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“અહો ! શ્રુતજ્ઞાન” ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર ૧૬૨
ગીરનાર ગલ્પ
: દ્રવ્ય સહાયક :
શાસન સમ્રાટ પૂ. આ. શ્રી નેમીસૂરીશ્વરજી મ.સા. સમુદાયના પૂજ્ય સાધ્વી શ્રી દક્ષયશાશ્રીજી મ.સા.ની પ્રેરણાથી શા. ગજીબેન પોપટલાલ મગનલાલ શ્રાવિકા ઉપાશ્રયની જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી
: સંયોજક :
શાહ બાબુલાલ સરેમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર
શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન
સંવત ૨૦૬૯
હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી,
(મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543
ઈ. ૨૦૧૩
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अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६५ (ई. 2009) सेट नं.-१
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। પુસ્તકનું નામ
ક્રમાંક
પૃષ્ઠ
કર્તા-ટીકાકાર-સંપાદક पू. विक्रमसूरिजी म.सा.
पू. जिनदासगणि चूर्णीकार
पू. मेघविजयजी गणि म. सा.
001
002
003
004
005
006
007
008
009
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011
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013
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015
016
017
श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद - 05.
018
019
020
021
022
023
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025
026
027
028
029
श्री नंदीसूत्र अवचूरी
श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी
श्री अर्हद्गीता भगवद्गीता
श्री अर्हच्चूडामणि सारसटीकः
श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं
श्री मानतुङ्गशास्त्रम्
अपराजितपृच्छा
शिल्प स्मृति वास्तु विद्यायाम्
शिल्परत्नम् भाग - १
शिल्परत्नम् भाग - २
प्रासादतिलक
काश्यशिल्पम्
प्रासादमञ्जरी
राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र
शिल्पदीपक
वास्तुसार
दीपार्णव उत्तरार्ध
જિનપ્રાસાદ માર્તણ્ડ
जैन ग्रंथावली
હીરકલશ જૈન જ્યોતિષ
| न्यायप्रवेशः भाग-१
दीपार्णव पूर्वार्ध
| अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग - १
| अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-२
प्राकृत व्याकरण भाषांतर सह तत्त्पोपप्लवसिंहः
शक्तिवादादर्शः
क्षीरार्णव
वेधवास्तु प्रभाकर
पू. भद्रबाहुस्वामी म.सा.
पू. पद्मसागरजी गणि म.सा.
पू. मानतुंगविजयजी म.सा.
श्री बी. भट्टाचार्य
| श्री नंदलाल चुनिलाल सोमपुरा
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री विनायक गणेश आपटे
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री नारायण भारती गोंसाई
श्री गंगाधरजी प्रणीत
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલ સોમપુરા
श्री जैन श्वेताम्बर कोन्फ्रन्स
શ્રી હિમ્મતરામ મહાશંકર જાની
श्री आनंदशंकर बी. ध्रुव
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
पू. मुनिचंद्रसूरिजी म. सा.
श्री एच. आर. कापडीआ
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
श्री जयराशी भट्ट, बी. भट्टाचार्य
श्री सुदर्शनाचार्य शास्त्री
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
238
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84
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30 | શિન્જરત્નાકર
प्रासाद मंडन श्री सिद्धहेम बृहदवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-१ | श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-२ श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-३
श्री नर्मदाशंकर शास्त्री | पं. भगवानदास जैन पू. लावण्यसूरिजी म.सा. પૂ. ભાવસૂરિની મ.સા.
520
034
().
પૂ. ભાવસૂરિ મ.સા.
श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-3 (२)
324
302
196
039.
190
040 | તિલક
202
480
228
60
044
218
036. | श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-५ 037 વાસ્તુનિઘંટુ 038
| તિલકમન્નરી ભાગ-૧ તિલકમગ્નરી ભાગ-૨ તિલકમઝરી ભાગ-૩ સખસન્ધાન મહાકાવ્યમ્ સપ્તભફીમિમાંસા ન્યાયાવતાર વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વલોક
સામાન્ય નિર્યુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક 046 સપ્તભીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ
વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા નયોપદેશ ભાગ-૧ તરષિણીકરણી નયોપદેશ ભાગ-૨ તરકિણીતરણી ન્યાયસમુચ્ચય ચાદ્યાર્થપ્રકાશઃ
દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ 053 બૃહદ્ ધારણા યંત્ર 05 | જ્યોતિર્મહોદય
પૂ. ભાવસૂરિની મ.સા. પૂ. ભાવસૂરિન મ.સા. પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) પૂ. લાવણ્યસૂરિજી. શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. દર્શનવિજયજી પૂ. દર્શનવિજયજી સ. પૂ. અક્ષયવિજયજી
045
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(04)
210
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શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર
સંયોજક – બાબુલાલ સરેમલ શાહ
શાહ વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન हीरान सोसायटी, रामनगर, साबरमती, महावाह - 04.
(मो.) ९४२५५८५८०४ (ख) २२१३२५४३ ( - भेल) ahoshrut.bs@gmail.com
अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ भर्णोद्धार संवत २०५५ (६. २०१०) - सेट नं-२
પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને ડી.વી.ડી. બનાવી તેની યાદી. खा पुस्तो www.ahoshrut.org वेवसाइट परथी पए। डाउनलोड sरी शडाशे. પુસ્તકનું નામ
ईर्त्ता टीडाडार-संचा
ક્રમ
055 | श्री सिद्धम बृहद्वृत्ति बृहद्न्यास अध्याय-६ 056 | विविध तीर्थ कल्प
057
ભારતીય જૈન શ્રમણ સંસ્કૃતિ અને લેખનકળા | 058 सिद्धान्तलक्षगूढार्थ तत्त्वलोकः
059 व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका
જૈન સંગીત રાગમાળા
060
061 चतुर्विंशतीप्रबन्ध ( प्रबंध कोश)
062 | व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय
063 | चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी
064 | विवेक विलास
065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध
066 | सन्मतितत्त्वसोपानम्
ઉપદેશમાલા દોઘટ્ટી ટીકા ગુર્જરાનુવાદ
067
068 मोहराजापराजयम्
069 | क्रियाकोश
-
070 कालिकाचार्यकथासंग्रह
071 सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका
072 | जन्मसमुद्रजातक
073 मेघमहोदय वर्षप्रबोध
074
જૈન સામુદ્રિકનાં પાંચ ગ્રંથો
ભાષા
सं
.:
सं
सं
सं
गु.
सं
श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी
श्री रसिकलाल एच. कापडीआ
श्री सुदर्शनाचार्य
पू. मेघविजयजी गणि
सं/गु. श्री दामोदर गोविंदाचार्य
सं
F
सं
सं
सं
पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
पू. जिनविजयजी म.सा.
शुभ.
सं
सं/ हिं
सं.
सं.
सं/हिं
सं/हिं
शुभ.
पू. पूण्यविजयजी म.सा.
| श्री धर्म
श्री धर्मदत्त
पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा.
पू. लब्धिसूरिजी म.सा.
पू. हेमसागरसूरिजी म.सा.
पू. चतुरविजयजी म.सा.
श्री मोहनलाल बांठिया
श्री अंबालाल प्रेमचंद
श्री वामाचरण भट्टाचार्य
श्री भगवानदास जैन
श्री भगवानदास जैन
श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी
પૃષ્ઠ
296
160
164
202
48
306
322
668
516
268
456
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638
192
428
406
308
128
532
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'075
374
238
194
192
254
260
| જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૧ 16 | જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૨ 77) સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી 13 ભારતનાં જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પ સ્થાપત્ય 79 | શિલ્પ ચિન્તામણિ ભાગ-૧ 080 | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૧ 081 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૨
| બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૩ 083. આયુર્વેદના અનુભૂત પ્રયોગો ભાગ-૧
કલ્યાણ કારક 085 | વિનોરન શોર
કથા રત્ન કોશ ભાગ-1
કથા રત્ન કોશ ભાગ-2 088 | હસ્તસગ્નીવનમ
238 260
ગુજ. | | श्री साराभाई नवाब ગુજ. | શ્રી સYTમારું નવાવ ગુજ. | શ્રી વિદ્યા સરમા નવીન ગુજ. | શ્રી સારામારું નવીન ગુજ. | શ્રી મનસુબાન મુવામન ગુજ. | શ્રી નન્નાથ મંવારમ ગુજ. | શ્રી નન્નાથ મંવારમ ગુજ. | શ્રી ગગન્નાથ મંવારમ ગુજ. | . વન્તિસાગરની ગુજ. | શ્રી વર્ધમાન પર્વનાથ શત્રી सं./हिं श्री नंदलाल शर्मा ગુજ. | શ્રી લેવલાસ ગીવરાન કોશી ગુજ. | શ્રી લેવલાસ નવરીન લોશી સ. પૂ. મેનિયની સં. પૂ.વિનયની, પૂ.
पुण्यविजयजी आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी
114
'084.
910
436 336
087
2૩૦
322
(089/
114
એન્દ્રચતુર્વિશતિકા સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05.
अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार- संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। पुस्तक नाम संपादक / प्रकाशक मोतीलाल लाघाजी पुना
क्रम
कर्त्ता / टीकाकार
91 स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१
वादिदेवसूरिजी
92 स्याद्वाद रत्नाकर भाग-२
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना
93
मोतीलाल लाघाजी पुना
स्याद्वाद रत्नाकर भाग-३
वादिदेवसूरिजी
94
मोतीलाल लाघाजी पुना
स्याद्वाद रत्नाकर भाग-४
वादिदेवसूरिजी
95 स्याद्वाद रत्नाकर भाग-५
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना
96 | पवित्र कल्पसूत्र
पुण्यविजयजी
साराभाई नवाब
टी. गणपति शास्त्री
टी. गणपति शास्त्री
वेंकटेश प्रेस
97 समराङ्गण सूत्रधार भाग - १
98 | समराङ्गण सूत्रधार भाग - २
99 भुवनदीपक
100 गाथासहस्त्री
101 भारतीय प्राचीन लिपीमाला
102 शब्दरत्नाकर
103 सुबोधवाणी प्रकाश
104 लघु प्रबंध संग्रह
105 जैन स्तोत्र संचय - १-२-३
106 सन्मति तर्क प्रकरण भाग १,२,३
107 सन्मति तर्क प्रकरण भाग-४, ५
108 न्यायसार न्यायतात्पर्यदीपिका
109 जैन लेख संग्रह भाग - १
110 जैन लेख संग्रह भाग-२
111 जैन लेख संग्रह भाग-३
112 | जैन धातु प्रतिमा लेख भाग - १
113 जैन प्रतिमा लेख संग्रह
114 राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह
115 | प्राचिन लेख संग्रह - १ 116
बीकानेर जैन लेख संग्रह
117 प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग - १
118 प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग - २
119 गुजरातना ऐतिहासिक लेखो - १
120 गुजरातना ऐतिहासिक लेखो २ 121 गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-३
122 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल - १ 123 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-४ 124 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-५ 125 | कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत इन्स्क्रीप्शन्स 126 | विजयदेव माहात्म्यम्
भोजदेव
भोजदेव
पद्मप्रभसूरिजी
समयसुंदरजी
गौरीशंकर ओझा
साधुसुन्दरजी
न्यायविजयजी
जयंत पी. ठाकर
माणिक्यसागरसूरिजी
सिद्धसेन दिवाकर
सिद्धसेन दिवाकर सतिषचंद्र विद्याभूषण
पुरणचंद्र नाहर
पुरणचंद्र नाहर
पुरणचंद्र नाहर
कांतिविजयजी
दौलतसिंह लोढा
विशालविजयजी
विजयधर्मसूरिजी
अगरचंद नाहटा
जिनविजयजी
जिनविजयजी
गिरजाशंकर शास्त्री
गिरजाशंकर शास्त्री
गिरजाशंकर शास्त्री
पी. पीटरसन
पी. पीटरसन
पी. पीटरसन
पी. पीटरसन जिनविजयजी
भाषा
सं.
सं.
सं.
सं.
सं.
सं./अं
सं.
सं.
सं.
सं.
हिन्दी
सं.
सं./गु
सं.
सं,
सं.
सं. सं.
सं./हि पुरणचंद्र नाहर
सं./हि
पुरणचंद्र नाहर
सं./हि
पुरणचंद्र नाहर
सं./ हि
जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार
सं./हि
अरविन्द धामणिया
सं./गु
सं./गु
सं./हि
सं./हि
सं./हि
सं./गु
सं./गु
सं./गु
अं.
सुखलालजी
मुन्शीराम मनोहरराम
हरगोविन्ददास बेचरदास
हेमचंद्राचार्य जैन सभा
ओरीएन्ट इन्स्टीट्युट वरोडा
आगमोद्धारक सभा
अं.
अं.
अं.
सं.
सुखलाल संघवी
सुखलाल संघवी
एसियाटीक सोसायटी
यशोविजयजी ग्रंथमाळा
यशोविजयजी ग्रंथमाळा
नाहटा धर्स
जैन आत्मानंद सभा
जैन आत्मानंद सभा
फार्बस गुजराती सभा
फार्बस गुजराती सभा
फार्बस गुजराती सभा
रॉयल एशियाटीक जर्नल
रॉयल एशियाटीक जर्नल
रॉयल एशियाटीक जर्नल
भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपा.
जैन सत्य संशोधक
पृष्ठ
272
240
254
282
118
466
342
362
134
70
316
224
612
307
250
514
454
354
337
354
372
142
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364
218
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764
404
404
540
274
414
400
320
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
754
194
3101
276
69 100 136 266
244
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६८ (ई. 2012) सेट नं.-४ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम | पुस्तक नाम
कर्ता / संपादक
भाषा | प्रकाशक 127 | महाप्रभाविक नवस्मरण
साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 128 | जैन चित्र कल्पलता
साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 129 | जैन धर्मनो प्राचीन इतिहास भाग-२
हीरालाल हंसराज गुज. हीरालाल हंसराज 130 | ओपरेशन इन सर्च ओफ सं. मेन्यु. भाग-६
पी. पीटरसन
अंग्रेजी | एशियाटीक सोसायटी 131 | जैन गणित विचार
कुंवरजी आणंदजी गुज. जैन धर्म प्रसारक सभा 132 | दैवज्ञ कामधेनु (प्राचिन ज्योतिष ग्रंथ)
शील खंड
सं. | ब्रज. बी. दास बनारस 133 || | करण प्रकाशः
ब्रह्मदेव
सं./अं. | सुधाकर द्विवेदि 134 | न्यायविशारद महो. यशोविजयजी स्वहस्तलिखित कृति संग्रह | यशोदेवसूरिजी गुज. | यशोभारती प्रकाशन 135 | भौगोलिक कोश-१
डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात बर्नाक्युलर सोसायटी 136 | भौगोलिक कोश-२
डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी 137 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-१,२
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 138 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी । जैन साहित्य संशोधक पुना 139 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-१, २
जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 140 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 141 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-१,२ ।।
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 142 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 143 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-१
सोमविजयजी
गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 144 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-२
सोमविजयजी
| शाह बाबुलाल सवचंद 145 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-३
सोमविजयजी
गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 146 | भाषवति
शतानंद मारछता सं./हि | एच.बी. गुप्ता एन्ड सन्स बनारस 147 | जैन सिद्धांत कौमुदी (अर्धमागधी व्याकरण)
रत्नचंद्र स्वामी
प्रा./सं. | भैरोदान सेठीया 148 | मंत्रराज गुणकल्प महोदधि
जयदयाल शर्मा हिन्दी | जयदयाल शर्मा 149 | फक्कीका रत्नमंजूषा-१, २
कनकलाल ठाकूर सं. हरिकृष्ण निबंध 150 | अनुभूत सिद्ध विशायंत्र (छ कल्प संग्रह)
मेघविजयजी
सं./गुज | महावीर ग्रंथमाळा 151 | सारावलि
कल्याण वर्धन
सं. पांडुरंग जीवाजी 152 | ज्योतिष सिद्धांत संग्रह
विश्वेश्वरप्रसाद द्विवेदी सं. बीजभूषणदास बनारस 153| ज्ञान प्रदीपिका तथा सामुद्रिक शास्त्रम्
रामव्यास पान्डेय सं. | जैन सिद्धांत भवन नूतन संकलन | आ. चंद्रसागरसूरिजी ज्ञानभंडार - उज्जैन
हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार २ | श्री गुजराती श्वे.मू. जैन संघ-हस्तप्रत भंडार - कलकत्ता | हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
274 168
282
182
गुज.
384 376 387 174
320 286
272
142 260
232
160
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
| पृष्ठ
304
122
208 70
310
462
512
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६९ (ई. 2013) सेट नं.-५ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | क्रम | पुस्तक नाम
कर्ता/संपादक विषय | भाषा
संपादक/प्रकाशक 154 | उणादि सूत्रो ओफ हेमचंद्राचार्य | पू. हेमचंद्राचार्य | व्याकरण | संस्कृत
जोहन क्रिष्टे 155 | उणादि गण विवृत्ति | पू. हेमचंद्राचार्य
व्याकरण संस्कृत
पू. मनोहरविजयजी 156 | प्राकृत प्रकाश-सटीक
भामाह व्याकरण प्राकृत
जय कृष्णदास गुप्ता 157 | द्रव्य परिक्षा और धातु उत्पत्ति | ठक्कर फेरू
धातु संस्कृत /हिन्दी | भंवरलाल नाहटा 158 | आरम्भसिध्धि - सटीक पू. उदयप्रभदेवसूरिजी ज्योतीष संस्कृत | पू. जितेन्द्रविजयजी 159 | खंडहरो का वैभव | पू. कान्तीसागरजी शील्प | हिन्दी | भारतीय ज्ञानपीठ 160 | बालभारत पू. अमरचंद्रसूरिजी | काव्य संस्कृत
पं. शीवदत्त 161 | गिरनार माहात्म्य
दौलतचंद परषोत्तमदास तीर्थ संस्कृत /गुजराती | जैन पत्र 162 | गिरनार गल्प
पू. ललितविजयजी | तीर्थ संस्कृत/गुजराती | हंसकविजय फ्री लायब्रेरी 163 | प्रश्नोत्तर सार्ध शतक पू. क्षमाकल्याणविजयजी | प्रकरण हिन्दी
| साध्वीजी विचक्षणाश्रीजी 164 | भारतिय संपादन शास्त्र | मूलराज जैन
साहित्य हिन्दी
जैन विद्याभवन, लाहोर 165 | विभक्त्यर्थ निर्णय गिरिधर झा
संस्कृत
चौखम्बा प्रकाशन 166 | व्योम बती-१
शिवाचार्य
न्याय
संस्कृत संपूर्णानंद संस्कृत युनिवर्सिटी 167 | व्योम वती-२
शिवाचार्य न्याय
संपूर्णानंद संस्कृत विद्यालय | 168 | जैन न्यायखंड खाद्यम् | उपा. यशोविजयजी न्याय संस्कृत /हिन्दी | बद्रीनाथ शुक्ल 169 | हरितकाव्यादि निघंटू | भाव मिथ
आयुर्वेद संस्कृत /हिन्दी | शीव शर्मा 170 | योग चिंतामणि-सटीक पू. हर्षकीर्तिसूरिजी
| संस्कृत/हिन्दी
| लक्ष्मी वेंकटेश प्रेस 171 | वसंतराज शकुनम् पू. भानुचन्द्र गणि टीका | ज्योतिष
खेमराज कृष्णदास 172 | महाविद्या विडंबना
पू. भुवनसुन्दरसूरि टीका | ज्योतिष | संस्कृत सेन्ट्रल लायब्रेरी 173 | ज्योतिर्निबन्ध ।
शिवराज
| ज्योतिष | संस्कृत
आनंद आश्रम 174 | मेघमाला विचार
पू. विजयप्रभसूरिजी ज्योतिष संस्कृत/गुजराती | मेघजी हीरजी 175 | मुहूर्त चिंतामणि-सटीक रामकृत प्रमिताक्षय टीका | ज्योतिष | संस्कृत अनूप मिश्र 176 | मानसोल्लास सटीक-१ भुलाकमल्ल सोमेश्वर ज्योतिष
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 177 | मानसोल्लास सटीक-२ भुलाकमल्ल सोमेश्वर | ज्योतिष संस्कृत
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 178 | ज्योतिष सार प्राकृत
भगवानदास जैन
ज्योतिष
प्राकृत/हिन्दी | भगवानदास जैन 179 | मुहूर्त संग्रह
अंबालाल शर्मा
ज्योतिष
| गुजराती | शास्त्री जगन्नाथ परशुराम द्विवेदी 180 | हिन्दु एस्ट्रोलोजी
पिताम्बरदास त्रीभोवनदास | ज्योतिष गुजराती पिताम्बरदास टी. महेता
264 144 256 75 488 | 226 365
न्याय
संस्कृत
190
480 352 596 250 391
114
238 166
संस्कृत
368
88
356
168
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क्रम
181
182
श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com शाह विमलाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005.
अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार संवत २०७१ (ई. 2015) सेट नं.-६
192
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं।
विषय
पुस्तक नाम
काव्यप्रकाश भाग-१
काव्यप्रकाश भाग-२
काव्यप्रकाश उल्लास-२ अने ३
183
184 नृत्यरत्न कोश भाग-१
185 नृत्यरत्न कोश भाग- २
186 नृत्याध्याय
187 संगीरत्नाकर भाग १ सटीक
188 संगीरत्नाकर भाग २ सटीक
189 संगीरत्नाकर भाग-३ सटीक
190 संगीरत्नाकर भाग-४ सटीक 191 संगीत मकरन्द
संगीत नृत्य अने नाट्य संबंधी जैन ग्रंथो
193 न्यायविंदु सटीक
194 शीघ्रबोध भाग-१ थी ५
195 शीघ्रबोध भाग-६ थी १०
196 शीघ्रबोध भाग- ११ थी १५ 197 शीघ्रबोध भाग - १६ थी २० 198 शीघ्रबोध भाग- २१ थी २५ 199 अध्यात्मसार सटीक
200 | छन्दोनुशासन
201 मग्गानुसारिया
कर्त्ता / टिकाकार पूज्य मम्मटाचार्य कृत
पूज्य मम्मटाचार्य कृत
उपा. यशोविजयजी
श्री कुम्भकर्ण नृपति
श्री
नृपति
श्री अशोकमलजी
श्री सारंगदेव
श्री सारंगदेव
श्री सारंगदेव
श्री सारंगदेव
नारद
-
-
-
श्री हीरालाल कापडीया
पूज्य धर्मोतराचार्य
पूज्य ज्ञानसुन्दरजी
पूज्य ज्ञानसुन्दरजी
पूज्य ज्ञानसुन्दरजी
पूज्य ज्ञानसुन्दरजी
पूज्य ज्ञानसुन्दरजी
पूज्य गंभीरविजयजी
एच. डी. बेलनकर
श्री डी. एस शाह
भाषा
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत/हिन्दी
संस्कृत/अंग्रेजी
संस्कृत/अंग्रेजी
संस्कृत/अंग्रेजी
संस्कृत/अंग्रेजी
संस्कृत
गुजराती
संस्कृत
हिन्दी
हिन्दी
हिन्दी
हिन्दी
हिन्दी
संस्कृत/ गुजराती
संस्कृत
संस्कृत/गुजराती
संपादक/प्रकाशक
पूज्य जिनविजयजी
पूज्य जिनविजयजी
यशोभारति जैन प्रकाशन समिति
श्री रसीकलाल छोटालाल
श्री रसीकलाल छोटालाल
श्री वाचस्पति गैरोभा
श्री सुब्रमण्यम शास्त्री
श्री सुब्रमण्यम शास्त्री
श्री सुब्रमण्यम शास्त्री
श्री सुब्रमण्यम शास्त्री
श्री मंगेश रामकृष्ण तेलंग
मुक्ति-कमल जैन मोहन ग्रंथमाला
श्री चंद्रशेखर शास्त्री
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा नरोत्तमदास भानजी
सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ
ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ट्रस्ट
पृष्ठ
364
222
330
156
248
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448
444
616
632
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414
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444
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com
शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७२ (ई. 201६) सेट नं.-७
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची।
पृष्ठ 285
280
315 307
361
301
263
395
क्रम
पुस्तक नाम 202 | आचारांग सूत्र भाग-१ नियुक्ति+टीका 203 | आचारांग सूत्र भाग-२ नियुक्ति+टीका 204 | आचारांग सूत्र भाग-३ नियुक्ति+टीका 205 | आचारांग सूत्र भाग-४ नियुक्ति+टीका 206 | आचारांग सूत्र भाग-५ नियुक्ति+टीका 207 | सुयगडांग सूत्र भाग-१ सटीक 208 | सुयगडांग सूत्र भाग-२ सटीक 209 | सुयगडांग सूत्र भाग-३ सटीक 210 | सुयगडांग सूत्र भाग-४ सटीक 211 | सुयगडांग सूत्र भाग-५ सटीक 212 | रायपसेणिय सूत्र 213 | प्राचीन तीर्थमाळा भाग-१ 214 | धातु पारायणम् 215 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-१ 216 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-२ 217 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-३ 218 | तार्किक रक्षा सार संग्रह
बादार्थ संग्रह भाग-१ (स्फोट तत्त्व निरूपण, स्फोट चन्द्रिका, 219
प्रतिपादिक संज्ञावाद, वाक्यवाद, वाक्यदीपिका)
वादार्थ संग्रह भाग-२ (षट्कारक विवेचन, कारक वादार्थ, 220
| समासवादार्थ, वकारवादार्थ)
| बादार्थ संग्रह भाग-३ (वादसुधाकर, लघुविभक्त्यर्थ निर्णय, 221
__ शाब्दबोधप्रकाशिका) 222 | वादार्थ संग्रह भाग-४ (आख्यात शक्तिवाद छः टीका)
कर्ता / टिकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक | श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री मलयगिरि | गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ.श्री धर्मसूरि | सं./गुजराती | श्री यशोविजयजी ग्रंथमाळा श्री हेमचंद्राचार्य | संस्कृत आ. श्री मुनिचंद्रसूरि श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ. श्री वरदराज संस्कृत राजकीय संस्कृत पुस्तकालय विविध कर्ता
संस्कृत महादेव शर्मा
386
351 260 272
530
648
510
560
427
88
विविध कर्ता
। संस्कृत
| महादेव शर्मा
78
महादेव शर्मा
112
विविध कर्ता संस्कृत रघुनाथ शिरोमणि | संस्कृत
महादेव शर्मा
228
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श्रीन्यायाम्भोनिधि-श्रीमद्विजयानन्दसूरिभ्योनमः ॥
ग्रंथमाला. नं. १६
॥ अहम् ॥ ॥गिरनार गल्प ॥
प्रेरकशान्तमूर्ति मुनिमहाराज १०८ श्री ___ हंस विजयजी महाराज.
योजकजैनाचार्य श्रीमद्विजयानन्दम्ररि शिष्य-मुनि महाराज श्री लक्ष्मी विजयजी शिष्यमुनिमहाराज श्री हर्ष विजयजी शिष्यमुनिमहाराज श्री वल्लभविजयजी
शिष्य-पंन्यासश्री ललित विजयजी ॥
प्रकाशक- श्री हंस विजयनी फ्रो जैन लायब्रेरी श्रीवीर निर्वाण २४४८ श्री आत्म संवत् २६ विक्रम संवत् १९७८ इसवीसन १९२१
मूल्य आठ आना.
AR
AND
SH
at
.COM
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dccess secEEC
अमदावाद - श्री अंबीकाविजय प्रिंटींग प्रेसमां पटेल लक्ष्मीचंद हीराचंदे टाइटल छाप्युं.
चोपडी जेन विद्याविजय प्रेसमां छापी.
WWEEEETZTEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE
EEEEEEEEEEZEI
Aho! Shrutgyanam
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श्रीमन् पंन्यासजी मणि विजयजी महाराजनुं जीवनचरित्र.
गुजरात प्रांतना खेडा जील्लामां कपडवंज तालुकाना कपडवंज नामना शहरमा शाह मगनलाल साइचंद नामे के जे प्रस्तुत जीवनचरित्रना जायकश्री पंन्यास मणिविजयजी महाराजना संसारीपणामां पिता उत्तम श्रावक अने घरना सुखी गृहस्थ हता, दुकाननो धंधो प्रमाणिकपणे करता, अने धर्म अनुष्ठान प्रत्ये पण अतिरुचीवाळा हता, मनां धर्मपत्नी एटले श्री मणिविजजी महाराजना संसारीपणानां मातुश्री नामे जमना बाई पण पतिव्रत धर्मने अनुसरी चालनारां हतां. म. हाराजश्रीनां मातापिता धर्मनीष्ट साधुसाध्वीनी भक्तिबाळां, अने गुणानुरागी हतां.
संवत १९२४ नी शालमां मुनिमहाराजश्री झवेर सागरजी महाराजे कपडवंजमां चोमासुं कर्यु. श्री झवेर सागरजी महाराज विद्वान अने उत्तम उपदेशक हता,
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जेथी चतुर्मासमां महाराजश्रीना रसमय वाणीवाला धर्मोपदेशवडे सेंकडो जीवो प्रतिबोध पाम्या, तेमां पण मगनभाइ तो प्रथमथीज मुनिभक्तिवाळा अने धर्मीष्ट होवाथी महाराजश्रीना उपदेशथी मगनभाइने एवी वैराग्य वृत्ति जाग्रत थइ के आ संसारना क्षणभंगुर सुखको त्याग करवो एज श्रेष्ट छे. ___ सगनभाइने बे पुत्र हता, मोटा पुत्रनुं नाम मणि. लाल अने नाना पुत्रनुं नाम हेमचंद हतुं हेमचंद चार वर्षे न्हाना हता. बन्नेए सरकारी निशाळमां सारी अभ्यास कर्यो हतो अने बन्नेना विवाह पण थया हता, धर्मीष्ट पिताश्रीना परिचयथी बन्ने पुत्र निरंतर नवकारमंत्रनुं स्मरण करता, प्रतिकमणनां सूत्र अने देहरासरमां कहेबाना दूहा विगेरे धार्मिक अभ्यास पण करता, मूळथी बन्ने पुत्र बुद्धिशाळी अने पिताश्री धर्मनीष्ठ तेथी " बाप तेवा बेटा" ए कहेवतने अनुसारे धीरे धीरे धर्मप्रेमी थवाथी घणीवार मुनिनुं व्याख्यान श्रवण करवा जता. त्यारबाद धर्मज्ञान उपर प्रेम थगथी जीव विचार नक्तत्व विगेरे केटलांएक प्रकरणा नो अभ्यास को. मातपिताए बन्ने भाइओने परणा
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( ३ ) व्या तो पण पूर्व पून्यना उदये बने भाइनो ज्ञानाभ्यास वृद्धि पामा लाग्यो अने मार्गोपदेशिका - अमरकोष विगेरे संस्कृत अभ्यास कये. पूर्वभवमां ज्ञान प्राप्त थयु होय तो आ भवमां पण ज्ञान संस्कार चालु रहेवाथी अल्पप्रयासे ज्ञानाभ्यास बनी शके छे तेम बने भाइए अल्पप्रयासे संस्कृत ज्ञान प्राप्त क. पिताश्री मगनभाइ तात्विक पिताश्रीज हता जेथी बन्ने पुत्रो ज्ञानशाळी होवाथी प्रतिबोध पामी चारित्र अंगीकार करे तो एमना आत्मानुं अने परतुं पण कल्याण करी महा उपकार करनार थाय एम इच्छता.
माता जमना बाड पोताना पुत्रोने भाग्यशाळो ज्ञानशाळी जाणी आनंदमय रहेतां, घरमां समृद्धि, अनुकूल अने भाग्यशाळी पुत्रो अने रुपवान गुणीयल बहुना सरखा संयोगथी माता जमनाबाई धर्मनो अतुल्य प्रभाव मानी विशेष धर्मनीष्टपणे वर्ततां हतां. बळी काळनी गति विचित्र होवाथी सुखनिमन जीवनी इर्ष्या करनार काळे मणिलाल से बहु माणेक आलोक सुख हरी लीधुं, अर्थात् माणकचाइ देवगत थयां आ वखते मणिलालने परण्ये ३ वर्षथयां हृतां
•
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( ४ ) अने हेमचंद ने परण्ये १ वर्ष थयुं हतुं मणीलालने बीजा विवाहनी बात चालती हती परन्तु मगनभाइनो विचार ए हतो के पुत्रोने चारित्र अपात्री मारे पण चारित्र लेवं. जेथी बीजीवार विवाह स्वीकार्यो नहि.
पूर्व भवना पूण्यथी बन्ने पुत्रो ज्ञानाभ्यास सहित वैराग्यवृत्तिवाला पण थया. जेथी पिताए बने पुत्रनो चारित्र उपर प्रेम थयो जाणी अमदावाद पासे कासंद्रा गाममां मुनिमहाराजश्री नीतिविजयजी पासे मोकल्या. तेमां मणिलाल पुख्तवयना अने विधुर होवाथी मणिलाटने दीक्षा आपो, अने हेमचंद तुरत परणेला अने काची वयना होवाथी तेमने दीक्षा लेवा माटे काळ विलंबनी सूचना करी. मणिलाल नुं नाम श्री मणिविजयजी पाडयुं के जेमनुं आ चरित्र लखवा हुं भाग्यशाळी थयो छं.
मणिलालनी दीक्षा लीधानी वात सांभळी माता जमनाबाईने पुत्रपणाना स्नेहथी दीलगीरी थाय ए स्वाभाविक छे, परन्तु हेमचंदे दीक्षा नहि लीधेली होवाथी अने पोताना पतिए पवित्र बोध आप्याथी पुनः चित्त विश्रान्ति प्राप्त थइ श्रीमणिविजयजी महा
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( ५ )
राजे पोताना उत्कृष्ट भावथी अने पितानी पूर्ण सम्मतिथो दीक्षा लोधेली होवाथी एमनुं चारित्र निर्वीनपणे सरळ थयुं, अने गुरुमहाराजनी साथै बिहार
करवा लाग्या
•
हेमचंद दीक्षा लीघा विना पितानी साये घेर आव्या, परन्तु चित्त तो वैराग्य वृत्तिवालुंज हतुं पुनः पितानो विचार हेमचंदने दीक्षा आपवानो थतां वर्त्तमानकाळमां विचरता श्रीमद् विजयसिद्धिमूरि पासे मोकल्या. श्रीविजयसिद्धिमूरीजीए दीक्षा आपी. अने श्रीकनक विजयजी नाम राख्युं. दीक्षा लीघा बाद लखतर वोरमगाम तरफ विहार कये.
हेमचंदनी माताने अने सासरीयांने दीक्षानी चानी खबर पडी के तुर्त सासरीयांर अने माता जमना बाइए अमदावाद जइ सरकारमां अरजी करी. सगीर (काची ) वयना होवाथी तेओने भोळव्या छे एम जाणी कोरटे घेर मोकली देवा फरमायुं. लोकमां अपवाद न थवाना कारणथी हेमचंद घेर आल्या त्यारथी ससराए तेमने पाताने वेरज राख्या. तो पण स्वाभाविक वैराग्यवृत्ति न बदलाइ पिताश्री
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मंगनलालने दोसी वालाभाइ देवचंद, बालाभाइ दलसुख, अने शंकरलाल विगेरे धर्मोष्ट गृहस्थोनो मदद हती जेथो पिताश्रीए हाईकोर्टयां अपील करो, सालीपीटर तरीके वासुदेव जगनाथ तथा बॅरीस्टर तरीके मेकर्सनने रोकया, कोर्टे चुकादो आप्पो के कोइपग माणसने पोताना आमहोत माटे धर्भ आराधन करतां कोइ रोकी शके न है. ए प्रमाणे चुकादो थवाथो हेमचंदे लींबडी पासे लाली सात गाममां मोटी धामधून पूर्वक श्री झवेरसागरजी महाराज पासे पवित्र दोक्षा अंगीकार करो. त्यारवाद अनुक्रमे आ. गमनो उद्धार करनारा अने मूरिपद संयुक्त थया. नाम श्री सागरानंद सूरीश्वर प्रसिद्ध थयु
शा मगनभाइए पोताना बन्ने पुत्रोने दोक्षा अपाव्या बाद संरत १९५० नी शासमां पोते पण दीक्षा लीधी अने नाम श्री जोवविजयनी राखवामां आईं. तेओश्री चारित्र पाळी १९ नो सालयां पेटलाद माममां काळधर्म पाम्या. त्यारवाद जमनावाइए घणो वखत पालीताणामां रहो श्री आदी पर भगवाननी यात्रानो लाभ मेळव्यो. तीर्थयात्रा मुनि
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( ७ )
भक्ति आवश्यक क्रिया विगेरे अनेक धर्मकार्यो करी ज. नावाइए पवित्र तीर्थस्थळ पालीताणामांज त्याग कर्यो.
महाराज श्री जोवविजयजोनी भक्ति निमित्ते हजी पण ओनी काळधर्मनी तिथि आवे त्यारे पूजा विगेरेथी देवभक्ति करवामां आवे छे. बाइ ( श्री सागरानंद सूरीश्वरनां संसारीपणानां धर्मपत्नी ) एमना इटुंबमां हाल श्री सागरानंद सूरीश्वर अने माणेक हयात छे.
श्री मणिविजयजी महाराजे संस्कृत अने प्राकृत व्याकरणनुं ज्ञान सारी रीते संपादन कयुं छाणी गाममां रहो शेठ कीलाभाइ करमचंदनी सहायथी श्रीमंत सरकार गायकवाड महाराजना शास्त्री काशी निवासी राजाराम भाइ पासे न्यायशास्त्रानो अभ्यास कर्यो, तेमज अंग्रेजी भाषानो पण अभ्यास कर्यो.
संवत १९७० मां छाणी गाममां पन्यास पद्वी मळी. तेओए कपडवंज, अमदावाद, छाणी, कालीआवाडी, लींबडी, वढवाण, भावनगर, शीहोर, पेटलाद, खंभात, नार, बहादरा, अने तलाजा विगेरे गामोमां
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( ८ ) चोमासां की. छेल्लु चोमासु पालोताना पासे तलाजा गाममां रद्या. ते गाममां प्लेगनो उपद्रव होवाथी अने मुनिए धर्मक्रियाना निर्वाह माटे रोगादिक उपद्रववाळा स्थाननो त्याग करतो एवो विधिमा होवाथी महाराजश्री तलाजाथी विहार करो त्रपज गाम पधार्या, त्यां शरोरे व्याधि थवाथी संवत १९७८ नो सालमा कार दी ३ ने रोज काळधर्म पाम्या. एवा मुनि महाराजनु गुणकोर्त्तन करवाथी हूं मारा आत्माने कृतार्थ थयो मानुंछु भने आ अल्प जीवनवृत्तांत वांचनार वोना महाशयो पण ज्ञानादि गुग प्राप्त करी पोताना आत्मा कृतार्थ करे ए हेतुथी महाराजश्रोतुं टुंक जीवनचरित्र मारी अल्पमति प्रमाणे लखेलुं छे, तेमां जे कंइ भूल चूक अविनय अने अनादर थयो होय तो हूं अंतःकरणपूर्वक क्षमा मागुंछु -- इत्यलं.
ता. क. आ बुकोनो तमाम खर्च लुणसावाडावाला रा. रा. मामलतदार उमाभाइ जेठाभाइए आपेलो छे अने उपरनुं चरित्र तेमनो प्रेरणाथोज प्रसिद्धिमा मुकवामां आव्युं छे. की. प्रसिद्ध कर्ता.
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२
॥ वन्दे वीरमानन्दम् ।। ॥श्री गिरनार गल्प॥
चरम तीर्थंकर श्रीमन्महाबी र देवके समयमे -क्रिया-क्रबा-अज्ञान-विनय-आदि पक्षकोस्वीकारने वाले ( ३६३) मतावलंबी कहेजाते थे, परंतु-हाल के वर्तमान युगमें उस संख्या की पी सीमा नही रही । समयको गतिके साथ धों की गतिका भी परिवर्तन होता है, आज भारत
के अन्यान्यलभ्य और दृश्य अनुमान (३१) क्रो जनसमुदित वस्तिपत्रकमें, वावन लाख साधु और-तीन हजार पंथ सुने जाते हैं । धर्म और मियोंकी इस विशाल संख्या ज्यादा हिस्सा आ
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[२] स्तिक लोगोंका ही है । आस्तिक किसी देश जनपद या-जाति विशेषका नाम नहीं है । आस्तिक वह ही कहे जासक्त हैं कि-जो जीव-अजीव-पुध्य-पाप-आश्रव-संवर-निर्जरा-बंध-मोक्ष- जन्म -जन्मान्तर-स्वर्ग नरकके साथ ईश्वर परमात्माका होना कबूल करते हो. ईश्वरको सर्वज्ञ-सर्वदर्शीदयालु-मायालु-नीरज-परोपकारी-अनंत चतुष्टय धारक निरीह-निरभिमानी-अकर-ऋजु-अमायी ----सत्यमार्ग देशक-धर्मचक्रवर्ती-धर्मसारथीत्रिलोकी त्राता आदि यथार्थ गुणांके सागर मानकर उनके वचनोंका आराधन करते हैं । उनके बतलाये राहो रास्तेपर चलना यह भी ईश्वरकी भक्ति-पूजा-सेवा-सुश्रूषा कहलाती है, जैसे प्रभु पुष्पादिसें पूजे जाने पर-श्रद्धालुको मोक्षदाता होते हैं. वैसे उनकी आज्ञाके पालकको भो वह परमपद देते है, धूप-दीप-जल-चंदन आदि विविध प्रकारकी पूजा करनेवाले को पहले उस जगहसाल के आज्ञा वचनोंपर यकीन रखनेकी खास जरूरत है । “आस्था मूलाहि मी"
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[ ३ ]
यहां एक बात और कहनी रह जाती है कि जिसका उल्लेख करना खास आवश्यक और प्रासंगिक है. 'ईश्वर संसारमें एक उत्तमोत्तम पद्वी है कि जिसके हर एक भव्य जंतु अपने सतत परिशीलितविशुद्ध आचरणोंसे हासिल कर सकता है । 'धनसार्थवाह' के भवमें बीजारोपण करके जीवानंदके जन्ममें उसको विशेष सींचकर और वज्रनाभके भवमें उसके मूलको खूब परिदृढ करके अर्थात् चौद लाख पूर्व-वर्ष के विशुद्ध चारित्र पर्याय और निर्निदान - निराकांक्ष-तपसे निकाचित कर जो गुणरूप सुरशाखी प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव जी के जीवने अपने आत्माराम में लगाया था प्रतिबंधक कर्नीको क्षयकर जो सर्वज्ञस्त्र-सर्वदर्शित्व - गुरुगुण नाभिराजाके अंगजने नाप्त किया या वही आत्मबल - वहही शक्ति-सामर्थ्य - वह कारण कलाप - उनके पौत्र मरीविमें भी था. वह ऋषभनाथ प्रभुके आत्मगत केवलज्ञान केवल दर्शनादि क्षायिक भावोपगत - आविर्भूत थे. और मरीचिके भावना वह सर्व गुग खाने मणो
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[ ४ ] की तरह तिरोभावमें थे. मरीचिने भी " नयसार ग्रामचिंतक ” की अवस्थामें उस मंदार तरुके वीज तो बीजे ही हुए थे; सिर्फ आगेका क्रिया संदर्भ ही अवशिष्ट था, उसको भी " नंदनकुमार " के भवमें विशुद्धात्मवीर्यसे आचरणागोचर कर वह ही भी " वीर " के भवमें श्री ऋषभदेव के समान हो गये । जैनदर्शन में "ईश्वर" पदके अधिकारी जो लोकोत्तर सामर्थ्यशाली - उत्तमोत्तम जीवात्मा होते हैं उनको “ सामान्य केवली " " और तीर्थकर " इन दो नामसें उच्चारा जाता है. सामा न्य केवली हरएक जाति में हर एक कुलमें- नर नारी आदि हर एक लिंगमें केवलज्ञान केवलदर्शनकी संपत् प्राप्त कर सक्ते हैं । तीर्थकर - देव फक्त राजवंशी क्षत्रीयकुलोत्पन्न ही और वह भी पुरुषोतम ही होते हैं । पूर्वभवोपार्जित पुण्ययोग से माताको चतुर्दश स्वप्न से अपने भावि महोदयकी सूचना दिलाते हुए जात मात्रही देवदेवेन्द्रो के पूजनीय, वंदनीय, अर्चानमस्या के पात्र होते है ||
उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के छ छ आशंका
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एक कालचक्र कहलता है. अवसर्पिणी का पहला आरा चार कोटाकोटि सागरोपमका होता है दूसरा आरा तीन कोटाकोटि-तीसरा दोका, चौथा ४२ हजार वर्ष कमती एक कोटाकोटि सागरोपम का, पांचवां (२१) हजार वर्षका और छठा भी (२१) इक्कीस हजार वर्षका माना गया है. सब मिलकर (१०) कोटाकोटि सागरोपमकी अवसर्पिणी
और १०) कीही उत्सर्पिणी मानी गई है। उत्सर्पिणीमें पहला २१ हजार वर्षका, दूसरा भी २१ हजार वर्षका, तीसरा ४२ हजार वर्ष न्यून एक कोटाकोटि सागरोपमका, चौथा दो, पांचमा ३
और छठा ४ कोटाकोटि सागरोपमकी स्थितिवाला गिना जाता है ।। ____ अवसर्पिणीके तीसरे आरेकी आखीरमें पहला तीर्थकर और चौथे आरेमें २३ तीर्थकर होते हैंउत्सर्पिणीके तीसरे आरेमें २३ और चौथे आरेके प्रारंभमें अंतिम चौवीसवें तीर्थकरदेवका होना माना गया है । इस वर्तमान अवसरपिंणीकालमे-श्रीऋषभदेव १ श्री अजितनाथ २ श्री संभवनाथ ३ श्री
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अभिनंदनरवामी ४ श्री सुमतिनाथ ५ श्री पद्मप्रभ स्वामी ६ श्री सुपार्श्वनाथ ७ श्री चंद्रप्रभस्वामी ८ श्री सुविधिनाथ ९ श्रीशीतलनाथ १० श्रीश्रेयांसनाग ११ श्री वासुपूज्यस्वामी १२ श्रीविमलनाथ १३ श्री अनंतनाथ १४ श्रीधर्मनाथ १५ श्रीशांतिनाथ १६ श्री कुन्थुनाथ १७ श्री अरनाथ १८ श्री मल्लीनाथ १९ श्रीमुनिसुव्रतस्वामी २० श्री नमिनाथ २१ श्री नेमिनाथ २२ श्रीपार्श्वनाथ २३ श्री महावीस्वामी २४ येह चौवीस तीर्थकर महाराज हुए हैं। इन महापभावशाली तीर्थकर देवोंकी पांच अवस्थाओंका नाम "कल्याणक" है. च्यवनकल्याणक । जन्मकल्याणक । दीक्षा कल्याणक । केवलज्ञान कल्याणक।
और निर्वाण कल्याणक । किसी तीर्थकर देवका कोइ कल्याणक कहीं होता है और कोई कहीं होताहै। जहां जहां उन परमेश्वरोंके कल्याणक होते हैं उन क्षेत्रोंका-कल्याणोंके योगसे कल्याणक भूमि नाम प्रख्यात हो जाता है । वर्तमान चौवीसीके बावीसवें तीर्थकर श्री नेमिनाथजीके दीक्षा, केबल और निर्वाण येह तीन कल्याणक " श्री गिरनार "
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(रैवताचल ) पर्वतपर हुए हैं । "उन्जितसेलसिहरे दिख्खा नाणं निसिहिआ जस्स" इत्यार्प वचनात् ।
श्री नेमिनाथजीके विषयमें लोकोक्तियें"
श्री नेमिनाथ स्वामी के नाममें 'नाथ' शब्दको देखकर और उधर अपने धर्ममें-गोरख-मच्छन्दरआदि नामोंके साथभी नाथ शब्दको देखकर दर्शनातरीय लोग और और कल्पना करलें यहतो संतव्य है, परंतु किसी प्रसिद्ध इतिहास वेत्ताने यदि ऐसी भूल करदी हो तो वह असंतव्य है. ___टोड राजस्थानके अनुवादक पंडित ज्वालादत्त शर्मा लिखते हैं "टोडसाहिबके मतानुसार चार बुध " माने गये हैं। साहिब कहते है कि यह चारों " बुध एकेश्वर वादी थे । और उक्त धर्मका एशि" यासे लाकर भारतवर्ष में प्रचार किया था। उ"नके समस्त धर्मशास्त्र एक प्रकारकी शंकुशीर्षाकार " वर्णमालामें लिखे हुए है । सौराष्ट्र-जैसलमेर " और विशाल राज्यस्थानके जिस जिस स्थानमैं
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८] " पहले बुध और जैनलोग बास करते थे. टोड " साहिब उन सब देशोमें जाकर उनके धर्मकी " अनेकशिलालिपी और ताम्र शासन लायेथे । उन " चारों बुधका नाम नीचे लिखते हैं.
" प्रथम बुध-(चंद्रवंशकी प्रतिष्ठा करनेवाला) अनुमान इसबीसे पहिले २५५० वर्षमें उत्पन्न हुआ ." द्वितीय-नेमिनाथ-( जैनियों के मत बाइसवां ) इसास ११२० बर्ष पहले हुआ। .." तृतीय-पार्श्वनाथ-( तेईसवां ) ईसासे ६५० वर्ष पहले हुआ। ____ " चतुर्थ-महावीर-(चौवीसवां) ईसासे ५३३ वर्ष पहले उत्पन्न हुआ" . सोचना चाहियेकि, जिस जैन शासनकी आज्ञा को प्रायः आधा संसार शिरोधार्य मानताथा, जिस जैन धर्मको अशोकके पूर्वज श्रेणिक प्रभृति राजा प्रेम पूर्वक पालतेथे, जिस जैनधर्मने उखडती हुई गुर्जरराजधानीको फिरसे वद्ध मूल करदियाथा, जिस ध. मका सिद्धराज जैसे नरेश मानकरते थे, और चौल
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क्य चिन्तामणि कुमारपाल तो जिसमें गृहस्थ दीक्षा पाकर पूर्ण कृतकृत्य हुएथे। जिस पवित्र धर्ममें-एक तुच्छ मानव जीवनमें-तीस अबज तिहोत्तर क्रोड सात लाख बहत्तर हजार जितनी संपत्ति खर्च करके जगत्का कल्याण करने वाले वस्तुपाल तेजपाल जैसे मंत्री हुए हैं, जिस दयालु-विशाल-धर्ममें जगडशाह जैसे महापुरुषोंने क्रोडो रुपये खर्चकर भूखे मरते हजारो नहीं बलकि लाखों करोडों मनुष्योंकी जानें बचाइ हैं, जिस उदार शासन के परम भक्त भाग्यवान् भामाशाहने अस्ताचलपर पहुंचे हुए मेवाड क्षत्रियों के प्रतापमूर्यको किर तपाकर छ.ये हुए अनीति अंधकारको देश निकाला दिया और दिलवाया है। आज उस धर्म की शोचनीय दशा हो रही है। मनमाने आक्षेप, मनमानी मित्थ्या कल्पनाएँ होती चली जा रही हैं परंतु कोइ किसिके सामने माथा ऊंचा नहीं कर सकता !!!
अफसोस है कि-आज संसारमें भगवान् "हरिभद्र सूरि" और भगवान् श्री हेमचंद्रमरि नहीं हैं कि जिनकी वाचा और लेखिनी के डरे हुए वादि
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[१०] वृन्द परास्त हो कर इस उद्घोषणाको सत्य मानते थे कि "न वीतरागात्परमस्ति दैवतं, न चाप्यनेकान्तमृते नयस्थितिः" जिस हरिभद्र सूरिके " नास्माकं सुगतः पिता न रिपवस्तीर्थ्या धनं नैव तै-दत्तं नैव तथा जिनेन न हृतं किश्चित्कणादादिभिः । किन्त्वेकान्तजगद्धितः स भगवान् वोरो यतश्चामलं, वाक्यं सर्व मलोपहर्तृ च यतस्तद्भक्ति मन्तो वयम् ॥१॥” तथा “पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद्वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः ॥२॥" ऐसे-मध्यस्थ भाव भरे-औदार्य गुणपूर्ण-उद्गारोंको मुन सुन आज भी निष्पक्षवादी संसार उन्हें शिर झुकाकर पूज्यपाद-सदा स्मरणीयसंसारके उद्धारक पुरुष-ऐसे २ पवित्र नामांसे बुला रहा है । आजके प्रायः साधनप्रचुर संसारमें पवित्र धर्मके सिद्धान्तको प्रकट कर दिखाने के लिये ऐसे पुरुषोत्तमावतारकी और " न रागमात्रा त्वयि पक्षपातो, न द्वेषमात्रादरुचिः परेषु । यथाव दासत्वपरीक्षया तु, त्वामेव वीरमभुमाश्रयामः ऐसे विश्वजनीन सत्यनादकी गर्जना के करने
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[११] वाले चालुक्य वंश तिलकायमान-परमाहत-कुमारपाल भूपति के धर्मगुरु कलिकाल केवलिकल्प प्रभु श्री हेमचंद्रकी भी उतनी ही आवश्यकता थीकि जितनी १४४४ ग्रंथों के निर्माता गुरु श्री हरिभद्रजी की थी । आजकी सांपतकालीन जनता-बडी खुशी से झुकती है. परं कोई सत्य कह कर झुकाने वाला चाहिये. आजकी सृष्टि संसार के तखते परके किसीभी धर्मको मान देती है-कोई दिलानेवाला चाहिये । ऐसा न होता तो "पूज्यपाद-प्रातःस्मरणीय-न्यायाम्भोनिधि-श्रीमद्विजयानंद मरि (आत्मारामजी ) महाराजने दिल्लीसे लेकर पंजाबके पश्चिम तट तक के भूले हुए लोगोंको कैसे सन्मार्गगामी बनाया होता ? श्री लक्ष्मीविजयजी (विश्वचंदजी ) जैसे अखर्व पांडित्य पूर्ण साधुओंको अपने सच्चे अनुयायी क्योंकर बनाया होता ? - ___ मनुष्य अपने आत्मावलंबनसे दूसरेका अनुकरणीय बन सकता है । संसारमें सदाचारी मनुष्य देवदेवेंद्र और सार्वभौम राजाको भी मान्य होता है। सृष्टिके सदाचारेमें " वृद्धानुगामिता" एक बड़े में
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[१२] बडा सदाचार है लोकोक्ति है । कि-"बद न सोचे जेमगर दूगर कोइ मेरी सुने । है यह गुम्मनकी सदा जैसी कहे बैसी सुने " कलिकाल सर्वज्ञ-इतने दर्जे तक पहुचनेपर भी अपने गुरु महाराज के परमभक्त थे. इसी लियेही-कर्णाटक से हिमाचल के बीचको २२ राजधानियांपर हकूमत करनेवाला सिद्धराज जयसिंह, और तुरक देश-गंगातट-विन्ध्याचल-और समुद्र किनारे तक भूमिके एक छत्रराज्यको करनेवाला कुमारपालभी उनकी आज्ञाको देव निर्माल्य की तरह शिरोधार्य करते थे।
-20स्वामित्व-और-स्वीकार. जैसे वैश्नव संप्रदायों द्वारिकापुरी जगन्नाथपुरी आदि स्थानोंको पवित्र तीर्थ स्थान रूपसे स्वीकारा गया है। शैवोने जैसे सोमेश्वर,अंकलेश्वर-तडकेश्वर जगदीश्वर, नगेश्वर-इकलिङ्ग भीडभंजन प्रभृति स्थान नगर गतमंदिर मूर्तियोंको पूज्य माना है । इस्लामवालोंने जैसे मका, मदीना, ख्वाजापीर, ताजबीवी,
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[१३]
जुमामस्जिद वगैरह जागाको अपने मान्य और पवित्र पाक समझा है । पंजाबमें सिक्स्व महाशयोंने जैसे अमृतसरके दरबार साहिबको, तरनतारनको, भदैनी साहिब और रोड़ी साहिवको । गुसाँइ समाजने बद्दोकी के मंदिरको । रामचंद्रजीके उपासकांने सेतुबंध रामेश्वरको, वैदिक पौराणिकने काशीबाणारसीको । नदियोंके भक्तोंने जैसे गंगा यमुना त्रिवेणी सरस्वती वगैरहको अपने पुण्यक्षेत्र माने
और स्वीकारे है, ऐसे जैन संप्रदायमें-शत्रुनय-गिरिनार-आबु-अष्टापद-सम्नेतशिखर-कुलपाक,जीरावला-अंतरिक्ष-मांडवगढ, अवंती, केसरियानी, कांगडा, कावी, भेरा, हस्तिनापुर, पावापुरी, चं. पापुरी, राणकपुर, बरकाणा, शंखेश्वर, भायणी, नाडोल, नाडलाइ, मुछाला महावीर, पानसर, मित्राणा, झगडिया, महुवा, डाठा, फलौधो पार्श्वनाथ, कापरडाजी, ओसिया आदिको पावन तीर्थ स्थल माने गये हैं। उनमेंभी तीर्थाधिराज श्री शत्रुजय
और गिरिनारको अत्युत्कृष्ट तीर्थोत्तम सदा स्मरणीय सदा वंदनीय पूजनीय माना है ।
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[११]
तीसरे आरे के अवसान समयमें पहले शीर्थकर श्री “ ऋषभदेव स्वामी" हुए हैं, उनके चौरासी गणधरोंमेंसे "पुंडरीक स्वामी" जो मुख्य शिष्यथे, उन्होने खुद श्री ऋषभदेव स्वामीके मुखा. बिन्दसे श्री शत्रुजय महातीर्थ का माहात्म्य सुन कर सवा लाख श्लोक प्रमाण श्री शत्रुजय मा. हात्म्य नामक ग्रंथका निर्माण कियाथा. ऐदंयुगीन मानवोंको अल्पायुः और अल्पमेधावी जानकर श्रीवीरम के पट्टधर पंचम गणधर श्रीसुधर्म स्वामीजीने उस महान् ग्रंथको घटाकर २४००० श्लोकमें रचाथा, आगामी कालके मनुष्योंकी स्थितिका पर्यालोचन करते हुए श्री “धनेश्वरमूरि "जीने श्री गणधर प्रणीत ग्रंथको भी १०००० श्लोकों मे संक्षिप्त किया है। ____ फिल हाल श्री आदि नाथ-भगवान् के तीर्थसे लेकर आज तक यह तीर्थ-जैन प्रजा के ही सर्वथा माने गये हैं और माने जा रहे हैं । हां कोई ऐसा भी समय आजाता है कि-उन उन देशोंके या नगरोंके: नरेश जब प्रबल
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पक्षपाती होजाते हैं तब वह उन तीर्थोपर अपनी अपनी श्रद्धा के मुताविक मनमाने अधिकार जमानेका उद्यम करते हैं ।ग्यारवीं शताब्दिमें जब संडेर गच्छ नायक-श्रीयुत्-ईश्वर सूरिजीके पट्टधर-श्री 'यशोभद्र सूरिजी *आहडके रहनेवाले मंत्रीके संघके साथ श्री शत्रुञ्जय और गिरिनार तीर्थकी यात्रा
१. आचार्य श्री यशोभद्र मूरिजीका-जन्म विक्रम संवत् ९५७ में आचार्य पद्वी संवत् ९६८ में ।
और १०३९ में स्वर्गवास । जन्मसे ११ वें वर्ष मूरिपद और उसी दिनसें यावज्जीवतक आंबिलकी तपस्या । आंबिलमें भी फक्त ८ कवल प्रमाण ही आहार । विशेष वर्गन मेरे लिखे श्री यशोभद्र मूरि चरित्रसे, या श्री विजयधर्म सरि संपादित ऐतिहासिक रास संग्रह भाग दूसरे से जानो।
* आहड-का प्राचीन नाम आघाट है, प्राचीन तीर्थोकी नामावलीमें-"आघाटे मेदपाटे" ऐसा जो उल्लेख है वह इसी हि नगरके लिये है. यहां आज भी जैनके विशाल-और उत्तुंग मंदिर हैं ।
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करने गये थे उस वक्त जूनागढका राजा रावखेंगार जूनागढकी गादी पर था. उसने मूरिजीका बडा सत्कार किया. और उन्ही आचार्यश्रीजीके शिष्य " बलिभद्र " मुनि जब किसी संघपति के बुलानेपर वहां गये तब वह ही रावखंगार बुद्धधर्मका पूर्ण पक्षपाती हो गया था.
। यह वृतान्त संक्षेपसे नीचे
लिखा जाता है। किसी पुण्यात्मा कल्याणार्थी जीवने गुरूपदेश को श्रवण करके लक्ष्मीके सदुपयोगका उत्तम मार्ग समझ कर श्री सिद्धगिरि और रैवताचलका संघ निकाला. श्री संघ जगती तिलक श्रीशत्रुजय तीर्थकी "यह आहडा ग्राम-उदयपुरसें १ मील पूर्वकी ओर रेल्वेस्टेशनके पास है. आजकल राणा वंशका दग्ध स्थान यही है । यह गाम तीर्थभी माना जाता है। - २-राव खंगार वि.सं. ९१६ में गादीपर बैठा था. इसके बापका नाम नवधन था।
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गिरनारपर्वत- -नामनाथकी टोक..
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[ १७ ] यात्रा करके जब गिरिनार पहुंचा तब वहां के राजा रागाने उन्हे ऊपर जाने से रोका और कहा यह तीर्थ बुद्ध धर्मका स्थान है, इसपर तुमारा किसी किसमका दखल नहीं, अगर तुम इस तीर्थ की यात्रा करना चाहते हो तो तुमको पहले बौद्ध धर्मको मानना जरूरी है, सिवाय इस शरत के तुम इस तीर्थ पर किसी तरह भी पूजा सेवाका लाभ नही ले सकते ! ! उसवक्त वहां औरभी ८३ गाम नगरों के संघ आये हुए थे. उन सर्व संघपतिओंने खेंगारको अनेक रीति से समझाया प्रलोभन तक भी दिया परंतु वह अपने हठसे न फिरा | संघवियोंने अपने सहचारियोंको पूछा कि अब क्या करना चाहिये ? सं
के साथ जो वृद्ध विश्वसनीय मनुष्य थे, उन्होंने कहा इसवक्त किसी प्रभावक पुरुषकी आवश्यकता . है । इतने में "अंबिका " माताने किसी मनुष्य के शरीरमें प्रवेश करके कहा, किसी दुष्ट व्यन्तरने बौद्ध धर्मपर अपनापना होने से इस तीर्थको बौद्ध तीर्थ : ठहराया है, और राजा उस धर्मको मान देता है । जाओ फलानी पर्वत गुफार्मेसें बलभद्र मुनिको ला-
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[ १८ ] ओ वह हरतरहसे समर्थ है | संघवियोंके बुलानेपर मुनिने वहां आकर राजाको समझाया. परंतु जब देखा कि यह सामसाध्यतो नहीं तब अपनी मंत्रशक्तिसे उसे वशवर्त्ती करके श्रीतीर्थाधिराज गिरिनारको जैन संप्रदाय के हस्तगत किया ( विशेष के लिये देखो ऐतिहासिक राससंग्रह भाग दूसरा और उपदेश रत्नाकर संस्कृत, पत्र ९३ । ९४ ।
सज्जनकी विचार पटुता - और सिद्ध राजाका - औदार्य
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अकसर करके इतिहास ग्रंथों में प्रसिद्ध है कि वनराज चावडे " ने विक्रम संवत् ८०२ में राज्य सिंहासनपर बैठकर जांब
अपना प्रधान पक्का उपासक
मंत्री बनाया था. जांब जैन धर्मका था । वनराज के पाट पर हुए २ योगराज ? क्षेमराज २ भूवड ३ वैरिसिंह ४ रत्नादित्य ५ सामंतसिंह ६ । यह सात राजा ( चावडा वंशीय ) - और -
वृद्ध मूलराज १ चामुंडराज २ वल्लभराज ३ दुर्लभराज ४ भीमराज ५ कर्णराज ६ जयसिंहदेव
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[१९] ७ कुमारपाल ८ अजयपाल ९ लघु मूलराज १० लघुभीमराज ११ राजा ( चौलुक्य वंशोय)-और वीरधवल १ वीसह देव २ अर्जुन देव ३ सारंग देव ४ घेला कर्ण देव ५ ( वाघेला वंशोय ) ___ इन गुर्जर राजाओंकी राज्य सत्तामें मंत्री, महामंत्री-दंडनायक-सेनापति-वगैरहजो जो होते रहे हैं वह सभी के सभी प्रायः जैनधर्मानुयायी ही होते रहे हैं । और अपनी अपनी शक्ति के अनुसार शत्रुनय गिरिनार आदि तीर्थाका उद्धार करते हो रहे हैं । महाराजा सिद्धराज के समय सज्जन नामक दंडपति जो कि काठियावाडका अधिकारी था. उसने सोरठ देश की तीन वर्षकी आमदनी खर्च करके श्री गिरिनार तीर्थकी मुरम्मत कराई । जब वह पाटण आया तब राजाने उससे रुपया मांगा। उसने थोडे दिनों के लिये फिर सौराष्ट्र में जाकर जैन शाहुकारोंसे रुपया मांगकर पाटग आकर रामाके सामने रख दिया और नम्रभाव से अर्ज को, कि ३ वर्षका वसुल किया हुभा राजव्य मैंने तीर्थोद्धारमें लगा दिया है और यह द्रव्य शाहुकार
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[२०] लोगोंसे मांगकर लाया हूं। आपकी मरजी हो तो आप रुपया लेलेवें और आपकी इच्छा हो तो आप तीर्थोद्धार के पुण्यकी अनुमोदनाका फल प्राप्त करें।
राजाने दंडनायककी तारीफ करते हुए कहा "तुमने इस युक्तिसेभी हमको पुण्यके भागी बनाए । इस लिये हम तुमारी सज्जनताकी पुन: पुन: श्लाघा करते हुए उस पुण्यकी श्लाघासे पूर्ण तृप्त हैं। द्रव्य जहां जहांसे लाये हो उनको वापिस लौटा दो धन विनश्वर है और धर्म अविनाशी है। धन यहांका यहां रहने वाला है और धर्म भवान्तरमेंभी साथ आकर मनुष्यको हर एक समय सहा. यक होनेवाला है। इस वास्ते हमको पुण्यका स्वीकार सर्वथा इष्ट है और हम इस बिना पूछे किये कामके लिये भी तुमपर पूर्ण खुश हैं."
धन्य है ऐसे राजभक्त कर्मचारियोंकों ! और साधुवाद है ऐसे नरेशांकों !!
एक समय राजा सिद्धराज खुद गिरनार तीर्थकी यात्रा करने गये । तीर्थाधिराजकी पवित्रताउत्तमतासे अति प्रसन्न हो कर उन्होंने कुछ गाम
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[२१]
भेट किये और आशातनाके परिहारके लिये कुछ फरमान जारी कर दिये । जैसे कि इस तीर्थ पर फलाना फलाना काम किसीने नही करना ( इस वर्णनके लिये मेरा लिखा कुमारपाल चरित्र हिन्दी पुस्तक देखो )
दिगंतकीर्त्तिक - महाराज - सिद्धराजका जैन धर्म से इतना घनिष्ट संबंध था कि अन्य केई एक इतिहासकारांने तो उन्हें जैनहीके नाम से लिखडाला । " कर्नल जेम्स टॉड साहेबने अपने बनाये टॉड राजस्थान नामक पुस्तककी फुटनोटमें लिखा है कि " सिद्धराज जयसिंहने संवत् १९५० से १२०१ तक राज्य किया, प्रसिद्ध निडवियन भूगोलवेत्ता [एलएड्री] इसकी राजसभा में गयाथा । एल, एडीसीभी कहता है कि - जयसिंह सिद्धराज बौद्ध धर्मावलंबी था । टॉड राजस्थान अध्याय ६ | फिर देखना चाहिये कि - इतिहास लेखक - राजा शिवप्रसाद - सितारे हिन्द क्या व्यान करते हैं
" इदरीस जो ग्यारहवी सदीके आखीर में पैदा हुआ था. लिखता है कि - अणहिलवाड ( अर्थात्
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[ २२ ] सिद्धपुर पाटण ) का राजा बौद्ध है. सोनेका किरीट: सिरपर पहनता है. घोडेपर बहुत सवार होता है, हिन्दुस्तान के आदमी बडे इमानदार है । अगर कोई किसी अपने कर्जदार के गिर्देहल्का खिंच देता है जब तक वह कर्जदार कर्ज अदा या इजाजत हांसिल नही करता हल्के से बाहिर नही निकल सकत । गोशतके लिये कोइ जानवर नहीं मारा जाता गाय बैलांक बुढापेमेंभी खानेको मिलता है । ( बौद्धसे वाचक महाशय जैनही समझें क्यों किग्रंथकर्त्ताने स्वयंही ग्रंथ के ९ वें पृष्टमें लिखा है कि ) - "हमने जो जैन न लिखकर गौतमके मतवालेisi बौद्ध लिखा उसका प्रयोजन केवल इतना ही है कि उनको दूसरे देशवाल ने बौद्धके नाम से ही लिखा है, जो हम जैनके नामसे लिखें तो बडा भ्रम पड जायगा ( इतिहास तिमिरनाशक खंडती - सरा । पृष्ट ५४ )
* गौतम - श्री महावीरस्वामी के सबसे बडे शिष्यका नाम था जिसके जैन जाति " गौतम स्वामी " इस नाम से पहचानती है ।
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[२३] -तीर्थनक्ति-और-सुगममार्ग
आबुरोड ( खराडी ) से देढ दो माईल पूर्वकी तर्फ कुछ खंडहर पडे हुए दिखाई देते हैं, यहां पहले जमानेमें "चंद्रावती" नगरी आबादथी । राजा भीमके सेनापति बिमलशाह मंत्री राजा से नाराज होकर यहां आकर द्वादश छत्रपति राजा हुएथे। और-आबुके जैन मंदिर उन्होंने यहाँ रहकर ही ब. नवाये थे. चौलुक्यकुलतिलक कुमारपाल जबरणथंभोरपर चढाई लेकर गये तब यहां के राजा सामन्तसिंह ने अन्तर्दिष्ट-और मुखेमिष्टवाली कपट जाल फैलाकर सोलंकी राजाका नाश करना चाहा था-परंतु-कुमारपाल अपनी दीर्घदार्शितासे उसके उस प्रपंचको जान गयाथा । आते हुए उसने सामंतसिंहको पुण्यका चमत्कार बतला कर सत्य रूपसे समझा दिया था कि-" यस्य पुण्यं बलं तस्य"
इस चंद्रावतीका रहोस उदयन नामक शाहुकार जो घीका व्यापारी था. फिरता फिरता खंभात चला गया. वहां उसको अछे शकुन हुए । थोडे अरसेमें सिद्धराजकी तर्फसे वह सरकारी नौकर बनाया गया।
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क्रमशः एक समय ऐसा भी आगया कि गुर्जरपति सिद्धराज के वो पूर्ण विश्वास पात्र मंत्री बन गये। सिद्धराजकी मृत्यु के पीछे वह, कुमारपालके भी वैसे ही मानीते मंत्री बने रहे । कुमारपालका इनपर बडा भरुसा था । बल्कि सिद्धराज जयसिंहकी तीत्र इच्छा इनके लडके चाहडको राज्य देनेकी होनेपर भी यह नर रत्न कुमारपालको राज्य दिलानेमें और संकट ग्रस्त कुमारपालकी जान बचानेमें पूरे पूरे मददगार थे । सोरठ देशके समर राजासे लडने वास्ते फौज दे कर कुमारपालने इन्हे सौराष्ट्र भेजा था। उसे कथाशेष कर-और उसके लडकेको उसकी गादीपर बैठाकर उदयन मंत्री पीछे लौट रहे थे कि-रास्तेमे उनकी तबीयत बहुत बिगड गई। अनेक उपाय करनेपर भी उन्हें कुछ आरामन हुआ । उन्होंने जब जाना कि मेरा यह अवसान समय है तब अश्रुपात कर रो पडे : पास के लोगोंने उनको अनेक तरहसे आश्वासन दिया। तब वह बोले मैं मरनेके भयसे नहीं रोता, मेरे निर्धारित चार काम शेष रह जाते हैं और मेरी जीवनदोरी समाप्त होती है !! परंतु इसमें किसीका भी उपाय नहीं ।
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[२५] पासके लोगेांने पूछा आप कृपाकर उन क मांका नाम बताओं हम राजासे और भट्ट आपके पुत्रोंसे पूर्ण करायेंगे । मंत्रीने कहा-मैं चाहताथाकि-आम्रभट्ट ( अंबड ) को दंडनायक की पद्वी दिलाउं। १ । दूसरी मेरी इच्छाथी कि-श्री शत्रुञ्जयतीर्थका उद्धार कराउं ॥ २ ॥ तीसरा मेरा मनोरथ थाकि गिरिनार तीर्थकी पौडियां बनवाउं ॥ ३ चौथी मेरी उत्कट कल्पना यह थी कि जब कभी मेरा मृत्यु हो उस वक्तमैं अपने अंत्यसमयकी आराधना मुनि महाराजके सामने करूं और उन महात्माओंके सन्मुख आलोचना करके अपने इस भारी आत्माको हलका करूं ॥ ४॥ इन चार कार्यों में से एक कीभी सिद्धि न होनेसे मैं अपने हताश आत्माको धिक्कार कर रो रहा हूं !
पास बैठे हुए मंत्री लोग बोले आप निश्चित रहें पहले ३ कार्य तो आपका सुपुत्र वाहड करेगा।
और आलोचना के लिये हम साधु महाराजकी तलाश करते हैं। देखने से ( मालूम हुआ कि इस जंगलमें मुनि राजकी योगवाइ तो मिल
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[ २६ १ नही शकती । उस वक्त उन्होंने साधु धर्म के जानकार और धर्म के रहस्य के भी ज्ञाता किसी नौकरको थोडे अरसे के लिये साधुका वेष पहना कर मंत्री राजके सामने बुलाया, साधुको देख उसे गौतमावतार मान कर अशक्तिकी हालत में भी मंत्रीको इतना हर्ष हुआ कि वह उठ कर उस कल्पित सुनि के पाओं में जा गिरा । और सारे जन्मके किये पा पोंकी निन्दा आलोचना कर सद्गतिको माप्त हुआ उस कल्पित साधुने जब देखाकि राजमान्य मंत्री मेरे पाओं में पड़ा है तो उसे उस मुनि वेषपर बडा सद्भाव आया । उसने उस वेशको न छोड गिरिनार पर्वतपर जाकर साठ उपवासका अनशन कर अपना कार्य साध लिया.
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मंत्री अंत्य कार्यको करके पाटन आये हुए उन लोगों से पिताकी मृत्यु सुन कर लडकोंने अ सीम दुख मनाया और निज पिताको ऋण मुक्त करने के लिये - बाहडने शत्रुंजय उद्धार कराया और अंबडने गिरिनारकी पौडियें बंधाई (देखो मेरा लिखा कु. पा. च. हिन्दी । बाहडने - शत्रुंजय और
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[ २७ ] समली विहारका उद्धार कराया - इसका वि. व. भी कु. पा. च. से ज्ञात हो सकता है. )
सुना जाता है कि - कुमारपाल गिरिनार तीर्थ पर गये - परंतु रास्ता विषम होने से वह यात्रा न कर सके । राज सभायें उन्होंने एक समय यह प्रश्न किया कि गिरिनार तीर्थपर पौडियें बनानेका हमारा मनोरथ कौन पूरा कर सकता है ? इस पर किसी कविने आश्रमकी वडी योग्यता-धर्म निष्टाक्रिया कुशलता-संसारविरक्तता - शासनप्रियता आदि गुणों का परिचय कराकर कहा " धीमानाम्रः स पद्यां रचयतुमचिरादुज्जयंते नदीनः " ( देखो द्रौपदी स्वयंवर नाटक )
उवदेश तरंगिणीमें बाहड मंत्री - जोकि अंबेडका भाइ था उसके द्वारा इस कार्यका होना लिखा है.
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यतः
त्रिषष्टिलक्षद्रम्माणां, गिरिनारगिरौ व्ययात् । भव्या वाड देवेन,
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[ २८ ] पद्या हर्षेण कारिता ||१||
सुना जाता है कि, एक दिन भट्टारक श्री हीर विज रिजीको गुरु महाराजकी तर्फ से एक पत्र मिलाउसमें लिखा हुआ था कि इस पत्रको पढकर तुरंत विहार करना । उस दिन श्री विजय हीरसूरिजी के बेलेकी तपस्या थी तोभी गुरु महाराजकी आज्ञाको मान देकर फौरन विहार किया और - पारणाभी गामसे वाहिर जाकर किया ! ! संघने यह भक्ति राग - और गुर्वाज्ञाका सन्मान देखकर एक आवा जसे श्री जिनशासनकी और शासनाधार सूरिजी की प्रशंसा की ।
उसी विनयका यह फल था कि वह मुस्लमान बादशाह अकबरको अपना परमभक्त बनाकर उससे अहिंसा धर्मकी प्रवृत्ति करा सकेथे । और अपने लगाये दया धर्मके अंकुरोंको महान् सफलताओंके रूपतक पहुंचाने वाले अर्थात् - अकबर बादशाह के निखिल राज्यमें वर्षभर में ६ महीने तक जीवदया पलानेवाले विजयसेनमूरि शान्ति चंद्रऔर भानुचंद्र जैसे भक्त और समर्थ शिष्यों को
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[२९] तयार कर अपने सर्वांश परमभक्त परिवारकी शोभाको बढा सकेथे । और वादशाहकी तर्फसे आग्रह पूर्वक दिये हुए " जगद् गुरु" विरुदको पाकर जिनशासन सुरतरुकी शीतल छाया नीचे सहस्त्रों नही बल्कि लाखों मनुष्योंको शान्तिपूर्वक बैठा सकेथे । आप अढाई हजार साधु साध्वियोंके मालिक थे। पितातुल्य पुत्र प्रायः संसारके भाग्यवानों के कुटुम्बोंमें देखे जाते हैं। ___ आचार्य श्रीविजयसेनसरिभी बडे प्रभावक आर समर्थ थे । योगशास्त्रके आद्य श्लोकके सातसौ अर्थ करनेकी प्रतिभा इनकी हीथी । जैसी जगद्गुरु महाराजकी अपने गुरु विजयदानमूरिजीके प्रति भक्ति थी वैसीही विजयसेनमूरिजीकी अपने गुरु श्री विजय हीरमूरिजीके प्रतिथी । पंजाब देश के पाटनगर " लाहोर" में आपके दो चौमासे हुए । दूसरे चउमासेमे आपको समाचार मिलाकि-आपके गुरु महाराज सखत बीमार हैं ! तब आपका मन घबरा उठा । अपने गुरु महाराजके अंतिम दर्शनोंके लिये आपने वहांसें विहार किया। बडे शीघ्र प्रयाणसे आप
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[३०]
अमदावाद तक पहुंचे थे कि - जगद्गुरु महाराजका ऊनामें स्वर्गवास हो गया । आप ऐसे तो आस्तिक थे कि - दशवैकालिक सूत्रका स्वाध्याय किये विना अन्नपानी नही लेते थे । जाप करनेमें आपका वडा लक्ष्य था । सिर्फ नवकार महामंत्रका ही आपने साढे तीन क्रोड जाप किया था। दो हजार साधु साध्वी आपके आज्ञा वर्त्तिथे ।
त्याग वृत्ति तो आपकी इतनी उत्कृष्ट थी कि जैन धर्ममें प्रसिद्ध छ विगइयोंमेंसे दूसरी विगइ आप एक दिनमें कभी नहीं लेतेथे । अर्थात्-प्रतिदिन पांच विगइयोंका त्याग कर फक्त एकही विगइसें शरीरयात्रा चलाते थे ! ! !
इस आपके विशुद्ध उच्च जीवनका जैन जाति पर तो पढे उसमें आश्चर्य नहीं बल्कि जहांगीर बादशाह पर बडा प्रभाव पडता था श्री शनंजय और गिरनार पर आपको उत्कृष्ट भक्ति राग था । वि. वर्णन के लिये देखो ऐतिहासिक (सज्ञायवाला भाग १ ला । )
जहां अनेक जिनमंदिर पासपास हो उस
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[ ३१ ] स्थान ( मायः शिखर) के ड्रंक शब्द बुलाया जाता है । ऐसी टुंके श्री सिद्धाचलजीपर नव प्रसिद्ध हैं । गिरनारजीपर कितनी ट्रंके है ? किस किस टूकपर जिनमंदिर जिनप्रतिमाजी हैं ? इस विषयका पुष्टप्रसिद्ध प्रमाण इसवक्त हमारे पास मौजूद नही | तथापि - गिरिनार महात्म्य के लेखक ने जिन जिन ट्रंकेांके नाम लिखें हैं - उन महान् शासन प्रभावक, और शासनप्रेमियों के नाम हमभी दिमात्र लिख देते हैं । वाचकांकों जहां कहीं गलती मालूम दे 1 स्वयं सुधारकर वांचे, और हमे सुधारनेकी सूचना दें, ताकि किसी अन्य लेखमें उस सूचनाका सुबारा किया जाय ।
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ट्रंक - वस्तुपाल - तेजपाल मंत्री.
गुजरात देशमें - वल्लभीपुर- पंचासर- पाटणऔर धौलका - चावडा - चौलुक्य ( सोई हो) और वाघेलावंशीय राजाओं का राज्य करना प्रसिद्ध है । adoria के राजा वीरधवलके अमात्य वस्तुपाल -
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[३२] और उसका छोटा भाई तेजपाल दृढ जैनधर्मी थे । इन्हाने १२ दफा बडे समारोह के साथ श्रीशत्रुञ्जय तीर्थकी यात्रा कीथी । तेरवींवार श्री शत्रुञ्जयतीर्थकी यात्रा करनेको जा रहेथे कि-रास्तेमें काठियावाढ प्रान्तमें लींबडीके पास “अंकेवाली" गाममें वस्तुपाल देवगत होगए । वस्तुपालके बनवाये आबुके जन मंदिरोंको देखने के लिये सहस्रों कोसांसे लोग आते हैं। अंग्रेज लोग फोटो उतार २ ले जाते हैं । ___ गुजरातके प्रभावशाली राजा भीमके प्रधान मंत्री विमलशाहने अगणित द्रव्य खर्चकर यहां जैन मंदिर बनवायाथा और उस मंदिरमें महाराजा संप्रतिके समयकी मूर्ति पधराकर विक्रम संवत् १०८८ मे प्रतिष्ठा करवाईथी। ___ उस मंदिरको देखकर महामंत्री वस्तुपालने शोभन नामक कारीगर (जो कि-उसवक्त सूत्रधा. रोमे आला दरजेका हुश्यार समझा जाताथा ) उसकां वैसाही मंदिर बना देनेका फरमान किया शोभनने अपनी मातहदके २००० कारीगरोंको लगाकर अपनी निगाहबानी रखकर विमलशाह
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[ ५३ ]
शेडके बनवाये मंदिरके ठीक मुकाबलेका मंदिर तामीर कर दिया । मंदिर क्या बनाया ? मानोस्वर्गका विमान नीचे उतारकर रख दिया है। आज भी देखकर दिल खुश खुश हो जाता है । जैसा विमलशाह शेठका बनवाया मंदिर अवर्णनीय शोभाशाली है वैसाही वस्तुपाल तेजपालका मंदिरभी निहायत लायक तारीफ - और - अकलीम है । छत्तों - रंगमंडपमें और - मेहराबों में ऐसी ऐसी कारीगिरी की है कि- जिसका बयान जुवानसें नहीं किया जा सकता! जो जो वेलबूटे --कमलफूल - पुतलियां - गुलदस्ते बनाये हैं अच्छे अच्छे दीमागवाले कारीगर देख देखकर ताज्जुब होते हैं ।
वस्तुपालके बनवाये मंदिरकी प्रतिष्ठा विक्रम संवत् १२८९ फाल्गुन सुदि ८ को हुईथी। यहां सा शाह शेठका बनवाया मंदिर भी संसार भरमें दृष्टान्त भूत है परंतु हमारा मतलब वस्तुपाल के बनवाये मंदिरसें ही है, क्योंकि हम वस्तुपालके सत्कार्यो का वर्णन कर रहे हैं.
वस्तुपाल तेजपाल चरित्र | कीर्त्तिकौमुदी -
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[ ३४ ] सुकृतसंकीर्त्तनकाव्य । इन ग्रंथो में महामात्यके किये धार्मिक - नैतिक-स्वकल्याण - परकल्याण के कार्योंका सविस्तर वर्णन है.
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महा अमात्य - वस्तुपाल तेजपाल के किये शुभ कार्योंका संक्षिप्त वर्णन.
(१३१३) नवीन जिन मंदिर कराये । (३३००) जिन चैत्यों का जीर्णोद्धार कराया । (३२०० ) जैनेतर मंदिर बनवाये ।
( ५५० ) ब्रह्मशाला |
( ५०१ ) तपस्वि लोगोकी जगह तयार कराई । (५००) दान शालायें कराई ।
(९०४) धर्मशाला ( उपाश्रय ) बनवाये ।
(३०) कोट तयार कराये ।
(८४) सरोवर खोदाये ।
(४६४) वापी - बोली |
(१००) जैन सिद्धान्तो के भंडार किये ।
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[ ३५ ]
देश और धर्मकी रक्षा के लिये ६३ संाम किये।
(१३) तीर्थ यात्राएँ की । ।
( ४०० ) पानी पीने के स्थान बनवाये | जहां छाण कर पानी पिलाया जाता था
स्थंभनपुर में विचित्र युक्तियुक्त विविध रचना विशिष्ट ( ९ ) तोरण करवा ये जिनका निर्माण पाषाणसें हुआ हुआ था ।
( १००० ) तपस्वियों को उनकी योग्यताके अनुसार वर्षासन कायम कर दिये ।
वास्तु कुंभ वगैरह क्रिया के करनेवालों की भी (४०२४) वर्षासन बंधा दिये कि जिससे आनंदपूर्वक उनका निर्वाह होवे ।
अन्यान्य ग्रंथों में इनके सत्कायोंकों और तरइसे भी वर्णित किया है अर्थात् किसी किसी वस्तुका प्रमाण ज्यादा कमती भी लिखा है ।
[ देखो वस्तुपाल चरित्र श्री जैनधर्म प्रसारक सभा द्वारा मुद्रित ]
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[ ३६ ] [ विशेष परिचय-वस्तुपाल तेज:पाल ]
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शहर पाटणमे पोरवाड जातीमें अनेक जगत् प्रसिद्ध-उदार - गंभीर परोपकार परायण - नरपुंगव होचु के हैं । इस जातिमें आसराज नामके एक प्रसिद्ध मंत्री थे उनका आबु मंत्रीकी कुमारदेवी नाम कन्यासे व्याह हुआ था. चौलुक्य राजाओं की ओरसें उन्हे गुर्जर देशान्तर्गत " सुंहाला गाम बक्षीस था. आसराज कुछ अरसा पाटणमें रहकर पीछे मुहाले रहने लगे, वहां उनकों कितनीक संततिका लाभ हुआ. उन सब संतानोमें वस्तुपाल तेजपाल उनके प्रधान और अति प्रिय लडके थे । सुंहाला गाम में आसराजका स्वर्गारोहन हो गया तब वस्तुपालतेजपाल अपनी पूज्य माताकों साथ ले कर वढि - यार देशकी सीमाके गाम- मांडल में चले गये | वहां कुछ अरसे तक रहनेसें प्रजाका उनपर बडा प्रेम बढा । परंतु " अनित्यानि शरीराणि " यह सि द्धान्त तो त्रिलोकी भरमें व्याप्त है । कुछ अरसे के वाद अनेकानेक धर्म क्रियाओं द्वारा अपने मानव जीवन सफल और समाप्त कर मांडलमें ही कु
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( ३७ ] मार-देवीभी देव गत हो गई । मातापिताके अति असह्य वियोगसें विधुरित मंत्रीरान अल्प नीरस्थ मी. नकी तरह-आकुलव्याकुल हुए हुए दिन गुजार रहे थे कि श्रावण के मेघकी तरह धर्म नीर के वरसानेवाले श्री नयचंद्र मूरिजी ग्रामानुग्राम विचरते हुए मांडल पधारे मंत्री प्रभृति श्रद्धालु लोगोंको मूरि राजका पधारना बडा लाभकारी हुआ कुछ दिनो तकके गुरु महाराज के संयोगसें दोनो भाइयोंका मन स्थिर हो गया । और प्रथमकी तरह वोह धर्म क्रिया प्र. वृत्ति करने लगे।
वस्तुपाल की ललिता देवी और तेजःपाल की अनुपमादेवी स्त्री थी जोकि-निहायत सुरूपा एवं सु. शीलाथी. उन दोनोमें-दान देना-देवगुरुकी भक्ति करनी-धर्माराधन करना और त्रिविधयोगसें अपने अपने प्राणनाथ पतिकी भक्तिका करना-यह अनन्य साधारण और लोकप्रिय गुण थे।
नयचंद्रमूरिजी निमित्तशास्त्रमे बडे ही प्रवीण थे । उन्होने उन भाग्यवानोंका भावि महोदय देख. कर श्री सिद्धाचलनीको यात्रा करने का अर्थात् श्री
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[२८] शत्रुजय महातीर्थ के संघ काहनेका उपदेश दिया. अमात्य संघ लेकर पालीताणे गये आचार्य महाराजके सतत परिचयसें उनकी धर्म भावना और भी परिपुष्ट हो गई।
जब वह लौट कर पीछे आये तब गुर्जर पति वीरधवलने उन्हे अपने मंत्री पदपर प्रतिष्ठित कर लिया।
अनेक इतिहासकार लिखते हैं-कि-वनराजके पिता जयशिखरी के मारनेवाले कनोजके राजाभूवडने गुजरातकी राजधानी-जयशिखरो के मरनेके बाद अपनी लडकी मिल्लण देवीकी शादी के वक्त उसे उसके दायजेमें दे दीथी, मिल्लग देवी या. वज्जीव तक गुजरातकी आमदनी खाती रहो अंत्यमें मर कर उसी अपनी पूर्वभवती इष्ट राजधानीकी अधिष्टायक देवी हुई। उसने भाविकालमें म्लेच्छोंके आक्रमणसें गौर्जर प्रजाको बचाने के लिये वीर धवलको स्वममें आकर-वस्तपाल तेजपालको अपने अमात्य बनानेका उपदेश किया.
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[ ३९ १
" सुकृतसंकीर्त्तन " काव्यमें लिखा है किकुमारपाल राजाने अपने राज्य - वंशधरोंकी और पूर्वकालमें पुत्रसम पालनको हुई गुर्जर भूमीकी म्लेच्छो रक्षा कराने के लिये- देव भूमिसें आकर वीरधवलको उपदेश किया कि - राजधानीकी रक्षाके लिये इन भाग्यवान को अपने मंत्री बनाओ । मतलब इतना तो उभयतः सिद्ध है कि देवकी सहायतासे वस्तुपाल बंधु सहित मंत्री पदपर प्रतिष्ठित हुए । मंत्रियुग्मने - दानशाला - धर्मशाला पौषत्र शाला - पाठशाला - वांचनशाला गौशाला - स्त्रीपुरुint शिक्षणशाला वगैरह हजारों लाखो धर्मकार्य कर कराकर इस मानव जीवनको सफल किया । मेरे पास " गिरिनार तीर्थोद्धार प्रबंध नामका एक प्राचीन पुस्तक है, उसमें ' रत्न श्रावक के किये श्री गिरिनारतीर्थ के उद्धारका वर्णन है और प्रसंग वस्तुपाल तेजपालके किये सत्कार्योकी नामावली है उससे और कीर्तिको मुदिसे एवं " फार्वस साहिब " की बनाई रासमालासे वस्तुपालकी बहुत अपूर्व चर्याका अवबोध
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[ ] होता है। वस्तुपालने जैसे आबु तीर्थपर मंदिर बनवाये थे ऐसे गिरिनारपर जो जिन मंदिर बनवाये हैं उनको " वस्तुपाल तेजपाल की हूँ" कहते हैं इस टूकभे मूलनायक श्री पाश्वनाथ स्वामीकी प. तिमा है और उस प्रतिमाजीको प्रतिष्ठा विक्रम संवत्१३०६ में आचार्य श्री प्रद्युम्न मूरिजी के हाथसें हुइ है । वस्तुपाल चरित्र के छठे प्रस्तावमें कितनेक धर्म स्थानोके नाम भी दिये हैं जोकि इन दोनो मंत्रियोंने गिरिनारपर तयार कराये थे-इन भाग्य. चानांका यह सिद्धान्त थाकि-" सति विभवे संच. यो न कर्त्तव्यः" किसी फारसी शायरने लिखा है" बराय निहादन च संगोचजर" ] जो दौलत एकठी करके जमीनमें डाली जाती है उसकी अपेक्षा पत्थर अच्छे, क्योंकि-जब जरूरत पडेगी पत्थर तो किसी काम आ जायेंगे मगर यह दौलत जो जमीनमें गाडरखी है किसी दरकार न आयगी.
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वस्तुपाल तेजपाल के गिरिनारपर बनवाये
धार्मिक स्थानोंको नामावली
" वस्तुपाल विहार " नामका श्री आदीश्वर भगवानका विशाल मंदिर । आदोश्वर प्रभुको प्रति. मा । श्री अजितनाथ श्री वासुपूज्य-घामोको पतिमायें । अंबिका माताकी मूर्ति । चंडप नामक अपने प्रपितामह -परदादाकी मूर्ति । श्री वीर परमात्माकी प्रतिमा । वस्तुपाल और तेजपाल को दो मूर्तियें । अ. पने पूर्वजोंकी मूर्तियों के साथ श्री सम्मेतशिखरकी रचना । अपनी माता-कुमारदेवी, और अपनी ब. हिनकी मूर्तियों सहित श्री अष्टापदजीकी रचना कराई । तीनही मुख्य मंदिरोंपर तीन कीमती तोरण बंधाये । श्री शत्रुजय तीर्थ के रक्षक गोमुख यक्षका मंदिर बनवाया । हाथीकी सवारी सहित माताको मूर्ति । श्री नेमिनाथ स्वामी के चैत्यके तीनही दाजोंपर बहुमूल्य तोरण-बंधाये । उसमंदिरकेदक्षिण उत्तर विभागों में पिताकी और दादाको मू लिये बैठाई।
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[४] अपने पूज्य माता-पिताके कल्याण के लिये श्रीशा. न्तिनाथ स्वामी-श्री अजितनाथ स्वामीकी कायो. त्सर्गस्थ दो मूर्तिये स्थापन कराई । मंदिरके मंडपमें -भव्य-मनोहर इन्द्र मंडप बनवाया-श्री नेमिनाथ स्वामीकी मुख्य प्रतिमा सहित-अपने पूर्वजोंकी मूर्तियोंवाला दर्शनीय मुखोद्घाटनक स्थंभ करा. या । अपने पिता आसराज की और दादा सोमराजकी घोडेसबार मूर्तियें करवाई । अपने पूर्वजोंकी प्रतिकृतियोंके स.थ सरस्वती माताकी त्र्ति आर देव कुलिकाएँ तयार कराई ।अंबिका माता के मंदिर के आगे विशाल मंडप बनवाया। अंबिका माताकी मूर्तिका परिकर तयार कराया।
परम तेजस्वी तेजपाल ने अपने कल्याण वास्ते कल्याणत्रितय नामका श्री नेमिनाथ प्रभुका चैत्य-संगमरमरकी मुफैद फटि जैसी शिला. ओंसें बंधाया, और उस मंदिर के शिखरपर-सातसा चौसठ गयाणे सुवर्णका कलश चढाया । और भी अनेक मूर्तियें भराई । प्रपाएँ लगवाई । भगवत् प्रतिमाओं की पूजाके लिये पुष्प बाटिकाएँ
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[ ४३ ] लगवाई इत्यादि सत्कार्य कि जिनका विस्तार करनेमें एक बडा ग्रंथ तयार हो सक्ता है.
ट्रंक - संग्राम सोनी
आचार्य बुद्धि सागरजीने “ जैनोकी प्राचीनअर्वाचीन स्थिति " नामक पुस्तकमें वनियोंके ८४ गोत्र लिखे हैं. उसमें सोनी गोत्रका भी उल्लेख है. आज भी इस गोत्रके लोग मंदसोर मालवा में गुजरात के कितनेक शहरोंमें, काठियावाड के जेतलसर आदि गाम में विद्यमान हैं ।
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मुनि विद्याविजयजी संशोधित - ऐतिहासिकसझायमाला नाम ग्रंथ में लिखा है कि- सोम सुंदर सूरि के उपदेश मांडवगढ के रहीस संग्राम सोनीने अनेक धर्मकार्य किये थे. आचार्य महाराजके मांडवगढ में चौमासा कराकर उनसे पंचमांग श्री भगवती सूत्र सुनना शुरु किया था - जहां जहां गो यमा ! यह पद आता था संग्राम सोनी एक सुवर्ण मुद्रा (सोनामोहर) भेट किया करता था. छत्रीस
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[४ ] हजार जगह उसने उतनी ही अशरफियें भेट रख कर संपूर्ण भगवती सूत्र सुना । अठारां हजार उसकी माताने । नौहजार उसकी स्त्रीने इस प्रकार एक कुटुंबके ३ श्रद्धालुओंने ६३००० मोहरें चढाई थी। उस ज्ञान द्रव्यमें १ लाख ४५००० सोने मोहरे और भी मिला कर वह सब रकम उन्होने सोनहरी अक्षरोंसे कल्यमूत्र-और कालिकाचार्य कथा की प्रतियोंके लिखाने में लगाई थी।
यह महान्-प्रशस्य कार्य उन्होने विक्रम संवत् १४७१ में किया था। और प्रतियों वांचने पढने योग्य बडे बडे ज्ञान भंडारोमे रख दीयो । तपगतछाचार्य श्री सोम सुंदर सूरिजोका जन्म-वि. सं. १४३० माघ वदि १४ के दिन पालणपुर (गु. जसत) में सज्जन शेठकी माल्हण दे नामक स्त्रीसें हुआ था. मूरिजीने सिर्फ ७ ही वर्ष की उमरमें श्री 'जयानंदमूरिजी के पास दीक्षालो थी। १४५० में वाचक पद-और १४५७ में इनको आचार्या दमिला था।
[ इस आचार्य भगवान् के परिवार के परि.
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चय के लिये--मेरे लिखे “दान कल्प द्रुम" के संस्कृत उपोद्घातको देखनेकी जरुरत है ) गिरिनार माहात्म्यके लेखक मि. दौलतचंद बी. ए. ने जेम्स वर्जसका प्रमाण लिखकर संग्राम सोनीकों दिल्लीपति बादशाह अकबरका समान कालीन ब. तानेकी कोशिश की है और लिखा है कि संग्राम सोनी शहर पाटणका रहनेवाला था बादशाह अक. बरका बडा सन्मान पात्र था, इतनाही नही बल्कि शहनशाह अकबर संग्राम को " चचा" कहकर बुलाया करता था । इसमे सत्य गवेषणाके लिये उनके लिखाये ग्रंथ-और उनकी भराई जिन प्रतिमाओंके लेख ही बस हैं. देखिये संग्राम सोनीके विषयमें पूर्वाचार्य
क्या लिखते हैं। श्री उदयवल्लभसूरीश्वरपट्टे श्री ज्ञानसागरमूरि. गुरवः कथं भूताः ? सत्यार्थाः, श्री विमलनाथचरित्र प्रामुखानेक नव्यग्रन्थलहरीमकटनात् सार्थकाता येषां
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[१६]
श्री ज्ञानसागरसूरीणां मुखार मंड पदुर्गनिवासो व्यवहारिवर्यः पातशाहि श्री खलवो महिम्मद ग्यास दीन सुरत्राण प्रदत्त नगदलमलिक विरुदधरः साधु श्री संग्राम सौवर्णिक नामा सवृत्ति श्री पंचमांगं श्रुत्वा गोयमेति पति पदं सौवर्णटंककममुचत् । पत्रिंशत्सहस्र प्रमाणाः सुवर्णटंककाः संजाताः। यदुपदेशात्तद् द्रविणव्ययेन मालव के मंडपदुर्गप्रभृति पतिनगरं गुर्जरधरायामणहिल्लपुरपतन-राजनगरस्तंभतीर्थ-भृगुकच्छ प्रमुख प्रतिपुरं वित्कोशमकार्षी. त् । पुनर्यदुपदेशात्सम्यक्त्व सदारसंतोषावालि · वान्तःकरणेन वन्ध्याम्रतरुः सफलीचक्रे । तथाहि
एकस्मिन् समये सुरत्राणो वनक्रोडार्थमुद्यान जगाम । तत्रैको महाम्रतरुष्टः । श्री शाहिस्तत्र गन्तुमारयः । तदा केनचित्योक्तं महारान मात्र गंतव्यमयं वन्ध्य वृक्षः ! तदा शाहिना प्रोक्त पे चेतर्हि मूलादुच्छेदयध्वं । तदा संग्राम सौर णिकेनोक्तं, ससामित्रयं. वृक्षो विज्ञपयति यययमागामिकवर्षे न फलिष्यति तदा स्वामिने यद्रोचते तत्कर्तव्यमिति । पुन: शाहिना मोक्तपत्राधि
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कारेकः प्रतिभूः ? संग्रामसौवर्णिकेनोक्ताहमेव शाहिनोक्तं त्वं प्रतिभूःपरं यद्ययं न फलिष्यति तदा तव किं कर्तव्यम् ? साधुनोक्तं यदस्य वृक्षस्य क्रियते तन्ममेति श्रुत्वा श्रीशाहिना आत्मीयास्तत्र पंच नराः स्थापिताः । तेषामुक्तं नित्यं विलोक्यमयमानस्य किं करोति । अथः संग्रामसौवर्णिकस्तत्रनिपमा. गत्य स्वपरिधानवस्त्रांचलप्रक्षालनजलेन तमानं सिं. चतिस्म, वक्ति च, अहो आम्रतरो ! यद्यहं स. दारसंतोषव्रते दृढचित्तोऽस्मि तदा त्वयाऽन्या. प्रेभ्यः प्रथमं फलितव्यं नान्यथेति । एवं षण्मासं यावत् सिक्तः । इतश्च वसनातुरायातः तदा पूर्वमयमानः पुष्पितः फलितश्च । तत्फलानि सौवर्णिकसंग्रामेन श्री शाहेः पुरो दौकितानि । श्री शाहिनोक्तं कानीमानि फलानि ? श्री साधनोक्तदानस्यति श्रुत्वा श्री शाहिना भृशं नराः पृष्टाः तैर्यथावृत्तं सर्व निगदितं, तत् श्रुत्वा परमचमत्कारमाप्तेन श्री शाहिना अनेकनररत्नभूषितायां सभायां सर्वजनसमक्षं भृशं संग्रामसौवर्णिकः प्रशंसितः सप्त कृत्वः परिधापितश्च । अत्युत्सव पुरस्सरं गृहे प्रेषितः । ततः
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सर्वत्र संग्रामसौवर्णिकस्य यशः पस सार । असौ संग्रामसोवर्णिकः षड्दर्श नकरात भूव तथा गु. जरघरा निवासी कश्चिदानन्मदरिद्रो विषः संग्राम सौवर्णिकं दानशौण्डं श्रुत्वा मंडरा र्गमाजगाम, तत्र व्यवहारि समायां स्थिता संग्राम सौषणिकस्य सपिकमियाय दत्ताशीदत्तत्र स्थितः । सौवर्णिकेनोक्तं द्विजराम ! समागतं ? तेनोक्तं क्षीर। निधे स्थोऽस्मि, तेन भवनामांकितं लेखं दत्वा
पितोऽस्मि । व्यवहारिभिरुक्तं देहि लेख वाचयस्वेति च तेनोक्तं-तद्यथा " स्वस्ति प्राचीदिगन्तामचुरमणिगगै भूषितः क्षीरसिन्धुः क्षोण्यां संग्रमरामं सुख यति सततं वाग्मिराशीयुताभिः । लक्ष्मीरस्मत्तनूजा प्रवरगुणयुता रूपनारायणस्त्वं, कीवासक्तिभावाअणमिव भवता मन्यते किंव दामन ॥ २॥ इति श्रुत्वा संग्राम सौवर्णिकः सर्वांगा भरणयुत लक्षदानं ददौ । ततो विप्र इतस्ततो वि. लोकितुं लग्नः। तदा व्यवहारि भिरुक्तं किं बिलो कयसि ? तेनोक्तमाजन्ममित्रं दारिद्रय विलोकयामि, हामित्र क मतोसीति कृत्वाञ्चकार । पुनरुक्तं हुं ज्ञातं
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सभ्याः श्रूयतां-" यो गंगामतरत्तथैव यमुनां यो नर्मदां शर्मदां, का बार्ता सरिदम्बुलंघनविधेर्यश्चा. ण तोगवान् । सोस्माकं चिरपंचितोपि सहसा श्री रूपनारायण ! त्वदानांबुनिषिप्रवाहलहरीमग्नो न संभाव्यते ॥ २ ॥” इति श्रुत्वापि श्री सौवानको पुनर्लक्षं दापितवान् । वृद्ध पौशालीय पट्टायलो
श्री उदय वल्लभ सरिके पट्ट पर श्री ज्ञान सागर मूरि गुरु हुए, जो कि सत्यार्थ थे और जिन्होंने श्री विमलनाथ चरित्र, आदि अनेक नवीन ग्रन्य समूह के प्रकट करने से अपने नामको सार्थक कि. याथा। जिन श्री ज्ञानसागर मूरिके मुख से-बाद: शाह श्री खिलवो महिम्मद ग्यास दीन सुलतान की दी हुई नगदल मलिक पदवीको धारण करनेवाले, मांडवगढ के निवासी तथा व्यवहारियां में श्रेष्ठ शाई श्री संग्राम सोनीने वृत्ति सहित श्री पञ्चम अङ्ग
भगवती ) को सुनकर " गोयमा " इस प्रत्येक पद पर सुवर्णकी मुद्राएँ रखी थी इस प्रकार छतीस सहस्र सुवर्णकी मुहरें हो गई, और जिनके उपदेशसे ( उन्होंने ) उस द्रव्य के व्ययके द्वारा
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[ ५० ] मालवा देशमें मांडवगढ़ आदि प्रत्येक नगरमें तथा गुजरात भूमिमें अणहिलपुर पाटन अहमदाबाद, खंभात तथा भरुच आदि प्रत्येक नगरमें ज्ञानभंडार करवाये । फिर जिनके उपदेश से सम्यक्त और स्वस्त्री सन्तोष व्रत से विशुद्ध मन हो कर जिन्होंने फल न देनेवाले आम्रवृक्षको सफल किया । देखो ।
किसी समय सुलतान वनक्रीडा के लिये उद्यानमें गये, वहां उन्होंने एक वडे आम के वृक्षको देखा, बादशाह जब वहां जाने लगे तो किसी ने उनसे कहा कि महाराज ! वहां मत जाइये, क्योंकि यह वृक्ष निष्फल है, तब बादशाहने कहा कि यदि यह बात है तो इस (वृक्ष) को मूलसे ही कटवा डालो, तब संग्राम सोनीने कहा कि हे स्वामी ! यह वृक्ष सू चित करता है कि - यह आगामी वर्षमें फल न देवे तो स्वामीको जो अच्छा लगे सो करें, फिर वादशाहने कहा कि इस काम के लिये जमानत देनेवाला कौन है ? तब संग्राम सोनीने कहा कि मैं ही हूं, बादशाह बोला कि तुम जुम्मेवार तो हो परन्तु यदि यह वृक्ष फल न देगा तो तुम्हारा क्या
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रख दिया तथा प्रतिदिन देखते
[ ५९ ] किया जावेगा ? शाहने कहा कि जो इस वृक्षका करें वही मेरा भी करें, इस बातको सुन कर बादशाहने वहां अपने मनुष्योंको उनसे कह दिया कि तुम लोग रहना कि यह ( शाह ) आम्रवृक्षका क्या करता है। इसके बाद संग्राम सोनी प्रतिदिन वहां आकर अपने पहिरनेके वस्त्र के धोनेके जलसे उस आम्र वृक्षको सींचने लगा तथा उससे यह भी कहता रहाकि - हे आम्रवृक्ष यदि मैं स्वस्त्री - सन्तोष - व्रतमें दृढ चित्त हूंतो तुमको दूसरे आम्र वृक्षांसे पहिले फलना चाहिये, नहीं तो खैर । इस प्रकार उसने उस वृक्षको ६ मास तक सींचा और इतनेमें ही वसन्त ऋतु आ गया, तब यह आम्रवृक्ष ( और gaint अपेक्षा ) पहिले ही फूला और फला संग्राम सोनोने उसके फलेको वादशाह के सामने उपस्थित भेट कर दिया, बादशाहने कहाकि ये किस जागाके फल हैं ? तब शाहने कहा कि उस आम्रवृक्षके यह फल हैं, इस बातको सुन कर बादशाहने उन मनुष्यों से सब बात पूछी, तब उन लो
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गांने सब वृत्तान्त यथावस्थित ज्यों कात्यों कह दिया, यह सुन कर श्री बादशाहने अत्यन्त चमस्कृत हो कर अनेक नर रन्नोसे अलङ्कत सभामें सब लोगोंके सामने संग्राम सोनीकी अत्यन्त प्रशंसाकी, सात वार उनका परिधापन किया अर्थात् सात खिल्लतें सिरोपाव दिये तथा अति उत्सव साथ उन्हें घर भेज दिया, तदनन्तर संग्राम सोनी. का यश सर्वत्र फैला।
संग्राम सोनी पड् दर्शनों में कल्पतरुके समान थे, जैसे कि-गुर्जर भूमिका निवासी कोई ब्राह्मण जन्मसे ही दरिद्र था वह संग्राम सोनीको दान शूर सुन कर मांडवगढमें आया और व्यवहारियांकी सभामें बैठे हुए संग्राम सोनीके पास पहुंचा, आशी. वदि देकर वहां बैठ गया, सोनीने कहा कि हे विप्रराज । कहांसे आये हो ? वह बोला कि-मैं क्षीर समुद्रका नौकर हूं, उसने आपके नामका एक लेख दे कर मुझे भेजा है, सोनीने कहा कि-बांचो, तब उसने लेखको इस प्रकार पहा स्वस्ति प्राची दिशा के अन्त भागसे. बहुत से मणिगणांसे शोभित
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क्षीर सिन्धु पृथिवी पर आशीर्वादसे युक्त वचनांसे निरन्तर संग्रामको सुख देता है । उत्तम गुणांसे विभूषित लक्ष्मी हमारी पुत्री है और तुम रूप नारायण हो, परन्तु कीर्तिों आशक्त होने के कारण आप लक्ष्मीको तृणवत् मानते हैं विशेष क्या कहें॥१॥ यह सुन कर संग्राम सोनीने अङ्कके सब आभूषणों सहित लाख रुपये दिये ब्राह्मण इधर उधर देखने लगा, तब व्यवहारिजनोंने कहाकि-वया देखते हो ?-बोलाकि-मेरा जन्मसे ही जो मित्र दारिद्र था उसे देखता हूं, हा मित्र ! कहां लले गये ? इस प्रकार कह कर पुकारने लगा, फिर बोलाकिहां मैंने जान लिया सज्जनों ! सुनो जोगङ्गा और यमुनाको पार कर गया था तथा जो कल्याणदायिनी नर्मदाके भी पार पहुंच गया था, नदियोंके जलके लांधनेकी तो उसकी बात ही क्या है जबकि वह समुद्र के भी पार पहुंच गया था, हे रुप नारायण । वह हमारा चिरसश्चित भी मित्र आपके दान समुद्रके प्रवाहकी तरङ्गोंमें एकदम इस प्रकार गोता लगा गया है कि मालूम भी नहीं पड़ता है।
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[ ५४ ]
इस बातको सुन कर श्री सोनीने फिर उसे लाख रुपये दिलवाये ।
ट्रंक - कुमारपाल भूपाल. सभ्य संसारको महाराज कुमारपालका परिचय दिलाना - सूर्यको दवा दिखानेकी उपमा है. कौन सा मनुष्य है जिसने इतिहासका थोडा बहुतभी ज्ञान प्राप्त किया हो । और कुमारपालसे अपरिचित हो ? परंतु हैं सृष्टिमें जैसे भी कतिपय मनुष्यकि जिन्होने अपने घरोंकी राम कहानियां सुन सुनही जीवनhi इतिश्री तक पऊंचा दिया है, उन विचारे प्रायः स्वसांप्रदायिक गोष्ठिप्रिय मनुष्यों की कर्णग aran इस कीर्त्तिमुदक यशस्वि राजाधिराजकी कथाका अंशभी उपकारी है, यह समझ कर सोलंकी कुल तिलक "उस त्रिभुवनपालक" महामंडलेश्वर-राजा कुमारपालका स्त्रला परंतु सर्व जनोपयोगि शब्दोंमे परिचय दिलाया जाता है.
प्रबंधचिन्तामणि से पता मिलता है कि वि.सं. १९२८ की चैत्र कृश्न सप्तमी सोमवार हस्तनक्षत्र और नमी
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[ ५५ ] लग्नमे कर्णदेव गुजरातकी गादी पर बैठाथा, कर्णदेवकी एक मीनलदेवी नामक राणीथी जोकि कर्णाटकके राजा जयकेशीकी लडकीथी, उसकी कुक्षीसें सिंह स्वमसूचित एक लडका जन्माथा उसका नाम उन्होंने स्वप्नानुसार जयसिंह रखाथा. जयसिंहकों कर्णदेवने वि. सं. ११५० पौष कृश्न तृतीया-शनिवार श्रवण नक्षत्र और वृष लग्नमें सिंहासन पर बैठायाथा. और खुद कर्णराज कर्णावती नयी नगरी वसाकर रहने लगाथा. राज्यारोहण के समय जयसिंहकी अवस्था ३ वर्षकी थी. .
कर्णदेवने २९-वर्ष ८ मास-२१ दिन राज्य किया था । सिद्धराज जयसिंहने ११५० में तख्तनशीन होकर ११९९ तक राज्य किया।
सिद्धराज जयसिंहके अवसानका साल संवत् प्रबंधचिन्तामणिकारने नहीं लिखा । यहां हमने जो उल्लेख किया है सो " राजावलि कोष्टक और प्रभावक चरित्रके आधारसे किया है।
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[ ५६ ] "द्वादशस्वथ वर्षाणां, शतेषु विरतेषु च । एकोनेषु महीनाथे, सिद्धाधीशे दिवंगते ।।
( देखो प्रभावक चरित्र पत्र ३९३.
कुमारपाल के गुणानुवाद जैन करें यह तो संगतही है परन्तु जैनेतर लोगांने भी इस भूपालकी कीर्तिके गायन करने में संकोच नही किया । कुमारपाल चरित्र द्वाश्रय जो महाराजा-गायकवाड सरकारकी ओर से प्रगट हुआ है, उसकी प्रस्तावना. में-सद्गत प्रोफेसर-मणिभाई नभुभाई द्विवेदीने लिखा है कि-"कुमारपाल ने जबसें अमारी घोषणा "-( जीवहिंसाबंद) की तबसें यज्ञयागमें भी मांस " बलि देना बन्द हो गया, और यव तथा शालि " होमनेकी चाल शुरु हो गई । लोगांकी जीव " उपर अत्यन्त दया बढी । मांसभोजन इतना" निषिद्ध हो गया कि-सारे हिन्दुस्थान ( बंगाल " -पंजाब-इत्यादि एक, या दूसरे प्रकार से थोडा " बहुत भी मांस हिन्दु कहलानेवाले उपयोगमें " लाते हैं परन्तु गुजरातमें तो उसका गंध भी लग
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[५७ ] " जाय तो झट स्नान करने लगजाते हैं । ऐसी " वृत्ति लोगेांकी उस समयसें बांधी हुई आज प. "यत चली जा रही हैं ).
( देखो कुमारपाल चरित्र हिन्दीकी-और कुमारपाल द्वाश्रयकी प्रस्तावना ).
राजस्थानके कर्ता-कर्नल-टोड-साहिब को चितौडके किलेमें राजा लक्ष्मणसिंडके मंदिर में एक शिलालेख मिला था. जो कि-संवत १२०७ का लि.
खा हआ था उसमें महाराज कुमारपालके वियों लिखा है कि-महाराजा कुमारपालने अपने प्रबल प्रतापसे सब शत्रुओंकों दल दिया जिसकी आज्ञाकां पृथ्वीपरके सब राजाओने अपने मस्तकपर चढाईथी। जिसने साकंभरी पति को अपने चरणों में नमाया था । जो खुद हथियार पकडकर सपादलक्ष (देश) तक चला गया था. सब गढ पतियोंको नमाया. था सालपुर ( पंजाब ) को भी वश किया था।
. (वेस्टर्न इंडिया टाड कृत ) फारबस साहिबने कितनेक कुमार पाल के समयके
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[ ५८] लेखांका उतारा लिया है जिसमें एकतो-मारवाड देशमें "बाहडमेर" गांवके ताबे हाथमोनीनामक गामसें थोडी दूरीपर "केराडु" गाम है, जोकि-बाडमेरसें थोडेसे कोसके फांसले पर है वहां जीर्ण मंदि-' रोके और घरोके खंडेरोमेंसे अनेक शिलालेख मिलते हैं मंदिरके एक थंभे पर-संवत् १२०९ माघ कृश्न चतुर्दशी-शनिवार का लिखा कुमारपाल के स. मयका लेख मिला है " उसमे कुमारपाल के सत्ता समयमे अभय दान दिलानेका अधिकार है जो किअष्टमी-एकादशी-चतुर्दशी इन ३ दिनोके वास्ते ३ गामेमें अमारी फैलानेका सूचक है लेख लंबा होनेसें यहां अक्षर अक्षरका उतारा न करके सूचना मात्र दी गई है।
जोधपुर के राज्यान्तर्गत ' रत्नपुर ' कोइ कसवा है उस गामकी पश्चिम दिशामें शिव मंदिरके घुमटमें एक शिला लेख है " उसमे" समस्त राज. विराजित-महाराजाधिराज-परम भट्टारक-परमेश्वर निज भुज विक्रम रणांगण विनिर्जित....
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[ ५९] .................... पार्वती पति वर लब्ध प्रौढ-प्रताप-श्री कुमारपाल देव-कल्याण विजय राज्ये इत्यादि विशेषणांसें सुशोभित लंबा चौडा लेख है और उसमे अमुक राजाकी राणीकी तर्फसें फरमान है कि अमुक-अमुक तिथियों को किसीने जीव हिंसा नहीं करनी अगर कोई जीव हिंसा करेगा तो उसको ४ द्रम्म-( अशर्फियें-) दंड किया जावेगा.
देखो-फार बस साहिबकी बनाई रासमाला खड पहला पृष्ट-३०१-३०२.
इस भूपालने जैसे शत्रुञ्जयतीर्थपर-तारण दुर्ग ( तारंगाजी) पर विशाल और उन्नत जिन चैत्य बनवाये थे वैसे प्रस्तुत तीर्थाधिराज श्री गिरिनार तीर्थपर जो चैत्य बनवाये थे उनको आज अपने कुमार पालकी ढूंकके नामसें पहचानते हैं, इन चैत्यांका निर्माण और इनकी प्रतिष्ठा विक्रम संवत् ११९९ से १२३० तक किसी भी सालमे हुई है क्योंकि-प्रस्तुत नरेशका सत्ता समय यह ही है ।
आपकी राजधानी अनहिलपुर-पाटन, भारतके
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[ ६० १
उस समय के सर्वोत्कृष्ट नगरों में से एक थी । समृद्धिके शिखर पहुंची हुईथी । राजा और प्रजाके सुंदर महालयोंसे तथा मेरु पर्वत जैसे ऊंचे और मनोहर देवभुवनोंसे अत्यंत अलंकृत थी । हेमचंद्राचार्यने ' द्वाश्रय महाकाव्यमें इस नगरीका बहुत वर्णन किया है, सुना जाता है । कि उस समय इस नगर में १८०० तो क्रोडाधिपति रहते थे । इस प्रकार महाराज एक बडे भारी महाराज्य के स्वा मी थे ।
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" आप जिस प्रकार नैतिक और सामाजिक विषयोंमें औरोंके लिए आदर्श स्वरुप थे, उसी प्रकार धार्मिक विषयों में भी आप उत्कृष्ट धर्मात्मा थे, जितेंन्द्रिय थे और ज्ञानवान् थे । श्रीमान् हेमचंद्राचार्यका जबसे आपको अपूर्व समागम हुआ तभी से आपकी चित्तवृति धर्मकी तरफ जुडने लगी । निरंतर उनसे धर्मोपदेश सुनने लगे। दिन प्रतिदिन जैनधर्म प्रति आपकी श्रद्धा बढ़ने तथा दृढ होने लगी। अंतमें संवत् १२१६ के वर्ष में शुद्ध श्रद्धानपूर्वक जैनधर्मकी गृहस्थ दीक्षा स्वीकार की ।
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[ ६१ ]
सम्यक्त्वमूल द्वादश व्रत अंगीकार कर पूर्ण श्रावक वने उस दिन से निरंतर त्रिकाल जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करने लगे । परम गुरु श्री हेमचंद्राचार्यकी विशेष रूप से उपासवा करने लगे । और परमात्मा महावीर प्रणीत अहिंसा स्वरुप जैन-धर्मका आराधन करने लगे । आप बडे दयालु थे किसी भी जीhi कोई प्रकारका कष्ट नहीं देते थे। पूरे सत्यवादी थे, कभी भी असत्य भाषण नहीं करते थे । निर्विकार दृष्टिवाले थे, निजकी राणीयोंके सिवाय संसार मात्रका स्त्रीसमूह आपको माता, भगिनी और पुत्री तुल्य था । महाराणी भोपल देवीकी मृत्यु के बाद आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत पालन किया था, राज्य लोभ से सर्वथा पराङ्मुखथे । मद्यपान, तथा मांस और अभक्ष्य पदार्थो का भक्षण कभी नहीं करते थे, दीन दुःखीयोंकों और अर्थी जनाको निरंतर अगणित द्रव्य दान करते थे । गरीब और असमर्थ श्राThis frर्वाह के लिए हरसाल लाखों रुपये राज्य के खजानेमेंसे देते थे । आपने लाखों रुपयोंको व्यय कर जैनशाखोका उद्धार कराया और अनेक
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[ ६२ ]
पुस्तक - भंडार स्थापन किये । हजारों पुरातन जिन मंदिरोंका जीर्णोद्धार कराकर तथा नये बनवा कर भारत-भूमिको अलंकृतकी । तारंगादि तीर्थ क्षेत्रों पर के, दर्शनीय और भारत वर्षकी शिल्प कलाके अद्वितीय नमूनेरूप, विशाल और अत्युच्च मंदिर आज भी आपकी जैनधर्म प्रियताको जगत् में जाहीर कर रहे हैं । इस प्रकार आपने जैनब के प्रभावको जगत् में बहुत बढाया । संसारको सुखी कर अपने आत्माका उद्धार किया एक अंग्रेज विद्वान् लिखता है कि - " कुमारपालने जैनधर्मका बडी उत्कृष्टतासे पालन किया और सारे गुजरातको एक आदर्श जैन - राज्य बनाया ।" आपने अपने गुरु श्री हेमचंद्राचार्यकी मृत्युसे छ महीने बाद १२३० में ८० वर्षकी आयु भोगकर, इस असार संसारको त्याग कर स्वर्ग प्राप्त किया "
[ कुमारपाल चरित्रकी प्रस्तावनासे उद्धृत ]
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[६३] (ट्रॅक संप्रति महाराज) श्री वर्धमान स्वामी के पट्ट प्रभावक प्रथम श्री मुधर्म स्वामी पांचवें गणधर और पहले पट्टधर हुए। पचास वर्ष गृहस्थाश्रममें रह कर तीस वर्ष प्रभुकी सेवामें व्यतीत करके श्री बीरपरमात्माके निर्वाण बाद बारां वर्ष छद्मस्ध और आठ वर्ष केवली अ. वस्थामें सर्व आयुः सौ १०० वर्षका पूर्ण करके वीर प्रभुके निर्वाणसे वीस २० वर्ष के बाद मोक्षगामी हुवे ॥१॥ उनके पाटपर जंबुस्वामी बैठे । जंबुस्वामीने ९९ कोटि सोनामोहरे छोड अप्सरा जैसी आठ स्त्रियोंका त्याग कर माता पिताकी आज्ञा लेकर सिर्फ सोला १६ वर्षकी छोटी उमरमें बाल ब्रह्मचारी पणे सुधर्म स्वामी के पास दीक्षा अंगीकार की। जंबुस्वामीने १६ वर्ष गृहस्यभावमें-बीस २० वर्ष व्रतपर्यायमें ५४ वर्ष युग प्रधान पदमें सकल आयु ८. वर्षका भोगकर श्री महावीरस्वामीके निर्वाणके बाद चौसठवे (६४) वर्ष मोक्ष पाप्त किया । ।
श्री जंबुस्वामीके पाटपर श्री प्रभवस्वामी वि
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[६४] राजमान हुए वह तीस वर्ष संसारमें और ४४ वर्ष दीक्षावस्थामें रहकर ११ ग्यारह वर्ष युग प्रधान पदमें रहकर ८५ वर्षका सर्व आयुः पूर्णकर प्रभु श्री महावीरस्वामीके निर्वाणसे ७५ वर्ष पीछे मोक्ष पधारे ।। - प्रभवस्वामीके पदपर श्री शय्यंभवमूरि बैठे और उन्होंने यज्ञकी क्रिया कराते हुवे यज्ञके स्थंभके नी. चेसे श्री जिनराजकी प्रतिमाको प्रकट कराकर आ. त्म श्रद्धासे दर्शन किये. उसीही प्रशस्त योगके ब. लसे उनको जैन दर्शनकी और चारित्र धर्मकी प्राप्ति हुई । प्रभवस्वामीने इन्हे प्रतिबोध कर अपना संयम श्रुत और आचार्य पद दिया पद परंपरासे शय्यंभव मूरिजी भगवान के चौथे पाटपर थे। आपने जब दीक्षाली उसवक्त आपके घर लडकेकी उमेद वारी थी आपके चारित्र लेने के बाद आपकी सांसारिक धर्मपत्नी से एक लड हा पैदा हुवाथा जब वह लडका अपने आपको अच्छी तरह समझने लगा तब उसको भी आपनें दोक्षित कर लिया। आपनें जब अपर्ने अपूर्व ज्ञान बल से लडकेके जीवित तर्फ उपयोग
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[६५] दिया तो सिर्फ ६ छः मासके बाद उसका काल दिखाई दिया आपने उस स्वतनुजमुनिका शीघ्र कल्याण करनेके लिये " श्री दशवैकालिक " सूत्र बनाकर उस होनहार बालकको पढाया । लडका उस सूत्रके अनुसार क्रियाको पालकर समाधि पूर्वक अनशन कर देवभूमिमें देव हुवा।
दशकालिक सूत्र दिन प्रतिदिन संयमी चारित्रपात्र साधु साध्वी वर्गको उपकारी होने लगा, और दुप्पसहमरि पर्यंत शासनको उपकारी होगा।४। __ श्री शय्यंभव मूरिजीके पाटपर श्री यशोभद्र सूरिजी बैठे यह आचार्य २२ वर्ष सांसारिकअवस्थामें रहके दीक्षित हुवे १४ वर्ष सामान्य पर्यायमें रहे ५० वर्ष युगप्रधानपद्वी पाकर ६२ वर्षकी उमरमें श्री मन्महावीर निर्वाणसे ९८ वर्षके बाद स्वर्गारुढ हुए ॥ ५ ॥
इनके बाद श्री संभूतिविजय भद्रबाहु दो पद धर आचार्य हुवे
श्री संभूतिविजयजी ४२ वर्ष गृहस्थावस्था चा:
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[ ६६ ]
लीस ४० वर्ष सामान्य पर्यायमें ८ आठ वर्ष युग प्रधानपनें रहकर ९० वर्षकी आयुः पूर्ण कर देव लोक गये। ____ भद्रबाहु स्वामी ४२ वर्ष संसारमें रहकर १७ सतारां वर्ष सामान्य पर्यायमें १४ वर्ष युगप्रधान पद्वी पालकर ७६ वर्षकी अवस्थामें माहावोर निर्वाण के १७० वर्ष बाद स्वर्गारूढ हुए ॥६॥ ___ इनके पाटपर श्री स्थूलिभद्रजी बैठे स्थूलिभद्र स्वामी ३० वर्ष गृहस्थ रहे २४ वर्ष सामान्य साधुपनेमें रहै, ४५ वर्ष युग प्रधान पदमें रहे ९९ वर्षकी उमरमें श्रीवीरपरमात्माके निर्वाणसे २१५ वर्षे स्वर्गारूढ हुए ।। ७ ॥
स्थूलिभद्रस्वामीके पाटपर आर्यमहागिरि और-आर्यसुहस्ति मुरिजी विराजमान हुए, आर्यमहागिरि बडे त्यागी थे प्रायः जंगलों में रहकर आत्मसाधन किया करते थे, जिन कल्प के व्यवछेद होनेपर भी उस कल्पकी तुलना किया करते थे ! __ आर्यमुहस्तिसूरिजी वस्तिमें रहतेथे परंतु बडे निर्लेप थे. बारांवर्षी दुष्कालमे किसी एक भिक्षा
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[ ६७ ] चरकों भिक्षा देकर आपने आपना शिष्य बनाया वह भिक्षाचर उत्तम भावसे एकही दिनका संजम पालकर कुणालका लडका संपति हुआ ।
वह भाविभव्यात्मा संप्रति कुमार जब युवान हुवा तब नगर में रथयात्रा के साथ फिरते हुए आर्यहस्ति सूरिजी को देखकर प्रतिबोधक प्राप्त हुआ.
जन्मान्तरीय गुरु शिष्य संबंध उसने जातिस्मर्णसें जान लिया. इसी ही लिये वोह आचार्य महाराजका पक्का उपासक बनगया. आचार्य महाराजने उसे जैन धर्मका स्वरूप समझाकर गृहस्था वस्थाके उचित धर्म से विभूषित किया ।
संप्रति नरेश वासुदेव न होकर भी त्रिखंडाधि पंति - अर्ध भरतभोक्ता अर्धसम्राट कहलाता था.
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॥ संप्रतिके किये शुभ कार्यों की सूचि . ॥
१२०५००० बारह लाख पांच हजार जिन प्रासाद बनवाये.
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[६८] एक क्रोड पचीस लाख नये जिन बिम्ब वनः वाये अनार्य देशोंमें जहां कि जैनधर्मको कोई नही जानता था वहां भी अपने निजके आदमियोंको भेज भेज कर धर्मकी प्रवृत्ति कराई। - कुछ अरसा पहले जब चिकागोमें एक सार्वजनिक महासभा संसार भरके धर्मनेता एकत्र हुए थे तब जैन धर्मके नेता समझ कर श्री महात्मारामजी महाराज को भी आमंत्रण आयाथा पूर्वोक्त सूरि श्री आत्मारामजी माहाराजने अपने धार्मिक अमूलांकी पाबंदीको मान देकर आप खुद न जाकर बैरिष्टर वीरचंद राघवजी गांधीको भेजाथा वीरचंद राघवजीने श्रीमान के सिद्धान्तोंको समझाकर और अनादिसिद्ध श्री जैनधर्म के तत्वोको बताकर उस देशके लोगोंको खुब धर्मप्रिय बना. याथा, गांधीजी जब लेक्चरों द्वारा उस देशको जैनधर्मकी पवित्रता एवं प्राचीनता समझा रहेथे ।
इतनेमें वहांके किसी शहरमें से श्री सिद्धचक्र जीका अती प्राचीन यंत्र मिला वो वीरचंद गांधीको दिखलाया गया, और पूछा के यह क्या चीज है ?
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[ ६९ ] खाने नौ ९ मालूम देते है और सब प्रायः घसा हुवा होनेसे समझमें नहीं आता गांधीजीने अपने पाससे सिद्धचक्र नवपदजोका मंण्डल दिखलाकर उन्हें समझाया कि यह अमुक चीज है इसी प्रकार अष्ट्रीयाके " हंगरी " नामक प्रांतके "बुदापेस्त" प्रसिद्ध शहर में किसी अंग्रेजके कुआ खोदते हुए, चरम तीर्थकर श्रीमन्महावीर स्वामीकी प्रतिमा निकतीथी
जैन इतिहास के अनुसार इन प्रदेशों में संपति नरेशका राज्य और जैनधर्मके सुचिन्ह प्रमाण सिद्ध है.
सारे सभ्य संसारका यह विश्वास है कि सन १४९२ ई० में " कोलंबस ” ने अमेरिकाका आविष्कार किया । पर यह मत भ्रमात्मक है | वहां हिन्दू और बौद्ध के बहुत पुराने चिह्न मिले हैं । दक्षिणी अमेरि काके "पेरु " नामक राज्यमें एक सूर्य मन्दिर है । इसकी मूर्तिका आधार उनाव (दतिया) के सूर्य्य मन्दिरकी मूर्ति से मिलता है । औरभी कई एक चिन्ह मिलते हैं। जिनसे बहुत पुराने जमाने में हिन्दुओंका वहां जाना साबित होता है.
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[ ७० ] प्रोफेसर जान फ्रायर अमेरिकाके ' हारपर्स' नामक मासिक पत्रभे एक लेख लिखकर यह बात साबित कर चुके हैं कि कपतान कोलम्बसके सैंकडे वर्ष पहले बौद्ध धर्म प्रचारक गण वहां गयेथे, और उन्होने बौद्धधर्म और एशियाई सभ्यताका प्रचार कियाथा।
हम कहते है वो सुर्य मंदिर नहीं परंतु जैनोका धर्मचक्रही क्युं न हो ?
पूर्वकालमें धर्मचक्र बनाये जाते थे और वोह देवमूर्तियों की तरह विधान पूर्वक मंदिरों में स्थाप-: न किये जाते थे ।
इस लेख के वाचन समम वाचक महोदय- पद्मासनासीन शान्तरसके विश्रोत एक परमयोगीकी प्रतिमा के देखेंगे, यह प्रतिमा उस जगत्पिताकी है कि जिसने अपने अशेष दुखको तिलाञ्जलि देकर संसार भरको अपने समान विद्वंद्व बनानेके लिये आत्मा मात्रको कल्याणका मार्ग बतायाथा, और अनादि कालीन अनंत जन्मोके परि दृढ बंधे हुए
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अष्ट्रीयाके अन्तर्गत हंगरी प्रान्तके बुदापेस्त शहर में एक अंग्रेज के बगीचे में खोदते हुये निकली हुई महावीरकी प्रतिमा.
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[७१] कर्मोका नाश करके अपने वीर महावीर जसे यथाथं नामोको सत्य कर बतायाथा. जैनसमाजका मंतव्य हैकि-धीरप्रभु के समयमे जैनधर्म बहुत थोडे क्षेत्रमे था. उनके निर्वाणके २३५ वर्ष बाद राजा अशोकके पौत्र संपति नरेशने उस धर्मका बहुत दूर तक फैलाव कियाथा अशोकने जैसे बुद्धधर्मका प्रचार करनेके लिये अपने लडके और लडकीको सीलोन (लंकामे ) भेज दिया था वैसे इस नृपतिने अपने विश्वासास्पद उपदेशकको अन्यान्य देशोमे भेजाथा. साथही यहभी जानना जरूरी है कि महाराज संपतिकी राज्य सीमासिर्फ भारत के अमुक देशनगरोमेही नही, किन्तु संसारके माय:त्येक खंडमे फैली हुईथी.
अब सवाल यहां यह होसकता है कि असे दि. ग्विजयी नरेशका जिकर अन्य सांप्रदायिक ग्रथोमे और संसारके लभ्यशिलालेखोमे क्यो नही. - पहली शंकाके समाधान के वास्ते हमको राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्दके लिखे वाक्यांका उतारा कर लेना हीका फी होगा उक्त विद्वानने हिन्दु
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[ ७२ ] स्थानका वर्णन करते हुए लिखा है कि- " राज्य इस देशका सदासे सूर्य और चंद्रवंश राजाओंके घरानेमें रहा. परंतु अगले समयके हिन्दु राजाओं का वृत्तान्त कुछ ठीक ठीक नही मिलता. और न उनके साल संवतका कुछ पता लगता है जो किसी कवियां भाटने किसी राजाका कुछ हाल लिखाभी है तो उसे उसने अपनी कविताकी शक्ति दिखलाने के लिये जैसा बढाया है कि अब सचको झूठसे जुदा करना बहूत काठिन होगया.
सिवाय इसके ब्राह्मणोने बोधराजाओं को असुर और राक्षस ठहरा कर बहुतों का नाम मात्रभी अपने ग्रंथो मे लिखना छोड दिया. और इसी तरह बौध ग्रंथकारोने इनके राजाओं का वर्णन अपनी पुस्तकोमें लिखना अयोग्य जाना तिसपरभी बहुतसे ग्रंथ अब लोप हो गये, बौधोंने ब्राह्मणोके ग्रंथ नाश किये. और ब्राह्मणोने बौधोके ग्रंथ गारद किये. मुसमानोने दोनोको मिद्दीमे मिला दिया. "
दूसरा सवाल यह भी हो सकता है कि - संप्रति राजाके नामका कोइ शिलालेख क्यो नही मिलता ?
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[७३ ] इसका समाधान यह है कि जैसे आज हिन्दुस्थानमे अनेक दानशील मनुष्य हैं बल्कि गिनती कीजाय तो हिन्दुस्थानमे प्रति वर्ष साठक्रोड रुपयेका दान होता है उनमे कितनेक उदार महाशय तो किसीकीभी आंखोके सामने दान नही करते और करके कभी कहतेभी नही. उनका कथन और मैं. तव्यहै कि
" यज्ञः क्षरति असत्येन, तपः क्षरति मायया आयुः पूज्याऽपवादेन. दानं तु परि कोर्त्तनात् ॥१॥ ___ अर्थ-असत्य बोलने से यज्ञका फल नष्ठ होजा. ता है, याया करनेसे अर्थात् दंभ-कपट-परवंचना करनेसे तपका फल हारा जाता है अपने पूज्य उप. कारी पुरुषांका अपवाद करनेसे अर्थात् उनको नि. न्दा करनेसे जिन्दगी घटती है और-दूसरे के पास प्रकाश करनेसे दूसरेके सामने अपनी बडाई करनेसे दानका फल अल्प होजाता है. यह समझकर कितनेक भाग्यवान क्रोडों रुपयाँका दान देते हुए भीनामवरीका लालच नही रखते. इससे मालम होता है कि संमति महाराजभी असीही वृत्ति के मनुष्य
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[७४1 थे सुनाजाता है कि नवाङ्गी टीकाकार अभय देवमूरिजीके संप्रदायमे शिलालेख लिखाना अनुचित समझा जाताथा.
कर्माशाह शेठके कराये श्री शत्रुनय महातीर्थके उद्धारके कार्यमे सर्व प्रकारके स्वतंत्र अधिकारों के होते हुएभी आचार्यश्री “विद्यामण्डग" मूरिजीने अपना नाम किसी शिलालेखमे दर्ज नही करवाया, दूर न जाकर वर्तमान युगकी विचारणा करते हुए मालूम देता है कि आजभी संसारमे जैसे मनुष्य है कि जो कार्य करके भीनामकी परवाह नही करते जोधपुर राज्यान्तर्गत कापरडा तीर्थ के उद्धारमे आचार्य श्री विजय नेमिमूरिजीने जोजो कष्ट सहन किये है सुनकर अनहद्द अनुमोदना आती है, परंतु उस तीर्थ पर उन्होने अपना नाम किसी प्रशस्ति मे नही लिखवा.
अब मुख्य बात यह है संपति नरेशके होने में क्या प्रमाण है ? उसके उत्तरमें इतनाही कहना हो गाकि संप्रतिके अस्तितमे जैन इतिहासही प्रमाणभूत हैं ! संसारमे जैसा कोई साहित्यक्षेत्र नही कि जिस
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[ ७५ ] मे जैनसाहित्यके अंगभूत जैन इतिहासका प्रचार
नही हो ।
यहां प्रसंगसे जैन जैतिहासिक ग्रंथोका परिचय करा देना उचित समझकर थोडोसे कथा ग्रंथोके नाम लिखे जाते हैं । वाचक महाशय उन्हे पढकर जरूर फायदा उठायेंगे ।
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(१) त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरित्र - इस के कर्त्ता आचार्य श्री हेमचंद्रसूरि है आपका जन्म विक्रम सं. ११४५ - निर्वाण १२३० ।
(२) दयाश्रयकाव्य - ( प्राकृत ) कलिकाल सर्वज्ञ श्रीमान् हेमचन्द्राचार्यने विक्रम सं. १२०० के क to इसकी रचना की है.
(३) द्वयाश्रयकाव्य (संस्कृत) उन्ही कलिकाल सर्वज्ञ श्रीमान् हेमचन्द्राचार्य की यह रचना है । इसकी रचना वि सं. १२१७ के आसपास हुई है
(४) परिशिष्ट पर्व - यह कृति भी उपर्युक्त श्रीमान् हेमचन्द्राचार्यजीकही है.
(५) की र्तिकौमुदी - इस काव्यका रचयिता सोमे
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[ ७६ ] वर भट्ट है- जोकि गुजरातके सोलंकियों का पुरोहित था आपने इसकी रचना वि. सं. १२८२ के करीवकी है ।
(६) वसन्तविलास - इसको बालचन्द्रसूरिने तेरहवीं शताब्दी में बनाया है इसमें वस्तुपाल तेजपालका वृतान्त है ।
(७) धर्माभ्युदय महाकाव्य - विजयसेनमूरिके शिष्य श्री उदयप्रभसूरिने तेरहवीं शताब्दीमे इसको बनाया है । १४ सर्गेमे यह काव्य विभक्त है
(८) वस्तुपाल तेजपाल प्रशस्ति श्रीमान् जयसिंहसूरिने तेरहवी शताद्वीमें इसे बनाया है.
(९) सुकृतसंतीर्तन - वि. सं. १२०५ के करीव लवणसिंह के पुत्र अरिसिंहने इसको बनाया है, इसमें अणहिलवाडेको वसाने वाले राजा वनराजसे लेकरके सुभट सामंतसिंह तकके चावडोंकी वंशाबली तथा मूलराज से भीमदेव तक के, अणहिलवा'डेके सोलंकियोंका एवं अर्णोरा जसे वीरधवल तकके घोलका बाधेका संक्षिप्त वृतान्त और वस्तु
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[७७] पालका विस्तृत चरित्र है, यांतो जिनहर्षका वस्तुपाल चरित्र सोमेश्वरकी कीर्तिकौमुद्री सुकृत संकीर्तनका जर्मन भाषामें भाषान्तर प्रोफेकर डॉ. बुहलरने किया था और उसका अंग्रेजी अनुवाद, इ. एच. वरगेसने इन्डियनएन्टि वेरीमें भी प्रकाशित करवाया था ।
(१०) हम्मीरमदमर्दन-यह एक नाटकका ग्रन्थ है इसकी रचना वीरमूरिके शिष्य जयसिंहमूरिने वि. सं. १२८६ के करीब कीहै । ___(११) कुमारविहार प्रशस्ति-इस प्रशस्तिके क. र्ता श्रीमान् वर्धमान गणोहैं तेरहवी शताद्वीमें यह बनाई है कुमारपालके बनाए हुए एक मंदिरकी यह प्रशस्ति है.
(१२) कुमारविहार अतक-इसके रचयिता रा. मचन्द्राचार्य है इसमें कुमारपालके बनाए हुए मन्दिरका वृत्तान्त है। -(१३) कुमारपालचरित्र-सोमेश्वर भने इसको चौदहवीं शाताद्वीमें लिखा है इसमे राजा कुमारपालका चरित्र है।
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[७८ ] ... (१४) प्रभावकचरित्र-ऐतिहासिक विषयका यह उत्तम ग्रन्थ है, श्रीमान् प्रभाचन्द्र आचार्यने इसको वि. सं. १३३४ में बनाया है। इसमें वज्रस्वामी आदिके २२ प्रबंध है।
(१५) प्रबन्ध चिन्तामणि-इसके कर्ता हैं मेरु तुंगाचार्य वि. सं. १३६१ में इसको बनाया है.
(१६) श्री तीर्थकल्प-इसके कर्ता श्रीमान् जिनप्रभमूरि हैं इस ग्रन्थका दूसरा नाम कल्पप्रदीप है जिनप्रभमूरि वि. सं. १३६५ में हुए हैं इस ग्रन्थमें करीब ५८ कल्प और स्तव है.
(१७) विचारश्रेणी-इसके कर्ता मेरु तुंगाचार्य हैं। यह ग्रन्थ अंचलगच्छीय आचार्यने बनाया है इस ग्रन्थसेभी गुजरातके चावडा राजाओंके राजत्व समय पता मिलता है. ___ (१८) स्थविरावली-इसके कर्ताभी अंचलगच्छीय मेरु तुंगाचार्यही है इसमें कई आचार्योका वर्णन है।
(१९) मच्छमबन्ध-इसके कर्ता हैं ककसूरि वि.
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[ ७९ ] सं. १३७१ में इसको बनाया है इस ग्रन्थ में समराशाह तथा सहजाशाह के जीवन चरित्र हैं येह दोनों देशलके पुत्र थे.
(२०) महामोह पराजय नाटक - यशः पाल मंत्री - ने अजयपाल के राज्यमें इसको बनाया है.
(२१) कुमुदचन्द्र प्रकरण - इसके कर्ता हैं श्रीमान् न्द्र | इसमें वादि देवसूरि और पं. कुमुचन्द्रका संवाद दिया गया है ।
(२) प्रबन्धकोश - इसको चतुर्विंशति मबन्ध कहते हैं । गलधारी श्रीमान् राज शेखर सूरिने वि. सं. १४५ में इसको बनाया है.
(२३) कुमारपाल चरित्र - इसको श्रीमान् जयसिंहसूरिने वि० सं. १४२२ में बनाया है.
(२४) कुमारपाल चरित्र - इसके कर्ता हैं श्रीमान् सोमतिलकसूरिने वि. सं. १४२४ के आसपास इसको रचा है। इसमें भी उन्हीं राजाओंका वृत्तान्त हैं ।
(२५) कुमारपाल चरित्र - चांदवी शताब्दी के
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[ 6 ] आसपास रत्नसिंहरिके शिष्य चारित्र सुन्दर गणिने इसको बनाया है इसमें भी मूलराजसे लगाकर कुमारपाल तक के सांलकियोंका इतिहास है.
(२७) उपदेश सप्ततिका - इस ग्रन्थके कर्ता सोम धर्म गणि हैं यह ग्रन्थ भी उपदेश तरंगिणी की तरह कितनेक अंशा में ऐतिहासिक रीत्या उपयोगी है इस ग्रन्थकी संवत् १४२२ में रचना हुई है ।
(२८) गुर्वावली - इसके कर्ता हैं मुनि सुन्दरसूरि । यह ग्रन्थ वि. सं. १४६६ में बना है ।
(२९) कुमारपाल प्रबन्ध - इसके रचयिता है श्रीमान् जिनमंडल उपाध्याय वि. सं. १४९२ में इसको बनाया है.
(३०) महावीर प्रशस्ति - वि० सं० १४९५ में श्रीमान् चारित्रta गणिने इसको बनाया है । इस ग्रन्थमें चित्रकूट के महावीर स्वामी के मंदिर की प्रशस्ति है । (३१) पंचाशति प्रबोध संबन्ध श्रीमान् शुभशील गणिने वि० सं. १५२१ में इसको बनाया है
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[८१) इसमें कई एक निबन्ध हैं जैसे गौतम स्वामीका अष्टापद तीर्थ बंदन कानहडा महावीर स्थापना, जिन प्रभाचार्य संबन्ध जिनप्रभसूरि अवदात संबन्ध झ. घडु साधु संबन्ध वगैरह। ___ (३२) वस्तुपाल चरिच इसके कर्ता तपाच्छीय श्रीमान् जिन हर्ष गणि हैं सोलहवीं शताद्वीमे यह बना है. ___ (३३) सोम सौभाग्य काव्य-यह काव्य प्रतिष्टा सोम गणि विरचित है इसको वि. सं० १५२४ में बनाया है।
(३४) गुरु गुण रत्नाकर काव्य-इसके रचयिता श्रीमान् सोम चारित्र गणिने वि० सं० १५४१ में इसको बनाया है। ____३५ जगदगुरु काव्य २३३ श्लोकांका यह एक छोटासा काव्य है इसके कर्ता विमलसागर गणिके शिष्य श्रीमान् पद्मसागर गणि हैं सं. १६४६ में यह काव्य बना है.
(३६) उपदेश तरंगिणी इसके कर्ता श्रीमान्
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[ ८२ ] रत्न मंडण गणि हैं सोलहवी शताब्दी मे आप हुए हैं ।
(३७) हीर सौभाग्य काव्य - श्रीमान् सिंहविमल गणिके शिष्य श्रीदेवविमल गणिका बनाया हुआ यह एक महाकाव्य है.
(३८) श्रीविजयमशस्ति काव्य भी एक बडा भारी ऐतिहासिक काव्य है इसके कर्ता श्रीमान् हेमविजय गणी तथा श्रीमान् गुण विजय गणी हैं यह भी महाकाव्य का ग्रन्थ है वि० सं० १६८८ में यह काव्य बना हैं.
(३९) श्री भानुचंद्र चरित्र - इस काव्य के रचयिता श्रीमान् सिद्धिवन्द्र उपाध्याय है सतरहवी aaratमें इसको बनाया है
(४०) विजयदेव माहात्म्य. इसके कर्ता श्री. मान वल्लभोपाध्याय है । इसमें श्रीविजय - देवसूरिजीके जीवनका वर्णन करने में आया है ।
( ४१ ) दिग्विजय महाकाव्य - १८ वीशताद्वी में श्रीमान् मेघ विजय उपाध्यायने इसको बनाया है
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[८३ ] इसमें अधिकतया विजयपभमूरिका ही ऐतिहासिक
वृत्तान्त है। ... (४२) देवानन्दाभ्युदय महाकाव्य-इसको भी मेघ विजय उपाध्यायने बनाया है इसमें विजय देवमूरिका ऐतिहासिक वृत्तान्त है.
(४३) झघडु चरित्र-इसके कर्ता श्रीमान् सर्वानंदसरि हैं इसमें झघडु शाहका जीवनचरित्र विस्तारपूर्वक दिया गया है, तथा और भी बहुत सी ऐतिहासिक बातेका उल्लेख है यह ग्रन्थ छप चुका है।
(४४) सुकृतसागर-इसके रचयिता श्री रत्नम् ण्डन गणि हैं इसमें पेथड, झांझण तथा तपागच्छोय धर्म घोघसूरिका जीवन चरित्र है-इन इतिहास संबंधधी ग्रंथो के आधारपर ही ज्यादातर हिन्दु. स्थानका निर्वाह है वरन् अन्य संपदायोंमे ऐतिहासिक ग्रंथोकी बहुतही त्रुटि है । पूर्वोक ग्रंथामें किस किस देश यानरे साफा वर्णन है. फिप्स किस सम: यमे क्या क्या घटना बनी है उसका पता उन उन अयोसे ही लग सकता है । हां इतना तो जरुर है कि इन ऐतिहासिक ग्रन्थो केविषय विभागका सह
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[ ८४ ] ल्प परिचय “जैन साहित्य सम्मेलन " नामक विवर्ण पुस्तकके लेखांसे लगसकता है, उसमे मु. विद्याविजय जी जैसे मुनियोंके और साहित्याचार्य विश्वेश्वरनाथ जैसे परिपक्क अभ्यासियोंके लेखोसे बहुतसो वातोंका स्पस्टी करण हो सकता है. ( उपर्युक्त पुस्तकोके नाम भी वहांसेही उतारे )
सिवाय इनके " वसुदेवहिण्डी" और "पउम चरिय" नामक ग्रंथ उपर लिखे ग्रंथोसे भी अति प्राचीन और इतिहास के भंडार हैं मुशकिल यह है कि उनको आज तक किसीने छपवाकर प्रसिद्ध नही किया। पउमचरिय तो अभी थोडा समय हुआ भावनगरकी श्री जैनधर्मप्रसारकसभा तर्फसे छप गया है अधिक सौभाग्यकी बात यह है कि उस ग्रंथका संशोधन कार्य जर्मन विद्वान डो० हर्मन जे कोबीके हाथसे ही समाप्त हुआ है ।
इस सविस्तर लेखका आशय सिर्फ इतना ही है कि यह प्रतिमा (मूर्ति ) संप्रति राजाके समयकी ही एशिया खंडके हंगरी प्रान्त वर्ति बुदापेस्त शह
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[८५] रमेसे निकली है। इतना ही हमारा वक्तव्य है। इन ट्रॅकोके अलावा-नेमिनाथ ढूंक १ मानसिंह भोजराज ट्रंक, अंबिकामाता ढूंक मेरकवशी ४ तीसरी ट्रॅक ५ चौथी ढूंक ६ पांचमी ढूंक ७ का. लिका ट्रॅक ८
इनके अतिरिक्त राजीमती फुफा वगैरह अनेक गुफाओं सहसावन वगैरह अनेक वण, हस्ति कुंड आदि अनेक कुंड । अनेकानेक अपूर्व वृक्ष । अनेकानेक झरणे । अनेकानेक लताों। अनेकाने खनियें । अनेकानेक तापसाश्रम । ध्यान लगानेकी जगह । योगाभ्यासके स्थान, हवाखानेके कूट । अनेक औषधियां, अनेक रत्र, अनेक मणि, अनेक जडी, अनेक बूटी, अनेक रस कुंपी । अनेक चरणपादुका । अनेकानेक पूर्वपुरुषोंके स्मारक चिन्ह, यहां उपलब्ध हो रहे, हैं अनेक प्रशस्तियां, अनेक शिलालेख अनेक लिपी । अनेक दानपत्र साम्रपत्र-प्रतिमालेख-यहां इतिहासकी त्रुटिके पूरण करनेवाले विद्यमान है।
अनेक जातिके वृक्ष । अनेक तरहके फूल ।
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[८६] अनेक तरहके फल, अनेक प्रकारकी लताओं। अनेक तरहकी लकडी । अनेक जातिको धातुओं। अनेक जातिके मृग । अनेक जातिके पक्षी । अनेक जातिके व्याघ्र अनेक जातिके सर्प-सिंह-शार्दूल-हकीकफटिक-नीलम-योगनिष्ट योगि-अनेक ध्याना रूढ तपस्वी अनेक कंदाहारी वनवासी-अनेक मंत्र वादी अनेक दीर्घायु अवधूत अनेकानेक ब्रह्मचारी । इस पर्वतमें रहते थे।
गिरनार तीर्थ के सविस्तर हालके लिये दौल. तचंदजी वरोडियाका लिखा गिरनार महात्म्य दे. खनेकी भलामण करके कल्याणके कारण भूत इस ग्रंथको समाप्त किया जाता है। ॐ शांति ३॥
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गिरनारपर्वत-पंचमी टोंकः
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॥ गिरनार रास॥
श्री सारदायै नमः अथ श्री गिरिनारि गिरिनो उद्धार लिख्यते
। ॥ वस्तु ॥
सयल वासव ॥ वसेपयमूल नमिशुं निरंतर चित्तभत्तिभर ॥ सांति करण चौविस जीनवर ॥ नेमिनाथ बावीसमाए ॥ सियलरयण भंडार मुहकर तस पय पाय अनुसरिए । महिमा गढ गिरनार ॥ सहिगुरु आ देश सीर लइ ॥ बोलिस कपि विचार ॥१॥
ढाल १. ॥ देशी बुधरासानि ॥ कपि विचार कहुं मन रंगा श्रुत देवि आधारजी ॥ वदनकमल ॥ विलशेवर वाणीसा सामणी संभारजी ॥१॥ जंबुद्वीप भरत क्षेत्र माहें ॥ उत्तर दीशे उदारजी ॥ मनोहर काश्मीर मुख्य मंडन ॥
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[ ८८ ] नवफुल पत्तन सारजी ॥ २ ॥ तिहां नवहंस नामे छे नरवर || विजया छे तस राणीजी ॥ चंद्र शेठ
तिण पुर अधिकारी विनयवंत बहु प्राणीजी ॥ ३ ॥
वीबहारीजी ॥ अधिकारीजी
नंदन ने तासनीरुपम || रतन वडो बीजो मदनपूरण सिंह बीजो जैनधर्म ||४|| लक्ष्मीवंत सुलक्षण सोभित । तेजे रवि परतापीजो || दृढ कछ। मुख मीठा बोले । जस किर्ति जग व्यापीजी ॥ ५ ॥ विनय विवेक दान गुण पुरण || राय दीये बहुमानजी || वडो बंधव सुसदा विचक्षणा श्रावक रत्न प्रधानजी || ६ || रतन शेठ निधरणी पदमणी ॥ सिलवंती सुविचारजी ॥ ते
नो सुत बालक बुद्धिवंतो || कोमल नामे कुमारजी ॥ ७ ॥ नेमिनाथ नीरवाण पधारा । वरस साहस हुआ आठजी रतन शेठं तिण अवसर हुओ ग्रंथे वो पाठजी ॥ ८ ॥ अतीसयज्ञानी प्रोढ माहादेव ॥ वन पोहोता रिषीराजजी । राजा रतन शेठ सीवांदे सीधा वंछित काजजी ॥ ९ ॥
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[८९ ]
ढाल २. ॥ सांभली जीनवर मुखथी साचुं ॥ ए देशी छे ।। ___ सभा सहू आगले सोय मुनिवर ।। धर्म देशना भासेरे भविक जिवने भव भय हरवा । प्रवचन व. चन प्रकाशेरे ॥ धर्म करोरे धर्मधुरंधर ॥१॥ अर्थ कामने कामेरे ॥ धर्म तणा संबलविण कहो किम ।। प्रांणी वांछित पामेरे॥२॥ सोए धर्म दोइ भेदे भाष्यो। श्री आग्यम जीन राजेजी ॥ सर्व दृत्ति देशत्ति अ. धिकारे ||३|| यति श्रावकने काजेरे पंच महावत धारी मुनिवर ॥ ४ ॥ श्रावक वीरता विरतीरे ॥ श्रीजीन आणा दोयने अधकी ॥ दया भाव अनुसरतीरे।। पेहेलं समकीत सुध करेवा ।। श्री जिन भक्ति उदाररे ॥ सोए आराधो चार निषेपे॥ बोले ते अनुजोग द्वारेरे नामथापना द्रव्य भावजीन ॥ जीन नामा नाम जी. नरे ॥ ठवणजीनाते जीनवर प्रतिमा ॥ सोहमसामि वचनरे ॥६॥ १०॥ द्रव्य जिना जीन जीव कहीजे ॥ वंदे भरत नरिंदरे । समवसरण बेठाजे स्वामी । ते तो भावि जीनंदरे ॥७॥ ध० ॥ भाव जिणंदतणो जो विरहे ।। जीन प्रतिमा जिन सरखिरे ।। द्रव्य
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[ ९० ]
भाव पुजा तस सारे ॥ भविजन प्ररचन परखीरे ॥ ८ ॥ ६० ॥ भाव पुजा ते कही मुनिवरने ॥ श्रावकने द्रव्यभावरे ॥ वृद्धिवादे बोलीजी पुजा भवजल तरवा नावरे ॥ ९ ॥ ६० ॥ श्री जिन अंगे मज्जन करतां ॥ सत उपवासनुं पुन्यरे द्रव्य सुगंध विलेपन करतां ॥ सहस लाभ होय धन्यरे ॥ १० ॥ ध० ॥ सुरभि कुसम मालाये पूजे || लाभ लक्ष उपवारूरे || नाटक गीत करेजिन आगे || लहे अनंत सुख वासरे ॥ ११ ॥ घ० ॥ श्री जिन भक्ति तणां फल एहवां || जांणी लाभ धरीजेरे || वलि विषेके शेत्रुजय सेवा || लाभ पारनलही जेरे || १२ || ध० ॥ भाग एक शेत्रुंजय केरो || तीर्थ श्री गिरिनाररे ॥ नेमिकल्याणिक त्रण हुआ जिहां || महिमा न लहुं पाररे १३ ॥ घ० ॥ प्रगट श्री प्रभास पुराणे ॥ जो जो मूकी मानरे ॥ रेवतनेमि तणो जे महिमा || उमयाने इशानरे || १४ | ० || वलि बंधन सामर्थ तणे खपे ॥ तपजिहां तप्यो मुरारीरे ॥ अधिकार प्रगट जिहां दिसे || वामनने अवतारेरे १५ ॥ ६० ॥ यतः । प्रभास पुरांणना श्लोक ॥ पद्मासन समासीन
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[ ९१] श्याममूर्तिनिरंजनः नेमिनाथः शिवेत्याख्या, नामचक्रेस्प वामनः ॥ १॥ रेवताद्रौ जिनोनेमि युगादि विमलाचले ऋषीणामाश्रमा देवा मुक्तिमार्गस्य कारणं ॥ २॥ कलिकाले महाघोरे, सर्वकलमशना. शनः। दर्शनावस्पर्शना देव कोटी यज्ञ फल प्रदत ॥३॥ उज्जयंत गिरौ रम्या, माधे कृष्ण चतुर्दशी ॥ तस्यां जागरणं कृत्वा संजातो निमलो हरिः ॥४॥ नत्वा शत्रुजयं तीर्थ, गत्वाचरैवताचलं ॥ स्नात्वा गजपदे कुंडे पुनर्जन्म न विद्यते ॥
॥ ढाल ३ पुर्वली॥ रेवत गिरिवर नेमिश्वर मूरति ॥ उतपतिनो अधिकाररे ॥ जीर्ण प्रबंधे जे वलि बोल्यो ॥ ते मुणजो विस्ताररे ॥१॥४०॥ भवियण भाव घणो मन आंणि ॥ सांभली श्री गुरु वाणिरे ॥ तिरय जात्रा तणा फल जाणी ॥ जन्म सफल करो माणिरे ॥२॥ भ० अचंबा आ एण भरते अतित चोविशि॥ त्रिणा सागर स्वामिरे ॥ उज्जेणि राजा नर वाहन। पुछे अवसर पामीरे ॥४०॥ ३ ॥ कैये मुक्ति होसे
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[९२] मुझ देवा ॥ जिनवर कहे तिबारेरे ॥ आगार्माक चोविशि नेमिजिन ॥ बावीसमानें वारेरे ॥०॥४॥ एम सुणि सागर जिन पासे ।। सो नृप संजम लेइरे ।। पंचम कल्प तणो पति हूवो ॥ अवधी ज्ञान धरेइरे ॥भ०॥ ५ ॥ कीधुं वज्रमय मृतिकानु श्रीनेमिनाथर्नु बिबरे ॥ परम भावसुं पूजे वासव दश सागर अविलं. बरे ॥भ० ६॥ नेमिनाथना त्रण कल्पाणक रैवत गिरीवर जाणीरे । सेख आयु आपण पूलने सा प्रतिमा तिहां आणीरे ॥ भ० ॥ ७॥ गिरिगंधर्वना चैत्य मनोहरः गर्भ गेहनिपावरेः सोवन रत्न मणीमय मूर्तिः तिणकार तिहां ठावेरे ।। भ० ८ ॥ कंचन बलाणक नाम निपाव्यु भुवनति पागल साररे ॥ बज्रमय मृतिका सामुरति त्यांथापि मनोहाररेः ।।भ० ॥९॥ सोहरि नेमिनाथने वारे हुवो नृप पुण्य साररे नेम मुखे पुरव भव समरी पोतो गढ गिरनारे ॥ भ ॥ १० ॥ तिहां निज कृत्य जीन प्रतिमा पूजी मुतने सांपी राज्यरे नेमिपासे संजम व्रत पाळी साधु संघलं काजरे ॥ भ० ॥ ११॥ ए रेवत तिरथ मुल उत्पत्ती पुरव पुरषे भाखीरे ॥ वली शेजय
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[ ९३ ] मातम मांही वात एसि परदाखीरे ॥ भ० ॥ १२ ॥ श्री शत्रुंजय उधार कराव्या ।। भरतादिके जै वारेरे ॥ नेमनाथना ऋण कल्याणिक रेवत गिरिये ते वारेरे ॥ भ० || १३ || वर प्रासाद भरावि प्रतिमाजब पांडव उद्धाररे थापी लेपतणी प्रभु मूरति तिहां एवो अधिकाररे ॥ भ० ।। १४ ।। इम गिरिनार तिरथनो महीमा अवधारो भवि लोकरे नेमिनाथनी सेवा सारी लहो अनंत फल थोकरे ॥ भ० ॥ १५ ॥
ढाल चोथी.
भरत नृप भावशु ए ए चाल छे । देशि स्तुतिनी ॥
एम सुणी सहिगुरु देसनाए श्रावक सोहे रत्न - के || हरख घरे सुणो है | सभा सहु कोई देखतां हे || करे अभीग्रह धन्य के ह० ॥ १ ॥ आजथकी प्रभु माह्य ए पंच विजय परिहार के ह० भोमि शयन ब्रह्मचर्य धरूं हे लेयुं एकवार आहार के ।। ६० | २ || संघ सहू गिरनार जावा हे जीहां नही भेटु नेमके ह० तिहां लगीमे अंगीकरोरो इह अभिग्रह • एम के ॥ ० ॥ ३ ॥ प्राण शरीरे जोधरु हे करू
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[ ९४]
एक जात्रा सारके ॥१०॥४॥ सह गुरुने एम विनबीए ॥ पोचे घर परीवार के ॥ ह० ॥ ४ ॥ राय प्रतेकेरि वीनतिए लीधुं मुरत चंगके । ह० ॥ कंकोतरी तिहां पाठ वेए ॥ थानक थानके मन रंगके ॥ ह० ॥५।। नगरी माहे गोखाव्यु जेहने जोए जेहके ॥ ह०॥ ६॥ तेसविल्पो मुज पासथिए जात्रा करो धरी स्नेहके ॥ ह० ॥६॥ संघ सबल तिहां मेलिओए । लोकन लाभे पारके ॥१०॥ सहजवालानि संख्या नहि हे ॥ गज रथ अश्व उदारके ॥६० ॥७॥ पडह अमारि जावियारे ॥ सागे लोक अपारके ॥ ह० ॥ ८॥ बंध मुकावी बहु परिए लोक प्रते सत्कारके ॥६० ॥ ८॥ करभखवर सोभन भरा हे ॥ करे सखायत रायके ॥ ७ ॥९॥ सैन्य सबल साथे लियारे उलट अंग न मायके | ॥९॥ सेठाणी राणी कनेये ॥ करे मोकलामणी काजके ह० ॥ राणी कहे किपण थइए । रखे अ. णाबो लाजके ह० ॥१०॥ देतां कर चंचो रखे ए लक्ष्मी लियो मुज पासके ह० ॥ तुजो माहारी बेनडीए ॥ जो कहवाइश साबश के ह० ॥ ११ संघ
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[ ९५] पति तिलक धराविया ए । श्रावक रत्न सुजाण के ॥०॥ कोटी ध्वज व्यवहारियाए ॥ मलीया राणराय के ॥ ह० ॥ १२ ॥ देरासर साथे घणाए । पुजा भक्ति जिनंद के ॥ ह० ॥ गंधर्व ज्ञान कला करे ए ॥ भाट भटित कहे छंद के ॥ ह० ॥ १३ ॥ जल सुखने काजे लिया है। साथे चर्म तलाब के ॥ ह० ॥ सबल साचवणी संघनिरे ॥ दीन २ अ. धिको भाबके ।। ह०॥१४॥ मार्ग तीरथ वंदता ए ॥ सहगुरु साथे सुचंदके ।। ह०१५। रेलातो लागिरि आविआए ।। कुशले सघलो संघके ॥ ह० ॥ डेरा तंबु खडा किया ए ॥ उतरिया महत उमंग के ॥ह० ॥ १६ ॥
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ढाल ५ मो. . रोला तोला पर्वतनी घाटी ॥ श्री संग उतरे जामजी पुरुष एक विकराल करुपी ॥ सामो आवी कहे तामजी ॥ १ ॥ सुणजो सुणजोरे भवि लोकाईण थानक थीरथाओजी ॥ मुननेरे शमझावा रखे कोइ आगल जाओजी ॥१०॥२॥ अति कालो
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[ ९६ ] मश पुंज सरिखो ॥ सुपड सरीखा कानजी आधो नर आधो सिंह सरिखो ॥ देत खरि पास मानजी ।।सु०॥३॥ मोटा सुंडल सरिखो मस्तक ॥ विश नखपावडा शमानजी ॥ अट्टाहास करे अति उचो ॥ लोक प्रते बीहाबेजी ॥ सु० ॥ ४ ॥ अनेक जनने विदारवा लागो॥ हुवो हाहा रवतामजी ॥ राज पुरख सुभटे सवि आवि ॥ सो बोलान्यो सामजी ।। सु० ॥५॥ कुण तुं देव अछे वादानव ॥ कांजनने संतापेजी ॥ पुजादीक जोइए ते मागो । जीम संघवी तुम आपेणी ॥ सु० ६॥ सो कहे समझावा पाखे पग जो भरसे कोइरे ॥ तो माहा मुख माहे थइने ।। जमपुर जासे सोइजी ।। मु० ॥७॥
॥ ढाल छठो। अहो ओतम कुल माहेरुः ॥ ए देशी ॥ फागणे
फाग खेलाविई ॥ - वाणि सुणी सोए पुरखनि विलखां थयां सहू मनजी ॥ तेह सुभट सिग्र आविया ॥संघवी जिहां
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[ ९७ ] रत्नजी ॥१॥ तेणे वात आवि कही ॥ सुणि वचन कडूआ कानजी ॥ संघ पति सवी परीक्चर सु, वीलखा थया असमानजी ॥२॥ गीरनार तीरथे जायतां ।। उपनो विचे अंतरायजी ॥ कहो किणी वीद्धे केलवी ॥ कीजे किस्यो उपायजी ॥ ३॥ इहां कोलाहल थयो घणो ॥थांन के थानके वातनोः॥ नासतां हिंडे कायरा । मेलो सवी संघातनी ॥४॥ कामनि जन कलिरव करे ।। मन धरे अति अंदोहजी ॥ हाहा वचन तिहां उचरे ॥ सांभरे घरनो मोहजी ।।५।। एक कहे पाछा वलो । जात्रा पोहति जाणजी ॥ जीवतां जो नर होयसे । तो पामशे कल्याणजी ॥ ६ ॥ एक कहे जइ होवे ते खरं ॥ अम भणी श्री जिन पायजो ॥ श्रीने मिजीन भेटया बीना । पाछा वली कुण जायनी ।। ७ ।। एक कहे निमितने पुछीइ ॥ होय जे जाणा जोसनो ॥ एक कहे संघ प्रस्तानमां ।। मुत्त प्रते दिए दोसजी ॥८॥ संघवी साहस आदरी ॥ तेडया जन मध्यस्तनो ॥ समीछवो एह पुरुष नइ, शुभ वचने करी स्वस्तजी आपले काहे तइ कीजी ॥ दिनीइ मांगे जेहनी ॥
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[ ८ ]
मलपरे करीने संतोषी || रीझवो वेने ते हजी ॥१०॥ सो प्रेतने जइ पुछीडं || मोछवीं विनय वचनजी ॥ सौ कहे साधुं सांभलो || एणै गिरी रहु निस दिनजी ॥ ११ ॥ स्वामि अ आ भोमिनो । हुं देवरुपी जाणजी || तुम संघनो वडो मानवी | मुझ आपो एक आजी || १२ || पछे संघ सहु निर्भय थइ || पंथे पोहचोरे खेमजी || एह कथन जो नहि मानसी | तो भेटसो केम तुमे नेमजी || १३ || संघ पति रत्न ते सांभली || एहवा तीहां समाचारजी || सहु संघने बइ सारी करी || बोले एम विचारजी ॥ १४ ॥
॥ ढाल 9 मी
( नंद्या म करसो कोइनी पारकीरे ।। ए देशी छे ) धवल शेठ लइ भेटणुं आ देशीमां पण छे ॥ रत्नशेठ कहे संघनेरे ॥ वचन एक अवधारोरे ॥ इण थानके अमे रेशुं एकलारे, तुमे जइ नेम जुहारोरे रन ॥ १ ॥ अथिर कलेवर आज संघनेरे ॥ काम जो ते नहीं आवेरे ॥
तो पछे इणे कीशुं नीप
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[ ९९ ]
जे ॥ मुज मन एहवो छे भावरे रत्न || २ || रात्रिजाया राओत सभी ॥ कहे शेठने तामरे ॥ चिरंजीवो रत्न तुं सदा || एह अमारुं कामरे रत्र || ३॥ स्वामि आपण केरे कारणे ॥ त्रण जिम तोली
लीजेरे || वृति तमारी अमे भोगनुं || ते ओशीगण केम कीजेरे रत्न || ४ || तव साधर्मो श्रावक कहे ॥ सुमो संघ पती वातरे ॥ तुं नर रत्न कुखे धरौ ॥ धन्य तुमारी मातरे रa ||५|| लक्षोना उदर भरो तुमे ॥ आशा ते सहूनी पुरोरे ॥ मान दिजे पृथ्वि पति ॥ ॥ गुणे नही अधुरोरे रत्न || ३ || महिअल भार क वा अमे || अवतरा जगमां जाणोरे ॥ प्रभु अमारां असार कलेवरां || अमने श्री संघने खप आणोरे रत्न || ७|| मदन पूरण बांधव विहुं ॥ कहे भाइजी सुणो अर्जरे || वड बंधव तमे अमतणा || ठाम पितानें समर्जरे रत्न ||८|| पिताने आविन जेम बेटडा || तिम अमे दास तमारारे ॥ तुम विजोगे सुनारा सचि ॥तुमे छो कुटंब सिणगारारे रत्र || ९ || आगे शमने लखमणा ॥ त्रिण जेम तोला प्राण रे ॥ काज
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[१०] ए अमचे सिरकरो ॥ तुमने होनो कल्याणरें रत्न ॥ १० ॥
॥ ढाल ८ मी॥ ( तिरथ अष्टापद नमिये ।। ए देशी ।। पीउ राखे प्राण आधार ॥ पदमणि एम भांखेरे ।। तुम पासे कुण गति नारिनि ॥ अम जीवन कुण राखेरे ॥ पी० १॥ तुम विजोगे एकली अ. बला ॥ किम रहे घर निरधारीरे ।। कंत विना कानिने सघले ॥सुनो संसार ए भारीरे ॥पी०२॥ वालमतणे विजोगे अबला || जन्म झुरंता जायरे सर्व सोभा ते दिसे कारमि ।। भुषण दुखण थायरे ॥ पी० ३ ॥ पियरने सासरे पनोति ॥ पियु विण मान न लहिएरे ॥ असुकुन जाणि तस मुख वरजे लोके विधवा कहियेरे ॥ पी० ४ ॥ पीउ आधिन सदा कुल नारी ॥ पति जाते परलोकरे ।। अंते जी. वित ते पण मृत्यु ।। पुरीत पियुने शोकरे ॥ पो० ॥५॥ ए उपसर्ग सहि सहू.स्वामि ॥ तुम होजो
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[ १०१ ] कुशल कल्याणरे || तुम अवर भलि सुंदरि वरजो ॥ हुं हुं तुम पग त्राणरे || पा० ६ ॥ कोमल सुत कहे सुणोरे पिताजी || अमे सुत रुपे रणिभारे ॥ जे मुत अवसरे अर्थ न आवे || उदर किट ते भरियारे ॥ पी० ७ ॥ मुजने इहां इतला दिन राखि ॥ संघ लइ तुम पोचोरे | जनक जुओ इण वाते जुगतुं ॥ रखे कां वाते सोचोरे ॥ पी० ८ ॥ बंधव बिहू प्रते संघवी ॥ नितिनि वाते समझावीरे ॥ संघ सकल संचरतो कीधो । सघली सीख भलावीरे ॥ पी० ९ ॥
॥ ढाल ( मी ॥
देखो गति दैवनीरे ॥ ए देशी ॥ जुओ जुओ धीरज शेठनुरे ॥ संघ काजे सा - इसी || आपणे अंगे आगम्पूरे || मन मोहे निरभीक || पाणी तुमे जोजोरे रत्न श्रावकनो भाव ए टेक ॥ त्रण जणा तिहांकणे रहारे || पति पत्नीपुत्र || अवर सनेही थया कार मारे || जुवो जुवो
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[१०२] वात विचित्र ॥ प्रा० २॥ संघ सहु को हवे संचरेरे ॥ फरिफरि पार्छ जोय ॥ नयने श्रावण झडि लगो. रे ॥ कंपि ने चाले कोय ॥ प्रा० ३ ॥ शरण श्री नेमर्नु आदरीरे।। अणशणकीय सागार ॥ संघ पति धीर थइ रयोरे, सहु करे हाहाकार ।। मा०४ ॥ प्रेत गुफा मांहे लइ गयोरे ॥ रहो ते रुंधो द्वार । सिंह नाद अति सुर करेरे ॥ बिहावे ते अपार ॥ प्रा. ॥ ५॥ कोमल मुत प्रीया पक्षणोरे ।। धरे ते काउ सग ध्यान ॥ कंथ जव कष्टथी छुटशेरे ।। तव लेशां अनपान ॥ मा० ६ ॥ एहवे रेवतपर्वतेरे । जावे छे क्षेत्रपाल सात ॥ मात अंबाने भेटबारे ॥ तेणे मुणौ एह उत्पात ॥मा० ७ ॥ तेणे जइ अंबाने विनव्युरे ॥ कुरु कुरु शब्दे जेम ॥ पर्वत एक अति धड हडेरे ॥ नवि दिठो आगेरे एम ॥ प्रा० ८ ॥ कोइक महंत पुरिषने, उपद्रव करे बहु दुष्ट । ज्ञाने अंबाए निहालियोरे॥ दीठो संघ पति कष्टापा १॥
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[१०३] ॥ ढाल १० मी॥
॥ चाल चोपाइनी ॥ देवी अंबाए जाणि ए वात ॥ क्षेत्रपाल साथे लइ . सात ॥ तेणे थान के उछंगे आवे ।। सोय प्रेत रुपीने बोलावे ।। कोमल सुनने पदमगो नारी ॥ काउसा दीठा सुविचारि ॥ ते उपरे कृपा सुभगति, उपनो अंबानी शुभमति ॥२ । सो ए प्रेत रुपी प्रति भाखे । दुष्ट कष्ट दे छे श्या पाखे ॥ हू नामे छु देवो अंबाइ। क्षेत्रपाल छे माहारा सखाइ ॥ ३ ॥ नेमवरणे वसु हु सदाइ ॥ ईह साधर्मी रत्न मुन थाई ।। संघ पति राख्यो ते अबुझ, होय शक्ति तो अमरों जुझ ॥४॥ तव प्रेत घणुं थरहरियो ॥ जुध मांडो ते कोपे भरियो ॥ चरण झालो उधे मस्तक परिभो । शि. ला साथे आफलवा करीओ ॥ ५ ॥ इतले सो से. वरी माया । सोवन सम झलकतीरे काया ॥ आ. भरणे संपरो हेच ॥ थयो प्रगट विमानिक देव ॥६॥ संघ पति सिर उपर ताम ॥ पुष्प वृष्टि करे अभि.. राम ॥ कहे धन धन हुँ,विविहारी ॥धन २ तुब
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| १०४ ]
सुतने नारि ॥ ७ ॥ गुरु मुखे ते लीधुं छे नीम ॥ मरणांतिक लगे करि सीम ॥ खमि न सक्यो ते पर सीध || तुज परिक्षा ए से कोय ||८|| तुं तो छे सुधो समकित धारी ॥ तें तो दुर गति दुर निवारी ॥ भलं चित राख्युं निज ठाम || तु ठानेमो सर शाम || ९ || धन २ ए ताहेरि कलत्र || पुन्य वंत एह ताहारो पुत्र || धन धन ते देवी अंबाई | जेणे स्वामीनी भगति निवाइ ॥ १० ॥ जोहु जुब करु मन शुधे || तोहे कुण नवि चाले बुधे ॥ पण कीधुं ॥ तुज साहस पारखु लिधुं
क्रीडा मात्र
॥ ११ ॥ मणि मोतीनी दृष्टि उदार ॥ संघपति उपरे करे सार ! संघ माहे मुकौ तेणि वार | वरता सघले जय २ कार ॥
५
॥ ढाल ११ मी ॥
( चाल पूर्वली) काज सिद्ध सकल हवे सार ए देशी ) सो देव सुर लोके संधावे ।। अंबांदिक निज ठामे आवे || संघ सहू रेवत गिरि पावे || सोधन फुल
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। १०५] मोति वधावे ।। १ ॥ मन सुद्धशु भावना भावे ॥ उपकरण तलाटिये ठावे ॥ जिन जोवाने उछक थावे ।। नेम भेटोने पाप समावे ॥ २ ॥ धोती पेहेरे थइ नीर्मल अंग ॥ स्नात्र करवाने थया सुवंग ॥ आवे मुल गंभारा माहे ॥ स्नान करे जल प्रवर प्रवाहे ॥ ३ ॥ संघमां नहि श्रावकनो पार ॥ तेणे व्यापी पाणी धार ॥ तोहां कणे अचंभम होय ॥ लेपमय बिंब गलियु सोय ॥४॥ संघ सहू तब हुवो विछिन । खेद धरे घणुं संघवि रत्न । धिग मैं असातना कीधी अजाण|| तीरथ कियो भंस ए ठाण ॥५॥ आरोगोस हवे तो जल अन्न, जो ठामे स्थापिश बिंब रत्न || मन सुधे एम आखडि किंधि । संघ भलामण भाइने दीधि ॥ ६॥ अवर अध्यातम संघलो छांडे ॥ आपण तप करवाने मांडे । साठ हुवा उपवास जिवारे ।। अंबाइ आव्यां प्रतक्ष तिवारे ॥ ७ ॥ कंचन बलाणिक नामे सुचंग ॥ जदूनिर्मित प्रासाद उतंग ॥तिहां संघवीने अंबा हि आवे ॥ गिनवर बिंबते सघला देखावे ॥ ८॥ श्री. नेमिनाथ यदा विमान ।। कुन निर्मित बिंब
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[ १०६] प्रधान || कंचन बलाणिक प्रासादमाहे ॥ ते सवि वंधा हरखे रत्न साहे ॥ ९ ॥ सोवन रत्न रुप्य मणिकेरा । बिंब अढार २ भलेरा ॥बोहोतेर बिंबमां तुज रुचे जेह ॥ कहे अंबाइ मुखे लहो तेह ॥१०॥ रयण विंब लेवा मति कीधी॥ आपणा नामने करवा प्रसिधि ॥ शिष्य सुमति तव दिए अंबाइ ॥आ. गल कलियुग आवशे भाइ ॥ ११ ॥ लोक होसे अति लोभि विषमा । ते आगल लइ जासे पडिमा ॥ पाषाण बिंब लिओ ते माटे ॥ कहे सं. घवी किम आवशे वाटे ॥ १२ ॥ काचे तांतणे विटो बलायो । मारगे मुरती एणीपरे ल्यावो ।। पुंठे म जोसो ने जो करशो विलंब ।। तिहांकणे रेहस्ये ते निश्चल बिंब ॥ १३ ॥ एम सोखामण चित्त धरइ॥ श्याम पाषाण तणो: बिंध लेइ । केटलिक भोमिका मेलीने आवे ॥ संघवी मनमे तव विस्मय थावे ॥१४॥ आवे के ना वे ए वाट विवाले। एम विमासी तव पार्छ निहाले ॥ रह्यो स्थिर बिंब आयो नवि हाले ।पाशाद रचना तिहां कणे चाले. ॥ १५॥ सुंदर श्री जिन भुवन कराव्यो । संघ
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[ १०७ ] चतुर्विध ने मन भायो || आज लगे तिणे ठामे पुजाये दरिशण दिठे दुरित पलार ॥ १६ ॥ वस्तु ॥ रतन श्रावक रतन सरिखो जोइए || पुरण प्रतिज्ञा जेने करि ॥ सकल देव पारखे पोहोतो || माताए सारज करि || संघ माहे स्थाप्यो सम्होतो ॥ वर प्रसाद करात्रियो ए श्री गिरनार उद्धार ॥ नेमि जिणेसर स्थापिया वरता जै जै कार ॥ १ ॥
ढाल १२ मी. ( कलशनी )
एम प्रथम उधारज किधो || भरते त्रिभुवन जस लीधो । एहि चाल छे । पुरि प्रतिज्ञा विणे एन सुधां सांव्यां तिणे नेग || धन्य २ सतवाद शिम ॥ वावरयां जिले सुवर्ग दिम ॥ १ ॥ जाचकना - छत पूरां । दालिद्र ते दुखियानां चूरां । तीरथनी थापना कीधी । किरति व्यापी संघले प्रसिधि ॥२॥ बलतां सौ संघ चलाया ।। शेत्रुनानि जात्राये -- व्या || प्रभु आदि जिनेसर वंदा || पातिक सर्वे
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[१०८] दूर निकंदा ॥ ३॥ विविधपरे द्रव्य ते चींचां ।। सु. क्रित तणां तरु सर्वे सीचां ॥ तीरथ अवर वर अनेक बंद्या धरी तेणे सविवेक ॥४॥ अरथ अपूरव सरा। पछे आपणे नगरे पधारा ॥ सापिये चडि आया राजा । बहूत मान दिये ते दिवाना ॥ ५ ॥ घर २ मंगल गावे वृधि । कुशल कल्याण तणोरे समृद्धि ।। सामि वछल बहुला कीधा ।। पुन्य भंडार भरा ते प्रसिधां ॥ ६॥ रतन सरिखो ए छे रतन धर्म तणो करे ते जत्न ॥ चंद्र सुरज लगे नाम || जेणे राख्यु ते अभिराम ॥७॥ तिरथ एह श्री गिरिनार ॥ प्रगटी कीधो श्रावक रत्ने सार । थापो श्री नेमिः जीनी मुर्ति ॥ आज लगे एहवि छे किति ॥ ८ ॥ अथिर लक्ष्मी छे एह ॥ पामि वय करतो ससने ॥ कृपणपणु नवि ते आणे ॥ तेहनो जप्त जगमांहे नाणे ।। ९ । भरतादिक हुवा संबो। आज नहि रिपिछे एहवि ॥ पाम्यासारु द्रव्य शक्तिए क्या ॥ तेहनी एम भावना भारो ॥ १.. ॥ श्री शत्रुनय गिरि सार । भरतनो प्रथम उद्धार ।। पांच पांडव लंगे जोई । सो पण गिरनार होई॥ ११ ॥
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[ १०९] महातम श्री शेजा मांहे । एवं दीसे छे प्राये ॥ रत्न श्रावक अधिकार ॥ जीरण प्रबंधे छे सार ॥ १२ ॥ श्री जीनशासन ए दीपक ॥ हवा कलीकाले अलिझीपक ॥ श्रावक छे अवर अनेक ॥ कुण कहि जाणे ते छेक ॥ १३ ॥ सिद्धराज जेसंघ दे मेतो ॥ साजन मंत्री गह गहतो ॥ सारि सोर. ठनी जे कमाइ ॥ बार वर्ष सुधी जे निपाइ ॥१४॥ ते धन श्री गिरनारे वरियो ॥ श्री नेनि प्रासाद उधरियो । सिधराजे तेणे क्खाणो ॥ सचराचर जस ते जाणो ॥ १५ ॥ एवा वस्तुपाल तेजपाल ॥ मंत्री मुगट ते क्रिपाल ॥ श्री जैनधर्म दिपाव्या ॥ खट दर्शनने मन भाव्या ॥ १६ ॥ श्री सिद्धावल गिरिवर ॥ कोटि अढार ते उपर ॥ बाणु लक्ष ते प्रसिद्ध ।। एटलो ते द्रव्य वय कीध ॥ १७ ॥ श्री गिरनारे एम बार ।। कोड एसी लाख सारं ॥ अर्बुद लूणग वसही ॥ बार कोड त्रेपन लाख कही ॥ १८ ॥ एकसो चोत्रीसि चंग ॥ श्री जिन प्रसाद उतंग ॥ दोय सहस त्रणसें सार ॥ कीधा तेणे जीर्ण
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[११०] उद्धार ॥ सत नव चोरासि विशाल || किधि तेणे पोखधशाल || कोटि अहार धन वाव्या । जैन भं. डार लखाव्या ॥ २० ॥ दंतमय दीपता उंच ॥ सिंहासन ते सत पंच ॥ जादरमय समवसरण ।। पांचसे पांच शुभ कर्ण ॥ २१ ॥ सवा लक्ष किंव भराव्या । सुरि पद एक वीश थपाव्या।। स्वामि व. छल वरिसे बार ॥ संघ पूजा ते वणवार ॥ २२ ॥ शिवालय त्रैगशे दोय ॥ सासे ब्रह्मशाला जोय । कपालिक मठ एता । सेहस जोगि तिहां जमता ॥ २३ ॥ शत्रागार सय सात ।। गउ सेहस दान विख्यात । विद्या मठ सत पंच ॥ शातसे कुप करा संच ॥ २४ ॥ चारसे चोसठ वापि ॥ ब्रह्म पूरि तीहां सत आपि ॥ सरोवर चोरासी प्रमाण ॥ बत्रीस दुर्ग पाखाण ॥ २५ ॥ शेजेजे शाडि बार जात्र । पोख्या अनेक जन पात्र ॥ तेरमि वारे ए मार्गे ।। वछ पाल ते पोता स्वर्गे ॥२६॥ केतां मित्थ्यात्वि नाकाम ॥ कीधां राखवा एणे नाम ॥ अवसर्पणोए चखाण्या ॥ जेहवा प्रबंधे जाण्या ॥ २७ ॥ सवी धनर वय संख्या जोडि । चौद लाख तेत्रीसे क्रोडी
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[१११] ॥ सहस अढासय आठ ।। हु लोढी उणो ए पाठ ॥ २८ ॥ श्री पर्वत दक्षिणे जाण || प्रभास पछमे वखाण ॥ उत्तरे केदारह कैये ।। पूरवइ बाह्या रसी लइए ॥ २९ ॥ इण दीसे दान जगोशे ॥ किरति वीस्तरी चिहू दीसे ।। खट दर्शन कल्पवृक्ष, पाम्यो बिरुद ते परतक्ष ॥ ३० ।। वर्ष अढारमा प्रसिद्ध ।। ए करणि करी सांवे सिद्ध ।। ते विद्यमान केहवाए ॥ आज लगि किर्ति बोलाए ॥ ३१ ॥ श्री रत्नाकरसूरी, उपदेश थथा पून्य पुरि ॥ सा पेयड सुविचार || बाणुं ते जैन विहार। शेर्बुजे आदि जिन भुवने । घटिका एकवीश सुवने ॥ विद्रविराख्यु एम नाम ।। आ ससि सुरज जाम ॥ ३३ ॥ तस सुत झाझण सार ॥ सोवन धजा गिर नार ।। नेमि प्रासाद करावि ।। श्री सिद्धाचल थकी आवि ॥ ३४ ॥ श्री जयतिलक सुरेंद जस । उपदेशे आनंद । श्रीश्रीमालि विभुषण ॥ हरपति साह विचक्षण ॥३' । विक्रमरायथि वरशें ई ॥ चौदशे ओ. गण पंचाशे । रेवत प्रासादे नेम ॥ उधरियो अति
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[११२] प्रेम ॥ ३६ ॥ इम महा भाग्य अनेक ॥ श्रावक ते सकल विवेक ॥ किया गिरिनारे उधार ।। कुग कहि जाणे तस पार ॥
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॥ कलश ॥ (राग धन्यासरी) त्रुठो जुठोरे मुने साहेब जगनो त्रुठो
जगदिश मलो जगदिश मलोरे ॥ ए टेक.)
श्री गिरनार विभुषण स्वामि ॥ जादव कुल शणगारजो ॥ राजुलवर रंगे जइ वंदु ॥ निरुपम नेमकुमारजी ॥ ज० १॥ अम आंगण सुरतरू फलीयोरे ॥ ज० ॥ श्री यदुवंश विभुषण मोहन ॥ समुद्र विजय धनतातजी ॥ धन्य शिवा देवी माता जेणे जायो॥ जिनजी जगत विख्यातजी ॥ज० २॥ अंबड संभड दोये भाइ ।। सुत साथे अंबाइजी ॥ श्री नेमिनाथ पद पंकज भमरी॥पूजो परम सखाइजो ३ ॥ आरती कष्ट हरो सा देवी ॥ श्री संघ वंछित पूरोजी ॥ चिंतित सिद्धि करो वलि सुरवर । सिध वणायक सुरोजी ॥ ज० ४ ॥ आज अपूरख दिवस
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[ ११३ ]
हूवो मुझ || पातिक दूर पुलायाजी || श्री नेमिनाथ निरखा जवनयणे || मनवांछित फल पायारे ॥ ५ ॥ श्री धन रत्न सुरिंगणाधिन || वड तपगच्छ शिणगारजी || अमर रत्न सुरिवाट प्रभावक || श्री देव रत्न गणत्रारजी ॥ ज० ६ ॥ पंडित शिरोमणि भानुमेरु गणि । सुगुरुपसाय आनंदजी || श्री दधि गाम माहे. दुखभंजन || विनव्यो नेमि जिणंदजी ॥ ज ७ || करो कृपा नय सुंदर उपर ।। दियो प्रभु शिवपुर साथजी । हो जो सदा संघने सुखदायक || सुप्रसन श्रीनेमिनाथजी ॥८ ज० ॥ कलश || एम रेवता चल जात्रानुं फल । किंपितल महिमा भण्यो || बाविसमो बलवंत स्वामी ॥ नेमनायक संयुग्यो || श्री भानुते गणिदु सेवक || क नयसुंदर सदा || शुविसाल देव दयाल अविचल : | आपो सुख मंगल मुदा ।। १ ।। इति श्री ।। ॥ गिरिनार उद्धार संपुर्ण छे ।
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[११४]
॥ काश्मीर॥ काश्मीर वा जम्मु । राधी और सिन्धु नदी के बीचका इलाका शुरुसे आखीर तक काश्मीरकी राजधानी कहलाती है । युगकी आदिमे श्रीयुगादि देव ने अपने दीक्षा समयको निकट आया जानकर अपने सौ पुत्रोंको जो जो राज्य दिये थे उनमे यह भी एकथा. तदनंतर चौथे तीर्थंकर श्री अभिनंदन स्वामीके शासनमे जितारि राजाने इसी देशसे श्री सिद्धाचल जीकी यात्रा के लिये संघ निकाला था. श्री नगर जो कि काश्मीरकी जम्मु के समान राजधानी कहलाती है उससे थोड़ी दूरीपर "मटठ साहिब" नामक एक प्राचीन तीर्थ स्थानमें आज तक भी आईट् चैत्योंके चिन्ह सुने जाते है । इस बातकी सत्यता के लिये स्वर्गस्थ श्रीयुत्-राना शिवप्रसाद सितारे हिन्द कालिखा "भूगोल हस्तामलक" देखो ] इन स्थानोको लोग कौरव पाण्डवोंके समय के बने हुए कहते हैं । जिस महा पुरुषका नामनिर्देश प्रस्तुत रासमे किया गया है वह
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[ ११५ ] भी इसीही काश्मीर देशका रहनेवाला था, और इस के समय वहां जैनधर्म बडे प्राबल्यमे था. आज भी शहर जम्मुमे एक जैन मंदिर और कितनेक जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजके के घर है। जैन श्वेताम्बर साधुओं की चतुर्मास स्थिति भी होती है । हां मूर्ति पूजकोकी अपेक्षा साधमार्गी जैन जिनको लोग ढूडियों के नामसे जानते पहचानते है उनकी वस्ति जम्मुमे ज्यादा है सो उसमे सब सिर्फ यह ही है कि कितने अरसे से अपने लोगोका उधर विवरना बंद हो गया है और ढूंढिये लोगोंका अ-कसर फिरना रहता है ।
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[ ११६ ]
संक्षिप्तसार - रास - गिरनार.
पहले जिसका संक्षिप्त वर्णन लिखा जा चुका
है, जैसे उस काश्मीर देशके “ " नवफुल्ल नामक गाममे नवहंस नामा राजाथा जोकि देवी नामक राज कन्यासे व्याहा हुआ था. नवहंस नृपति के पाटनगर नवफुल्लुमे पूर्णचंद्र शाहुकार रहता था जो कि- सौभाग्यादि गुणोका आकर होकर भी उत्कृष्ट सदाचारी था ।
जिनधर्मका आराधन करते हुए कल्पतरु के प्रिय फलोंके समान - रतन १ मदन २ और पूर्णसिंह यह तीन लडके उसके सर्व मनोरथ को पूरण करनेवाले पैदा हुए, इस लिये पूर्णचंद्र श्रेष्टि निश्चिन्त रहकर अपनी जीवन चर्याको व्यतीत करता था एक समय का जिकर है कि महादेव नामक एक सूरि सपरिवार उस नगरके किसी विशाल और रमणीय आराम खंडमे आकर समवसरे ।
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[ ११७ ]
यह जिकर उस समयका लिखा जाता है कि जब बावीसमे तीर्थकर श्रीमान् नेमिनाथ स्वामीके निर्वाणको सिर्फ चारहजार वर्षही बीते थे ।
देवताओके बनाये सोनेके कमलपर यतियोके प्रभु ज्ञानी देव विराजमान हुए वनपालने जाकर राजाको वधाया, राजाने सफल राजकीय मंडल को सूचना दी, तमाम नागरिक लोगोकोभी समाचार पहुँचाया ।
विविध यान, विविध, वाहन चित्र विचित्र ऋद्धि परिवार सहित चारही वर्णकी जनता सूरि शेख - रकी सेवामे जा पहुंची ।
आनंदके अपूर्व आवेश से लोगोने उस विश्वो पकारी मुनिपतिको भक्ति भाव पूर्वक वंदन किया । धर्मलाभ रूप आशीर्वाद पाकर राजासे लेकर सामान्य व्यक्ति पर्यंत सब लोग यथायोग्य स्थानपर बैठे । पूर्णचंद्रके तीनही पुत्र श्रद्धारागमे रक्त थे, देव . गुरुसेवा तो उनका मुख्य कार्यक्षेत्र था. राजाके सा य वहभी बगीचेमे पहुंचे और चंद्र दर्शनसे चकोर -
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[ ११ ] की तरह हर्षको प्राप्त हुए । धर्म देशनाका आरंभ हुआ जिन वचन सामान्य वक्ताकी जुबान से निक ले हुएभी श्रोताके हृदयको विमलता पहुंचाते है तो भला देव देवेन्द्र वंदित अतिशय ज्ञानीकी धर्म देशनाका तो कहनाही क्या था !!!
धन्वंतरी - लुकमान आदि पूर्वकालीन वैद्य हकी मोमे और आजके ठोक पीटकर वैद्यराज जैसे नीम हकीमो अंतरही क्या ? अंतर फक्त इतनाही है कि वोह निदान पूर्वक चिकित्सा किया करते थे और आज कालके बिचारे कितनेक नामधारी वैद्य कि जिनको अपने मतलब सेही काम है उनमे वह गुमनही पाया जाता इसीहो लिये उनपर मनुष्यको आस्था नही जमती । जब आस्थाहो नहीतो रोगाभाव कहां से?
पूर्व कालके ज्ञानी गुरु मानिंद धन्वंतरी के थे । धर्मदेशनामे अनेक विषयोंकी व्याख्या करते हुए ज्ञानी महाराजने प्रसंग पाकर कहा- लोकनाथ ती थैंकर देव जगतके परम उपकारी है, इसके के निर्वाण जाने के पीछे भी उनके उपकारको सा
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[११९ ] रणमे लाकर उनको प्रतिमाएँ अर्थात् बिम्ब बनाकर पूजे जाते हैं, शास्त्र नीतिसे जिनप्रतिमाएँ जिनके समानही मानी जाती हैं, और पूजी जाती हैं. मिसरी जहां खाइ जायगो वहांही मोठी लगेगी, प्रभु पू. जन जिस जगह किया जावेगा वहांडो फलदायक होगा. तथापि अg जय गिरनार ऊार को हुई पूना अथवा दानादि अन्य सर्व क्रियाएँ भयात्माओंको अन्यक्षेत्रकी अपेक्षा अनंत फलके देनेवाली होती है। श्री शचुंजय महातीर्थकी पांचवी ढूंक का नाम "रक्ताचल" है, और उसका प्रसिद्ध नाम गिरनार है, गिरनार तीर्थपर श्री नेमिकुमार के ३ कल्याणक हो चुके है, इस लिये यह तीर्थ विशेष पूजा स्थान माना गया है, जैनशास्त्रोके अतिरिक्त अन्य सादा यौमें भी गिरनार तीर्थका प्रभावशाली वर्णन है जैसे कि प्रभास पुराणमे ऋषियांका कथन है कि" पद्मासनसमासीनः श्याममूर्तिदिगंबरः। "नेमिनाथः शिवेत्याख्या, नाम चक्रेऽस्य वामनः। किलिकाले महाघोरे, सर्वकल्मष नाशन: " दर्शनात्पर्शनादेव कोटियज्ञकलमदः ।।
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[ १२० ] 44 " तस्माद्येनशिवासूनु - रुज्जयन्ते नमस्कृतः । “ तेन श्रद्धावतानून - मुपयेमे शिर्वेदिरा ॥ अर्थ - पद्मासन से विराजित - श्याममूर्त्ति - दिशाही है वस्त्र जिसके - शिवाराणीके पुत्र होनेसे जो शिव कहलाते है- अथवा - वामनावतार विश्वने जिनको शिव नाम से बुलाया है, जो महाघोर कलियुग मे सर्वपापोका नाश करनेवाले है । उनके दर्शन से - चरणस्पर्शन से कोटियज्ञ जितना फल प्राप्त होता है.
इस लिये जिस पुण्यात्माने गिरनार तीर्थपर श्री नेमिनाथ प्रभुको वंदन नमस्कार किया, उस श्रद्धालुने निश्चय मुक्ति वनिताकी वरमाला पहक्ली ! ! ! इस बातको सुनकर परम श्रद्धालु रत्न श्रावकको तीर्थाधिराजपर अपूर्व भक्ति भाव जागा । उसने सभा - समक्ष खडे होकर प्रतिज्ञाकीकि गुरु महाराज के मुख से जिस तीर्थ राजकी प्रशंसा सुनी है चतुर्विध-संघ सहित ६ री पालता हुआ उस तीकी यात्रा करुं तबही मैं दूसरी विगय खाउंगा.
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[ १२१ ]
जहां तक गिरनार तीर्थ के दर्शन न करूं वहां तक जिन प्रवचन प्रसिद्ध (६) ही विगयों मेसे सिर्फ १ ही विगयसे शरीर यात्रा चलाउंगा " ।
बस रत्न तो सच्चा रनही था वह तो कल्पान्त कालमे भी काच नही होनेवाला था, परंतु उसकी उस उत्कृष्ट प्रतिज्ञाको सुनकर राजा प्रमुख सब लोग घबरा उठे, पुरुष रत्न उस रनशाह के चेहरेपर चिन्ताका नाम निशानभी नही था, राजा और मजाके सर्व मनुष्योने शाहको अनेक तरह समझाया और कहा कि - आपका धार्मिक मनोरथ अच्छा है, उसमे हम नही है, परंतु सब काम विचार पूर्वक ही करना चाहिये । सोचो कि कहां काश्मीर और कहां सौराष्ट्र ? जैसी हालत मे पादविहार, एक बार सो भी रूक्ष भोजन, शरीर सुकुमालभला आप जैसे घोर कष्टोको किसी भी तरह सहन कर सक्ते हैं ?
कार्य वह करना चाहिये कि - जिसमे अपने को पछताना न पडे और लोगोको हांसी करनेका समय न मिले। रत्नशेठने पुछा कि फिर अब आप
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[१२२ ] मुझे क्या कहना चाहते है ? जनसमाजने कहा संघ निकालकर तीर्थ यात्रा करे उसमे हम खुश है और यथाशक्ति सहायता देने को भी हरतरहसे त्यार है. परंतु विगययाम संबंधी आपका अभिग्रह बिना विचारा है. इस हदकां आप छोड़ दें। रत्न शेठने कहा भला हाथी के दान्त बाहिर निकल कर फिर अंदर जाते है ? कभी नही । मेरा तो पक्का निश्चय यह ही है कि" कुछ भी नही जो छोडते है धैर्य आपत कालमे. " सोत्साह हसते है पड़े जो दुखके भी जालमें। "साहस नही घटता जिन्होका वह बडेडी वीरहै. " कृतकार्य होते है सदा संसारमें जा धीर है ।। - यह तो मेरा मिखालिस धर्म मनोरथ है. जिस शुभ कामना का मैने अभिग्रह लिया है वह उभय लोक सुखा वहा तीर्थ यात्रा रूप प्रशस्य क्रिया है। कि-जिसका फलादेश वर्णन करते हुए अनंत ज्ञा. नियोंने " हियाए, सुहाए, खम्माए, निस्सेय साए आणुगामित्ताए भविस्सइ" जैसा खुद अपने श्रीमु
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[१२३] खसे वर्णित किया है परंतु कभी कोई सांसारिक न्याय नीतीसे संबंध रखनेवाला कार्य भी हो और उसका करना भी अगर मनुष्यने स्वीकार किया हुआ हो तो उससे भी पीछे हटना यह आर्य पुरुषकी मर्यादा नहीं है सुनो"दुख लाभ हो यां हानि हो अपकीर्ति चाहे हो भले, "पत्थर गले पानी बले अचला चले विधि भी टले । "हटते नहीं पर धीर प्रणसे पाणके रहते कभी, "मांनी मनुज अपमानको जीते नहो सहते कभी ।
उस पुन्यवानके इस धैर्यको देखकर सकल जनसमाजने आशीर्गद दिया. राजाने अपनी सेना दी और भी मार्गाचित सामग्री दी। सोनेको परीक्षा अग्निमे होती है, संघपति. आनंदमूर्वक श्री संघको और अपने धर्मोपदेशक गुरुको साथ लेकर अविछिन्न प्रयाणांसे तीर्थ राजके सन्मुख चले जा रहे है. इतनेमें विकराल रूपवाला एक राक्षस उनक को मिलता है, सर्व लोग भय भीत होकर इमर 3 धर भागनेनो तयारी करते है, सुभा लोग भी
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[ १२४ ]
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हारे है उसवक्त धीरज धारण करके रत्नसंघवी उसे पूछता है कि तुम क्यों विघ्न करते हो ? तुमको चा हिये क्या ? राक्षस कहता है मुझे अत्यन्त भूख लगी है, मुझे एक मनुष्य दो, उसे खाकर सबको छोड़ ढुं । नही तो सबको मारडालूंगा । उसके इस वचनक सुनकर खुशी मनाता हुआ संघवी अपने प्राणोंका बलिदान करके अखिल लोगों को बचानेका विचा र करता हुआ राक्षसके सामने जानेकी तयारी करता है. जीवितकी आशा छोडकर सर्व जीवों को माता है । उसवक्त एकान्त पतिव्रता रत्न शेठकी पत्नि अपने पतिका हाथ पकडकर पीछे हटाती हुई उस राक्षसको अपने प्राण देनेके लिये आगे बढती है । सुविनीत मातृ पितृ भक्त उनका लडका दोनोको रोककर आप उस राक्षसका भोग बनना चाहता है। परंतु संघवी उनकी यथा तथा समझाकर वहां जाता है, इधर पोमिनी और कोमल उनके कुशल के चास्ते कायोत्सर्ग करते हैं " धर्मात् किं किं न सिध्यति ? मां बेटे के ध्यान बलसे गिरनार तीर्थ कांपता है, अंबिका माता संघवीको कष्टमे पडे देखकर सा
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[ १२५ ] त क्षेत्रपालांको लेकर वहां आती है।
राक्षसके साथ उनका समर होने के बाद वह राक्षस अपने असली दिव्य रूपको प्रकट करके संघवीको वरप्रदान करके स्वस्थानपर जाता है, और संघवी गिरनार तीर्थपर पहुंचता है, इस घटनाका उल्लेख समकित सित्तरीकी टीकाके छठे प्रकरणमें आचार्य श्री "संघतिलक' मूरिजीने बडे हीमनोहर ढब से लिखा है । नीचे जिस घटनाका जिकर है वह और भी हृदय द्रावक है । सारांश उसका यह है कि जब संघ तीर्थपर पहुंचा तो सबने प्रभुदर्शन करके पूजा सेवाका लाभ लेकर जन्म पवित्र किया, और अने. कानेक खुशियां मनाई । एक दिन गजपद कुंडके जलमे सबने स्नान किया और प्रभुका भी प्रक्षाल उसीही जलसे कराया। हमेशां ऐसा होताही था परंतु " भवितव्यं भवत्येव " जलके प्रवाहमे लेप मयी प्रतिमा गल गई । संघमे हाहाकार मच गया सब लोग शोकसागरमे डूब गये । संघवीने धैर्य पक. डकर दोनो भाइयोको कहा तुम उतने दिन तक श्री
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[१२६] संघकी सेवा करो जितने दिन मैं तप करूं । यहक हकर संघवीने तपस्या करनी प्रारंभ की। साठवें दिन अंबिका माताने स्वयं दर्शन देकर उनको कितनीही अपूर्व प्रतिमाओके दर्शन कराए और उनमे से एक प्रतिमा चैत्यमे स्थापन करने के लिये दी और कहा इस प्रतिमाजीक वाहनमे बैठा कर काचे तंतुओसे खींचकर लेजाना परंतु पीछे मुड़कर न देखना.
दैवयोग कितनेक मार्गको तह करके संघवीने पीछे देखा प्रतिमाजी वहांही ठहर गये ।
अस्तु शासनदेवकी ऐसीही कामना थी। संघवीने अपने असंख्य धनको खर्च कर वहांही चैत्य तयार कराया. और प्रभु प्रतिमाको प्रतिष्ठा करवाई। अनेक उत्सव महोत्सवांको करते हुए संघवीजी कितनेक दिन वहाँ ठहरे और वहांसे चलकर ज्ञानी गुरु महाराजके साथ श्री सिद्धाचल पर आये. आ. नेद पूर्वक शत्रुजय तीर्थकी यात्रा करके संघवी संघ सहित अपने नगरमें चले आये और महादेव सूरिजी भव्यजनीक उपकारके वास्ते अन्यत्र विहार
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[१२७ ] कर जिनशासनका आलोक करते हुए तप संयमसे पूर्वकी तरह अपने शेष जीवनको सार्थक और स. फल रूपसे व्यतीत करने लगे।
। ओम् शान्तिः ।। ॥गिरनार मंडन श्री नेमिनाथ चैत्यवंदन ॥
तोटक छंद. जयवंत महंत निरंजन छो, भवना दुख दोहग भंजन छो॥ भविनेत्र विकासन अंजन छो, प्रभु काम विकार रिगंजन छो. ॥१॥ जगनाथ अनाथ सनाथ करोः मम पाप अमाप समूल हरो ॥ अरजी उर नेमि जिणंद धरो, तुम सेवक छ प्रभु ना वि. सरो. ॥२॥ सुर अचिंत वांछित दायक छो, सर संघ तणा प्रभु नायक छो । गिरनार । तणा गुण गायक छो; कलहंस तणी गति लायक छो. ॥१॥
॥श्री गिरनार मंडण नेमिनाथ स्तवन. ॥ पुनम चांदनी आजेखोली रहीरे ॥ ए चाल । नमीये नेहथी आने नैमिनाथरे, सजन समनो
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________________ [128] नमस्कार तणु फळ सार, जईने गिरनार गिरिपर तेडी सउ साधनेरे. // ए आंकणी // नाथ नाथ नेमिनाथने, वंदनकरवाकानः गगन मार्गथी आवी. या, बेसीने गजराज. गज पद कुंड को गजपाथी काही पाथनेरे / नमीए. // 1 // सरस्वती रसवती नहीं गंगारंगाय, साकर पण कांकर सली, तस जल आगे थाय. सुरपति स्नान करे एवा जलथी गाई गाथनेरे // नमीए // 2 // शिवादेवी सुत नेमजि, दया तणा भंडार; स. हज आत्म तेजेकरी, शोभेअपरंपार. काढे तमो मग्न उद्विग्नने भींडो बाथनेरे // नमीये. ॥३॥ध्यान ध्वंस करे नाथर्नु, कर्मरोग तत्काल. अनाहत नादे करी, नहोय वांको वाल. ते कारण योगी कदी न पीये कवाथनेरे // नमीये० // 4 // संसार सागर मांही छे, मोहावर्त महान् ; संसारी सारी तिहां, डुबी रही छे जहान. तारे हंसपरे प्रभु तरतज़ पकडी हाथ: नेरे / नमीये. // 5 // समाप्त. Aho! Shrutgyanam