपशब्दज्ञानावरणकर्मणां क्षयोपशमाः द्रव्येंद्रियकारणानींद्रियाणीत्यर्थः ।
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निर्व्यापारावस्थायामनिन्द्रियव्यपदेशः स्यादिति चेन्न दत्तोत्तरत्वात् । अथवा 'स्वार्थनिरतानीन्द्रियाणि' अयंतेपरिच्छिद्यते इत्यर्थः स्वस्मिन्नर्थे च निरतानीन्द्रियाणि निरवद्यत्वान्नात्र वक्तव्यमस्ति । अथवा इन्दनादाधिपत्यात् इन्द्रियाणि स्पर्शरसगन्धरूपशब्दज्ञानावरणकर्मणां क्षयोपशमाः द्रव्येन्द्रियकारणानीन्द्रियाणीत्यर्थः । उक्तं चयदिन्द्रस्यात्मनो लिङ्गं यदि वा इन्द्रेण कर्मणा । सृष्टं जुष्टं तथा दृष्टं दत्तं चेति तदिन्द्रियम् ॥ - [ मलविद्धमणिव्यक्तिर्यथानेकप्रकारतः ।
कर्मविद्धात्मविज्ञप्तिस्तथानेकप्रकारतः ॥ [
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पुनस्तेष्विन्द्रियेषु तत्तदावरणक्षयोपशमविशिष्टात्मक प्रदेश संस्थानमभ्यन्तरनिर्वृत्तिः । तदवष्टब्धशरीर२० प्रदेशसंस्थानं बाह्यनिर्वृत्तिः । इन्द्रियपर्याप्त्यायातनोकर्मवगणास्कन्धरूपं स्पर्शाद्यर्थज्ञान सहकारि यत्तदभ्यन्तरमुपकरणम् । तदाश्रयभूतत्वगादिकं बाह्यमुपकरणमिति ज्ञातव्यम् ॥१६५॥
समाधान— नहीं, इसका उत्तर दे चुके हैं कि रूढ़िके बलसे वह इन्द्रिय ही है । अथवा 'स्वार्थनिरतानीन्द्रियाणि' | 'अर्थते' अर्थात् जो जाना जाये वह अर्थ है । अपने अर्थ में जो निरत हैं, वे इन्द्रियाँ हैं । निर्दोष होनेसे इसमें किसी तर्कके लिए स्थान नहीं है । अथवा २५ ' इन्दनात्' अर्थात् स्वामित्व के कारण इन्द्रियाँ हैं । स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द सम्बन्धी ज्ञानावरण कर्मोंके जो क्षयोपशम द्रव्येन्द्रियके कारण हैं, वे इन्द्रियाँ हैं; यह इसका अभिप्राय है । जो इन्द्र अर्थात् आत्माका लिंग (चिह्न) है, वह इन्द्रिय है । अथवा इन्द्र अर्थात् कर्मके द्वारा रची गयी है, सेवित है, दृष्ट अथवा दत्त है, वह इन्द्रिय है । जैसे मलसे लिपटी हुई मणिकी व्यक्ति अनेक प्रकारसे होती है, उसी तरह कर्मोंसे लिप्त आत्माकी व्यक्ति भी अनेक प्रकार से होती है अर्थात् ये इन्द्रियाँ कर्मविद्ध आत्माकी ही विविध प्रकारसे व्यक्तियाँ हैं ।
द्रव्येन्द्रियके दो भेद हैं-निर्वृत्ति और उपकरण । ये दोनों भी बाह्य और अभ्यन्तर के भेदसे दो प्रकारके हैं । अपने-अपने आवरणके क्षयोपशमसे विशिष्ट आत्मप्रदेशोंका इन्द्रिय के आकार रचना होना अभ्यन्तरनिर्वृत्ति है । और उन आत्मप्रदेशोंसे सम्बद्ध स्थानमें शरीर के प्रदेशोंको तदनुरूप रचना बाह्यनिर्वृत्ति है । इन्द्रिय पर्याप्त द्वारा आये नोकर्म वर्गणारूप स्कन्ध जो स्पर्श आदि अर्थ के ज्ञान में सहायक हैं, वह अभ्यन्तर उपकरण है । और उसके आश्रयभूत त्वचा वगैरह बाह्य उपकरण हैं || १६५ ।।
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