Book Title: Gommatasara Jiva kanda Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
पशमादिदं विजू भिसल्पट्ट चेतनव्यापाररूपंगळु भावप्राणंगळु । इल्लि पर्याप्ति-प्राणंगळगे भेदमे ते बोर्ड पंचेंद्रियावरणक्षयोपशमजंगल पंचेंद्रियप्राणगळ तदुत्पन्नार्त्यग्रहणक्षमतयिवमुत्पन्न प्रथमसमयं मोदल्गो डंतर्मुहूर्त्तददं मेलप्पुददेद्रियपर्य्याप्तिये बुदु । मनोज्ञानावरणक्षयोपशमसन्तिधानददं विजृ भिसल्पट्ट मनोवर्गणेगळदं विरचिसल्पडुवद्रव्यमनदिदं समुत्पन्नजीवशक्तियदनुभूतात्थंग्रहणकारणमुत्पन्नांतर्मुहूर्त्तावसाननिष्पन्नमप्पु ददुमनः पर्याप्त बुदु ।
अनुभूतार्त्यग्रहणमुं तद्योग्यतेयुं मनःप्राण में बुदु । नोकर्म्मशरीरोपचयमानशक्तिनिष्पत्तियदु जीवक्के समुचितकालायात भाषा वर्गेणाविशेष परिणतिविधायि भाषापर्य्याप्तिये बुदु । स्वरनाम - कम्र्मोदयसहकारिणियप्प भाषापर्य्याप्तियोत्तरकालविशिष्टोपयोग प्रयोजनात्मकं वाक्प्राणaणावष्टंभजनितात्मप्रदेशप्रचयशक्तिकायबलप्राणमें बुदक्कुं । नोकर्म्मपुद्गलंगळनु परिणामिसिल्क शक्ति- १०
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खल रस भागपरिणतंगळनस्थ्यादिरुधिरादिस्थिरास्थिरावयवरूपददं froपत्ति जीवके शरीरपर्य्याप्तिये बुदक्कु । मुच्छ्वासनिःश्वासनिःसरणशक्तिनिष्पत्तियानापानपर्य्याप्ति एंबुदक्कुं तत्परिणतिये तत्प्राणमें बुक्क्कु मदु कारणमागि भेदमुं ।
अनंतरं प्राणविकल्पंगळं पेव्दपं :
अन्तर्मुहूर्तस्योपरि जायमाना इन्द्रियपर्याप्तिः । मनोज्ञानावरणक्षयोपशमसन्निधानविजृम्भितामनोवर्गणाविरचित- १५ द्रव्यमनः समुत्पन्ना जीवशक्तिः सानुभूतार्थग्रहणसमुत्पन्नान्तर्मुहूर्त्ताविसाननिष्पन्ना मनः पर्याप्तिः । अनुभूतार्थग्रहणं तद्योग्यता च मनः प्राणः । नोकर्मशरीरोपचीयमानशक्तिनिष्पत्ति: सा जीवस्य समुचितकालाया - भाषावर्गणाविशेषपरिणतिविधायिभाषापर्याप्तिः । स्वरनामकर्मोदयसहकारिभाषापर्याप्त्युत्तरकालविशिष्टोपयोगप्रयोजनात्मको वाक्प्राणः । कायवर्गणावष्टम्भजनितात्मप्रदेशप्रच यशक्तिः कायबलप्राणः । नोकर्मपुद्गलान् खलरसभागपरिणतान् अस्थ्यादिरुधिरादिस्थिरास्थिरावयवरूपेण परिणमयितुं शक्तिनिष्पत्तिर्जीवस्य शरीर - २० पर्याप्तिः । उच्छ्वासनिःश्वासनिःसरणशक्ति निष्पत्तिरानपानपर्याप्तिः । तत्परिणतिरेव तत्प्राणा:, इति भेदो ज्ञातव्यः ॥ १२९ ॥ अथ प्राणभेदानाह-
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होनेके प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त के ऊपर होनेवाली इन्द्रियपर्याप्ति है । मनोज्ञानावरणके क्षयोपशमके सामीप्यसे प्रकट हुई और मनोवर्गणासे बने द्रव्यमनसे उत्पन्न हुई जीवकी जो शक्ति अनुभूत अर्थका ग्रहण करनेके लिए उत्पन्न हो अन्तर्मुहूर्त कालके अन्त में पूर्ण होती है वह २५ मनःपर्याप्त है | और अनुभूत अर्थको ग्रहण करना तथा उसकी योग्यता मनःप्राण है । नोकर्म शरीरसे संचित शक्तिकी पूर्णता जो जीवके समुचित कालमें आयी भाषावर्गणाके विशेष परिणमनको करनेवाली है वह भाषापर्याप्ति है । स्वरनामकर्मका उदय जिसका सहायक है उस भाषापर्याप्ति के उत्तरकालमें विशिष्ट उपयोगका प्रयोजक वचन प्राण है । कायवर्गणा के साहाय्यसे होनेवाली आत्मप्रदेशके समूहकी शक्ति कायबलप्राण है । और खल तथा रसभाग ३० रूपसे परिणत नोक्कर्म पुद्गलोंको अस्थि आदि स्थिर और रुधिर आदि अस्थिर अवयवोंके रूपसे परिणमन करने की शक्तिको पूर्णताको शरीरपर्याप्ति कहते हैं । उच्छ्वास- निःश्वासके निकलने की शक्तिकी पूर्णताको श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति कहते हैं और श्वासोच्छ्वासका परिणमन श्वासोच्छ्वास प्राण है । यह पर्याप्ति और प्राण में भेद जानना ॥ १२९ ॥
आगे प्राणोंके भेद कहते हैं
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