Book Title: Girnar Galp
Author(s): Lalitvijay
Publisher: Hansvijay Free Jain Library

View full book text
Previous | Next

Page 151
________________ [ १२५ ] त क्षेत्रपालांको लेकर वहां आती है। राक्षसके साथ उनका समर होने के बाद वह राक्षस अपने असली दिव्य रूपको प्रकट करके संघवीको वरप्रदान करके स्वस्थानपर जाता है, और संघवी गिरनार तीर्थपर पहुंचता है, इस घटनाका उल्लेख समकित सित्तरीकी टीकाके छठे प्रकरणमें आचार्य श्री "संघतिलक' मूरिजीने बडे हीमनोहर ढब से लिखा है । नीचे जिस घटनाका जिकर है वह और भी हृदय द्रावक है । सारांश उसका यह है कि जब संघ तीर्थपर पहुंचा तो सबने प्रभुदर्शन करके पूजा सेवाका लाभ लेकर जन्म पवित्र किया, और अने. कानेक खुशियां मनाई । एक दिन गजपद कुंडके जलमे सबने स्नान किया और प्रभुका भी प्रक्षाल उसीही जलसे कराया। हमेशां ऐसा होताही था परंतु " भवितव्यं भवत्येव " जलके प्रवाहमे लेप मयी प्रतिमा गल गई । संघमे हाहाकार मच गया सब लोग शोकसागरमे डूब गये । संघवीने धैर्य पक. डकर दोनो भाइयोको कहा तुम उतने दिन तक श्री Aho! Shrutgyanam

Loading...

Page Navigation
1 ... 149 150 151 152 153 154