Book Title: Girnar Galp
Author(s): Lalitvijay
Publisher: Hansvijay Free Jain Library

View full book text
Previous | Next

Page 147
________________ [ १२१ ] जहां तक गिरनार तीर्थ के दर्शन न करूं वहां तक जिन प्रवचन प्रसिद्ध (६) ही विगयों मेसे सिर्फ १ ही विगयसे शरीर यात्रा चलाउंगा " । बस रत्न तो सच्चा रनही था वह तो कल्पान्त कालमे भी काच नही होनेवाला था, परंतु उसकी उस उत्कृष्ट प्रतिज्ञाको सुनकर राजा प्रमुख सब लोग घबरा उठे, पुरुष रत्न उस रनशाह के चेहरेपर चिन्ताका नाम निशानभी नही था, राजा और मजाके सर्व मनुष्योने शाहको अनेक तरह समझाया और कहा कि - आपका धार्मिक मनोरथ अच्छा है, उसमे हम नही है, परंतु सब काम विचार पूर्वक ही करना चाहिये । सोचो कि कहां काश्मीर और कहां सौराष्ट्र ? जैसी हालत मे पादविहार, एक बार सो भी रूक्ष भोजन, शरीर सुकुमालभला आप जैसे घोर कष्टोको किसी भी तरह सहन कर सक्ते हैं ? कार्य वह करना चाहिये कि - जिसमे अपने को पछताना न पडे और लोगोको हांसी करनेका समय न मिले। रत्नशेठने पुछा कि फिर अब आप Aho! Shrutgyanam

Loading...

Page Navigation
1 ... 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154