Book Title: Girnar Galp
Author(s): Lalitvijay
Publisher: Hansvijay Free Jain Library

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Page 131
________________ । १०५] मोति वधावे ।। १ ॥ मन सुद्धशु भावना भावे ॥ उपकरण तलाटिये ठावे ॥ जिन जोवाने उछक थावे ।। नेम भेटोने पाप समावे ॥ २ ॥ धोती पेहेरे थइ नीर्मल अंग ॥ स्नात्र करवाने थया सुवंग ॥ आवे मुल गंभारा माहे ॥ स्नान करे जल प्रवर प्रवाहे ॥ ३ ॥ संघमां नहि श्रावकनो पार ॥ तेणे व्यापी पाणी धार ॥ तोहां कणे अचंभम होय ॥ लेपमय बिंब गलियु सोय ॥४॥ संघ सहू तब हुवो विछिन । खेद धरे घणुं संघवि रत्न । धिग मैं असातना कीधी अजाण|| तीरथ कियो भंस ए ठाण ॥५॥ आरोगोस हवे तो जल अन्न, जो ठामे स्थापिश बिंब रत्न || मन सुधे एम आखडि किंधि । संघ भलामण भाइने दीधि ॥ ६॥ अवर अध्यातम संघलो छांडे ॥ आपण तप करवाने मांडे । साठ हुवा उपवास जिवारे ।। अंबाइ आव्यां प्रतक्ष तिवारे ॥ ७ ॥ कंचन बलाणिक नामे सुचंग ॥ जदूनिर्मित प्रासाद उतंग ॥तिहां संघवीने अंबा हि आवे ॥ गिनवर बिंबते सघला देखावे ॥ ८॥ श्री. नेमिनाथ यदा विमान ।। कुन निर्मित बिंब Aho ! Shrutgyanam

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