Book Title: Girnar Galp
Author(s): Lalitvijay
Publisher: Hansvijay Free Jain Library

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Page 130
________________ | १०४ ] सुतने नारि ॥ ७ ॥ गुरु मुखे ते लीधुं छे नीम ॥ मरणांतिक लगे करि सीम ॥ खमि न सक्यो ते पर सीध || तुज परिक्षा ए से कोय ||८|| तुं तो छे सुधो समकित धारी ॥ तें तो दुर गति दुर निवारी ॥ भलं चित राख्युं निज ठाम || तु ठानेमो सर शाम || ९ || धन २ ए ताहेरि कलत्र || पुन्य वंत एह ताहारो पुत्र || धन धन ते देवी अंबाई | जेणे स्वामीनी भगति निवाइ ॥ १० ॥ जोहु जुब करु मन शुधे || तोहे कुण नवि चाले बुधे ॥ पण कीधुं ॥ तुज साहस पारखु लिधुं क्रीडा मात्र ॥ ११ ॥ मणि मोतीनी दृष्टि उदार ॥ संघपति उपरे करे सार ! संघ माहे मुकौ तेणि वार | वरता सघले जय २ कार ॥ ५ ॥ ढाल ११ मी ॥ ( चाल पूर्वली) काज सिद्ध सकल हवे सार ए देशी ) सो देव सुर लोके संधावे ।। अंबांदिक निज ठामे आवे || संघ सहू रेवत गिरि पावे || सोधन फुल Aho ! Shrutgyanam

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