Book Title: Girnar Galp
Author(s): Lalitvijay
Publisher: Hansvijay Free Jain Library
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[ ९७ ] रत्नजी ॥१॥ तेणे वात आवि कही ॥ सुणि वचन कडूआ कानजी ॥ संघ पति सवी परीक्चर सु, वीलखा थया असमानजी ॥२॥ गीरनार तीरथे जायतां ।। उपनो विचे अंतरायजी ॥ कहो किणी वीद्धे केलवी ॥ कीजे किस्यो उपायजी ॥ ३॥ इहां कोलाहल थयो घणो ॥थांन के थानके वातनोः॥ नासतां हिंडे कायरा । मेलो सवी संघातनी ॥४॥ कामनि जन कलिरव करे ।। मन धरे अति अंदोहजी ॥ हाहा वचन तिहां उचरे ॥ सांभरे घरनो मोहजी ।।५।। एक कहे पाछा वलो । जात्रा पोहति जाणजी ॥ जीवतां जो नर होयसे । तो पामशे कल्याणजी ॥ ६ ॥ एक कहे जइ होवे ते खरं ॥ अम भणी श्री जिन पायजो ॥ श्रीने मिजीन भेटया बीना । पाछा वली कुण जायनी ।। ७ ।। एक कहे निमितने पुछीइ ॥ होय जे जाणा जोसनो ॥ एक कहे संघ प्रस्तानमां ।। मुत्त प्रते दिए दोसजी ॥८॥ संघवी साहस आदरी ॥ तेडया जन मध्यस्तनो ॥ समीछवो एह पुरुष नइ, शुभ वचने करी स्वस्तजी आपले काहे तइ कीजी ॥ दिनीइ मांगे जेहनी ॥
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