Book Title: Gommatasara Jiva kanda Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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गो० जीवकाण्डे अनंतरमार्गणाशब्दक्के निरुक्तिसिद्धमप्प लक्षणमं पेळल्वैडि मुंदणगाथासूत्रमं पेळ्वपं ।
जाहि व जासु व जीवा मग्गिज्जते जहा तहा दिट्ठा ।
ताओ चोद्दस जाणे सुयणाणे मग्गणा होति ॥१४१।।
याभिर्यासु वा जीवा मार्यते यथा तथा दृष्टास्ताश्चतुर्दश जानीहि श्रुतज्ञाने मार्गणा ५ भवंति।
आवुवु केलवरिंदमावुवु केलवरोळु मेणावप्रकादिदं श्रुतज्ञानदोळु काणल्पटुवा प्रकारदिदमरसल्पडुववु चतुर्दशमार्गणेगळप्पुवु।
परंग सामान्यदिदं गुणस्थानजीवसमासपर्याप्तिप्राण संजगळे दि वरिद त्रिलोकोदरत्तिगळप्प जीवंगळं लक्षदिदं भैदिदम विचारिसि मत्तीगळ् विशेषरूपदिदं गत्यादिमागणेळिदमा १० जीवंगळ विचारिसल्पडुत्तिईपमेंदरियेंदु शिष्यसंबोधनं प्रयुक्तमादुदु।
गत्यादिमार्गणेगळावागळोर्मे जीवक्के नारकत्वादिपर्यायस्वरूपंगळु विवक्षितंगळप्पुवागळु याभिः एंदितु इत्थंभूतलक्षणदोळु तृतीयाविभक्तियक्कुमागळोम्में द्रव्यमं कूर्तु पर्यायंगळगधिकरणते विवक्षिसल्पडुगुमागळु यासु एंदितधिकरणदोळ सप्तमीविभक्तियक्कुमेकेदोडे 'विवक्षावशात्कारक
प्रवृत्तिः' एंदितो न्यायमुटप्पुरि। १५ अथ मार्गणाशब्दस्य निरुक्तिसिद्धलक्षणमाह
याभिः यासु वा जीवाः यथा श्रुतज्ञानेन दृष्टाः तथा मृग्यन्ते विचार्यन्ते ज्ञायन्ते ताश्चतुर्दश मार्गणा भवन्ति । पूर्व सामान्येन गुणस्थानजीवसमासपर्याप्तिप्राणसंज्ञाभिः एताभिः त्रिलोकोदरवर्तिनो जीवाः लक्षणेन भेदेन च विचारिताः। पुनरिदानी विशेषरूपगत्यादिमार्गणाभिः तानेव विचार्यमाणान् जीवान् जानीहि इति शिष्यसंबोधने प्रयुक्तम् । गत्यादिमार्गणा यदा एकजीवस्य नारकत्वादिपर्यायस्वरूपा विवक्षिताः तदा 'याभिः' इतीत्थंभूतलक्षणे तृतीया विभक्तिः । यदा पुनः एकद्रव्यं प्रति पर्यायाणामधिकरणता विवक्ष्यते तदा 'यासु' इत्यधिकरणे
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जिनके द्वारा या जिनमें जीव, जैसे अतज्ञानके द्वारा देखे गये हैं,उसी रूपमें विचारे जाते हैं, जाने जाते हैं,वे चौदह मार्गणाएँ होती हैं। पहले सामान्यसे गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण और संज्ञाके द्वारा तीनों लोकोंमें रहनेवाले जीवोंका लक्षण और भेदके साथ
विचार किया । अब विशेषरूप गति आदि मार्गणाओंके द्वारा उन्हीं विचारने योग्य जीवोंको २५ हे शिष्य, तू जान । इस प्रकार सम्बोधनमें प्रयोग किया है। जब गति आदि मार्गणा एक
जीवके नारक आदि पर्यायरूपसे विवक्षित हों,तब 'जिनके द्वारा जीव जाने जायें इस प्रकार तृतीया विभक्ति कहना। और जब एक द्रव्यके प्रति पर्यायोंके अधिकरणकी विवक्षा हो, तब 'जिनमें जीव पाये जायें, इस प्रकार अधिकरणमें सप्तमी विभक्ति कहना ; क्योंकि 'विवक्षाके वश कारकोंकी प्रवृत्ति होती है, यह न्याय वर्तमान है ॥१४१॥
विशेषार्थ-गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण और संज्ञाके द्वारा संक्षेप रूपसे विचारित जीवोंका विस्तारसे गति,इन्द्रिय आदि पाँच भावविशेषोंके द्वारा विचार करना युक्त है,ऐसा अर्थ करनेपर 'याभिः' तृतीया विभक्तिका निर्देश है। और गति, इन्द्रिय आदि पाँच भावरूप पर्यायोंमें जीवद्रव्य रहते हैं। इस प्रकार आधारकी विवक्षा होनेपर 'यासु' सप्तमीनिर्देश युक्त है । जिसके द्वारा श्रुतका ज्ञान हो,उसे श्रुतज्ञान कहते हैं । वर्णपदवाक्यरूप
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