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क्षीर सिन्धु पृथिवी पर आशीर्वादसे युक्त वचनांसे निरन्तर संग्रामको सुख देता है । उत्तम गुणांसे विभूषित लक्ष्मी हमारी पुत्री है और तुम रूप नारायण हो, परन्तु कीर्तिों आशक्त होने के कारण आप लक्ष्मीको तृणवत् मानते हैं विशेष क्या कहें॥१॥ यह सुन कर संग्राम सोनीने अङ्कके सब आभूषणों सहित लाख रुपये दिये ब्राह्मण इधर उधर देखने लगा, तब व्यवहारिजनोंने कहाकि-वया देखते हो ?-बोलाकि-मेरा जन्मसे ही जो मित्र दारिद्र था उसे देखता हूं, हा मित्र ! कहां लले गये ? इस प्रकार कह कर पुकारने लगा, फिर बोलाकिहां मैंने जान लिया सज्जनों ! सुनो जोगङ्गा और यमुनाको पार कर गया था तथा जो कल्याणदायिनी नर्मदाके भी पार पहुंच गया था, नदियोंके जलके लांधनेकी तो उसकी बात ही क्या है जबकि वह समुद्र के भी पार पहुंच गया था, हे रुप नारायण । वह हमारा चिरसश्चित भी मित्र आपके दान समुद्रके प्रवाहकी तरङ्गोंमें एकदम इस प्रकार गोता लगा गया है कि मालूम भी नहीं पड़ता है।
Aho! Shrutgyanam