Book Title: Gommatasara Jiva kanda Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 390
________________ ३३२ गो० जीवकाण्डे उत्तरभवोत्पत्तिस्थानपय्यंतं जीवप्रदेशप्रसरणलक्षणः । उपपाददिदं परिणतमप्प मारणांतिक समुद्घातदिदं परिणतमप्प त्रसजीवमंज्जिसि च शब्ददिदं सूचिसल्पट्ट केवलिसमुद्घातपरिणतमप्प त्रसमं वज्जिसि शेषंगळप्प स्वस्थानादिपदपरिणतंगळप्प सर्वमुं त्रसजीवंगळु त्रसनालिबाह्यलोकक्षेत्रदोळिळे दितु जिनैनिद्दिष्टमर्हदादिर्गाळदं पेळल्पटुदु । अदु कारणमागि त्रसंगळ नळिगयंत ५ त्रसनाळिये देकरज्जुविष्कंभायतमुं चतुर्दशरज्जूत्सेधमुमप्प लोकमध्यस्थितमन्वर्थसंज्ञयिदं पेळल्पद्रुदु। ओंदानुमोर्व जीवनु त्रसनालिबाह्यमप्प वातवलयदोलिदु त्रसदोळ बद्धायुष्कनु प्राक्तनवायुकायिकभवमं पत्तुविटु मुंदण त्रसकायिकभवमं पोद्दि विग्रहगतिय प्रथमसमयदोळु सनाम कम्मोददिदं त्रसमागि वत्तिसुगुमें दितुपपाद परिणत त्रसक्क त्रसनालिबाह्यदोळस्तित्वं । ओदान१० मोर्व त्रसजीवं त्रसनाळिमध्यदोलिदु तनुवातवलयद वायुकायिकदोळ बद्धायुष्कं स्वायुरवसानांत र्मुहूर्त्तकालदोळ् तनुवातवलयपय्यंतं त्रसनालिबाह्यक्षेत्रदोळात्मप्रदेशप्रसर्पणलक्षणमारणांतिकसमुद्घातमं माकुमेंदितुमा त्रसक्के त्रसनालिबाह्यक्षेत्रदोळस्तित्वं केवलियं कवाटाद्याकादिदं कालः वर्तमानभवस्थितिचरमान्तर्मुहूर्तः । मरणान्ते भवः मारणान्तिकः समुद्धातः उत्तरभवोत्पत्तिस्थानपर्यन्तजीवप्रदेशप्रसपणलक्षणः। उपपादपरिणतं मारणान्तिकसमघातपरिणतं चशब्दात केवलिसमुद्घातमपरिणतं च असं उज्झित्वा-वजित्वा शेषाः स्वस्थानादिपदपरिणताः सर्वे त्रसजीवाः सनाडिवाह्य लोकक्षेत्र न सन्तीति जिनरहंदादिभिर्निर्दिष्टं-कथितम् । ततः कारणात् प्रसानां नालिरिव नालिस्त्रसनालिः । सा च एकरज्जुविष्कम्भायामा चतुर्दशरज्जूत्सेधा लोकमध्यस्थिता अन्वर्थसंज्ञया कथिता । कश्चिज्जीवः त्रसनालिबाह्ये वातवलये स्थितः त्रसे बद्धायुष्कः प्राक्तनं वायुकायिकभवं त्यक्त्वा उत्तरं त्रसकायं प्राप्य अग्रतनविग्रहगतिप्रथमसमये त्रसनामकर्मोदयेन त्रसो जातः इत्यपपादपरिणतवसस्य त्रसनालिबाह्येऽस्तित्वम् । कश्चित् त्रसजीवः सनालिमध्ये स्थितः तनुवातवलयस्य वायुकायिके बद्धायुष्कः स्वायुरवसानान्तर्मुहूर्तकाले तनुवातवलयपर्यन्तं वसनालिबाह्ये क्षेत्रे आत्मप्रदेशप्रसर्पणलक्षणमारणान्तिकसमुद्घातं करोतीति तस्य त्रसस्य त्रसनालिबाह्यक्षेत्रेऽप्यस्तित्वम् । स्थितिका अन्तिम मुहूर्त है। मरणान्तमें हुआ मारणान्तिक समुद्धात है। उत्तर भवकी उत्पत्ति स्थान पर्यन्त जीवके प्रदेशोंके विस्तारको मारणान्तिक समुद्धात कहते हैं। उपपादसे परिणत, मारणान्तिक समुद्धातसे परिणत और 'च' शब्दसे केवलि समुद्धातसे परिणत त्रसको छोड़कर २५ शेष स्वस्थान आदि पदरूपसे परिणत सब त्रसजीव त्रसनाड़ीसे बाहरके लोकक्षेत्रमें नहीं रहते ऐसा अर्हन्त आदिने कहा है। इसी कारणसे त्रसोंकी नालिके समान नालि त्रसनालि यह सार्थक नाम है। यह त्रसनालि लोकके मध्यमें स्थित है। एक राजू लम्बी, चौड़ी और चौदह राजू ऊँची है । कोई जीव त्रसनालिके बाहर वातवलयमें स्थित है, उसने त्रसकी आयु बाँधी है । अपने वर्तमान वायुकायिक भवको त्यागकर उत्तर त्रसकायको प्राप्त करके आगेकी ३. विग्रहगतिके प्रथम समयमें त्रसनामकर्मका उदय होनेसे त्रस हआ। इस प्रकार उपपाद परिणत त्रसका सनालिके बाहर अस्तित्व हुआ। कोई त्रसजीव त्रसनालिके मध्य में स्थित है। उसने तनुवातवलयके वायुकायिककी स्थितिका बन्ध किया। अपनी आयुके अन्तिम अन्तमुहूर्त कालमें तनुवातवलय पर्यन्त सनालीके बाहरके क्षेत्रमें आत्माके प्रदेशों के विस्तार रूप मारणान्तिक समुद्धातको करता है। उस त्रसका सनालिके बाह्य क्षेत्रमें भी अस्तित्व - १. व त्यक्त्वाग्रत । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |

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