Book Title: Gommatasara Jiva kanda Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
View full book text
________________
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
३२५ खंधा असंखलोगा अंडरआवासपुलविदेहावि ।
हेडिल्लजोणिगाओ असंखलोगेण गुणिदकमा ॥१९४॥ स्कंधा असंख्यलोका अंडरावासपुळविदेहा अपि । अधस्तनयोनिका असंख्यलोकेन गुणितक्रमाः॥
बादरनिगोदजीवंगळ शरीरसंख्यानयनार्थमुदाहरणपूर्वकमागि गाथाद्वर्याददं पेळल्पडु- ५ गुम तने स्कंधाः प्रतिष्ठितप्रत्येकजीवंग शरीरंगळसंख्यातलोकंगळु स्वयोग्यासंख्यातगुणितलोकप्रदेशमात्रंगळे बुदर्थमल्लि लोकाकाशप्रदेशंगळु जगच्छेणिघनप्रमितंगळा लोकाकाशप्रदेशंगळोलनंतानंतपुद्गलपरमाणुगळवगाहपरिणामदंतयुमेकनिगोदजीवकार्मणशरीरदोळनंतानंतनिगोदजीवका - म॑णशरीरंगळवगाहदंतेयु मेणिल्लियुमो दोंदु स्कंधदोळसंख्यातलोकमात्रंगळंडरंगळु प्रत्येकजीवशरीरविशेषंगळप्पुवुवंतेयो दोदंडरंगळोळुमसंख्यातलोकमात्रावासंगळु अर्बु प्रत्येकशरीरभेदंगळप्पुवु। १० ओदो दावासंगळोळे संख्यातलोकमानंगळपुळु विगळवं प्रत्येकजीवशरीरविशेषंगळप्पुवु । ओदोदु पुळविगळोळमसंख्यातलोकमात्र गळु बादरनिगोदजीवशरीरंगळप्पुवितंडराद्युत्तरोत्तरंगळधस्तनाधस्तनस्कंधादियोनिकंगळप्पुदितिल्लि राशिकमं माडल्पडुगुमोदु स्कंधदोळत्तलानुमसंख्यातलोकमात्रांडरंगळप्पुवागळसंख्यातलोकमात्रस्कंचंगळगेनितंडरंगळप्पुर्वेदितु प्र स्कं १। फ अं। ।इ। स्कं = । लब्धांडरंगळसंख्यातलोकमात्रस्कंधंगळनसंख्यातलोकदिदं गुणिसिदनितप्पुवु १५
बादरनिगोदजीवशरीरसंख्यानयनार्थं उदाहरणपूर्वकमिदं गाथाद्वयमुच्यते । तद्यथा-स्कन्धाः प्रतिष्ठितप्रत्येकजीवशरीराणि, असंख्यातलोकाः स्वयोग्यासंख्यातगणितलोकप्रदेशमात्रा इत्यर्थः। तत्र एकैकस्मिन स्कन्धे लोकाकाशप्रदेशेषु जगच्छ्रेणिधनप्रमितेषु अनन्तानन्तपुद्गलानामबगाहपरिणामवत्, एकनिगोदजीवकार्मणशरीरे अनन्तानन्तनिगोदजीवकार्मणशरीराणामवगाहनवद्वा असंख्यातलोकमात्रा अण्डराः प्रत्येकजीवशरीरविशेषाः सन्ति । तथैव एकैकस्मिन्नण्डरे असंख्यातलोकमात्रा आवासास्तेऽपि प्रत्येकजीवशरीरभेदाः सन्ति । २० एकैकस्मिन्नावासे असंख्यातलोकमात्रा: पुलवयः तेऽपि प्रत्येकजीवशरीरविशेषाः एव । एकैकस्मिन् पुलवौ असंख्यातलोकमात्राणि बादरनिगोदजीवशरीराणि सन्ति । एवमण्डरादीनि उत्तरोत्तराण्यधस्तनस्कन्धादियोनिकानि तत्र जातानि भवन्ति । यद्यकैकस्मिन् स्कन्धे असंख्यातलोकमात्रा अण्डराः सन्ति तदा असंख्यात
बादर निगोद जीवोंके शरीरकी संख्या लानेके लिए उदाहरणपूर्वक दो गाथाओंसे यह कथन करते हैं। स्कन्ध अर्थात् प्रतिष्ठित प्रत्येक जीवके शरीर असंख्यातलोक हैं अर्थात् २५ अपने योग्य असंख्यातसे लोकके प्रदेशोंको गुणा करनेपर जो परिमाण हो, उतने हैं। तथा जैसे जगतश्रेणीके धन प्रमाण लोकाकाशके प्रदेशोंमें अनन्तानन्त पुद्गलोंका अवगाह होता है, या एक निगोद जीवके कार्मण शरीरमें अनन्तानन्त निगोद जीवोंके कार्मण शरीरोंका अवगाहन होता है, वैसे ही एक-एक स्कन्धमें असंख्यात लोक मात्र अण्डर रहते हैं। ये अण्डर प्रत्येक जीव शरीरके विशेष अवयवरूप होते हैं। उसी तरह एक-एक अण्डरमें असंख्यात ३० लोक मात्र आवास होते हैं। वे भी प्रत्येक जीवशरीरके भेद है। एक-एक आवासमें असंख्यात लोक मात्र पुलवियाँ हैं । वे भी प्रत्येक जीवशरीरके विशेष भेद हैं । एक-एक पुलविमें असंख्यात लोक मात्र बादरनिगोद जीवोंके शरीर होते हैं। इस प्रकार ये अण्डर आदि उत्तरोत्तर नीचेके स्कन्ध आदिकी योनि हैं। अर्थात् नीचे कहे भेदोंकी संख्याकी उत्पत्तिका
१. एवमण्डरादयः उत्तरोत्तरेऽधस्तनाधस्तनस्कन्धारियोगिकाः ब ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org