Book Title: Girnar Galp
Author(s): Lalitvijay
Publisher: Hansvijay Free Jain Library

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Page 153
________________ [१२७ ] कर जिनशासनका आलोक करते हुए तप संयमसे पूर्वकी तरह अपने शेष जीवनको सार्थक और स. फल रूपसे व्यतीत करने लगे। । ओम् शान्तिः ।। ॥गिरनार मंडन श्री नेमिनाथ चैत्यवंदन ॥ तोटक छंद. जयवंत महंत निरंजन छो, भवना दुख दोहग भंजन छो॥ भविनेत्र विकासन अंजन छो, प्रभु काम विकार रिगंजन छो. ॥१॥ जगनाथ अनाथ सनाथ करोः मम पाप अमाप समूल हरो ॥ अरजी उर नेमि जिणंद धरो, तुम सेवक छ प्रभु ना वि. सरो. ॥२॥ सुर अचिंत वांछित दायक छो, सर संघ तणा प्रभु नायक छो । गिरनार । तणा गुण गायक छो; कलहंस तणी गति लायक छो. ॥१॥ ॥श्री गिरनार मंडण नेमिनाथ स्तवन. ॥ पुनम चांदनी आजेखोली रहीरे ॥ ए चाल । नमीये नेहथी आने नैमिनाथरे, सजन समनो Aho! Shrutgyanam

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