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[ ४ ] की तरह तिरोभावमें थे. मरीचिने भी " नयसार ग्रामचिंतक ” की अवस्थामें उस मंदार तरुके वीज तो बीजे ही हुए थे; सिर्फ आगेका क्रिया संदर्भ ही अवशिष्ट था, उसको भी " नंदनकुमार " के भवमें विशुद्धात्मवीर्यसे आचरणागोचर कर वह ही भी " वीर " के भवमें श्री ऋषभदेव के समान हो गये । जैनदर्शन में "ईश्वर" पदके अधिकारी जो लोकोत्तर सामर्थ्यशाली - उत्तमोत्तम जीवात्मा होते हैं उनको “ सामान्य केवली " " और तीर्थकर " इन दो नामसें उच्चारा जाता है. सामा न्य केवली हरएक जाति में हर एक कुलमें- नर नारी आदि हर एक लिंगमें केवलज्ञान केवलदर्शनकी संपत् प्राप्त कर सक्ते हैं । तीर्थकर - देव फक्त राजवंशी क्षत्रीयकुलोत्पन्न ही और वह भी पुरुषोतम ही होते हैं । पूर्वभवोपार्जित पुण्ययोग से माताको चतुर्दश स्वप्न से अपने भावि महोदयकी सूचना दिलाते हुए जात मात्रही देवदेवेन्द्रो के पूजनीय, वंदनीय, अर्चानमस्या के पात्र होते है ||
उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के छ छ आशंका
Aho! Shrutgyanam
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