Book Title: Girnar Galp
Author(s): Lalitvijay
Publisher: Hansvijay Free Jain Library

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Page 150
________________ [ १२४ ] " हारे है उसवक्त धीरज धारण करके रत्नसंघवी उसे पूछता है कि तुम क्यों विघ्न करते हो ? तुमको चा हिये क्या ? राक्षस कहता है मुझे अत्यन्त भूख लगी है, मुझे एक मनुष्य दो, उसे खाकर सबको छोड़ ढुं । नही तो सबको मारडालूंगा । उसके इस वचनक सुनकर खुशी मनाता हुआ संघवी अपने प्राणोंका बलिदान करके अखिल लोगों को बचानेका विचा र करता हुआ राक्षसके सामने जानेकी तयारी करता है. जीवितकी आशा छोडकर सर्व जीवों को माता है । उसवक्त एकान्त पतिव्रता रत्न शेठकी पत्नि अपने पतिका हाथ पकडकर पीछे हटाती हुई उस राक्षसको अपने प्राण देनेके लिये आगे बढती है । सुविनीत मातृ पितृ भक्त उनका लडका दोनोको रोककर आप उस राक्षसका भोग बनना चाहता है। परंतु संघवी उनकी यथा तथा समझाकर वहां जाता है, इधर पोमिनी और कोमल उनके कुशल के चास्ते कायोत्सर्ग करते हैं " धर्मात् किं किं न सिध्यति ? मां बेटे के ध्यान बलसे गिरनार तीर्थ कांपता है, अंबिका माता संघवीको कष्टमे पडे देखकर सा Aho ! Shrutgyanam

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