Book Title: Girnar Galp
Author(s): Lalitvijay
Publisher: Hansvijay Free Jain Library
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[ १०६] प्रधान || कंचन बलाणिक प्रासादमाहे ॥ ते सवि वंधा हरखे रत्न साहे ॥ ९ ॥ सोवन रत्न रुप्य मणिकेरा । बिंब अढार २ भलेरा ॥बोहोतेर बिंबमां तुज रुचे जेह ॥ कहे अंबाइ मुखे लहो तेह ॥१०॥ रयण विंब लेवा मति कीधी॥ आपणा नामने करवा प्रसिधि ॥ शिष्य सुमति तव दिए अंबाइ ॥आ. गल कलियुग आवशे भाइ ॥ ११ ॥ लोक होसे अति लोभि विषमा । ते आगल लइ जासे पडिमा ॥ पाषाण बिंब लिओ ते माटे ॥ कहे सं. घवी किम आवशे वाटे ॥ १२ ॥ काचे तांतणे विटो बलायो । मारगे मुरती एणीपरे ल्यावो ।। पुंठे म जोसो ने जो करशो विलंब ।। तिहांकणे रेहस्ये ते निश्चल बिंब ॥ १३ ॥ एम सोखामण चित्त धरइ॥ श्याम पाषाण तणो: बिंध लेइ । केटलिक भोमिका मेलीने आवे ॥ संघवी मनमे तव विस्मय थावे ॥१४॥ आवे के ना वे ए वाट विवाले। एम विमासी तव पार्छ निहाले ॥ रह्यो स्थिर बिंब आयो नवि हाले ।पाशाद रचना तिहां कणे चाले. ॥ १५॥ सुंदर श्री जिन भुवन कराव्यो । संघ
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